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भारत: एक लुप्तप्राय जनजाति की समृद्धि की यात्रा

तारो जनजाति की बाँस के उत्पाद बनाने की कला अब दूर-दराज़ के राज्यों तक पहुँच रही है.
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तारो जनजाति की बाँस के उत्पाद बनाने की कला अब दूर-दराज़ के राज्यों तक पहुँच रही है.

भारत: एक लुप्तप्राय जनजाति की समृद्धि की यात्रा

महिलाएँ

भारत के पूर्वोत्तर प्रदेश मणिपुर की एक छोटी सी जनजाति है तारो. बाँस के विभिन्न रंगीन उत्पाद बनाने में कुशल तारो जनजाति के भाग्य का सितारा उस समय चमक उठा, जब पारम्परिक कला की खोज में राष्ट्रीय संस्था के कुछ डिज़ाइनर उनके गाँव में आए. निर्धनता से समृद्धि के सफ़र की उनकी प्रेरक कहानी, यूएनवीमेन के प्रकाशन से.

मणिपुर में चन्देल ज़िले के खुरिंगमुल गाँव की तबीथा, मणिपुर की तारो (जिसे ताराओ भी कहा जाता है) जनजाति से सम्बन्ध रखती हैं. तबीथा एक कुशल कारीगर व उद्यमी है, जो बाँस की अद्भुत वस्तुएँ बनाती हैं. टोकरियाँ और फ़र्श पर बिछाई जाने वाली चटाई जैसे बाँस के पारम्परिक उत्पादों से होने वाली आय, उनके परिवार की आजीविका का मुख्य स्रोत है. उनके दो छोटे बेटे हैं जो स्कूल में पढ़ते हैं और पति राजमिस्त्री का काम करते हैं.

तबीथा ने, केवल 15 वर्ष की उम्र में यह कला सीखी थी. शुरू में, वो छोटे पैमाने पर काम करती थीं - उत्पाद बनाकर स्थानीय बाज़ार में बेच आती थीं.

लेकिन एक दिन, राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान (NID) के विशेषज्ञों के साथ उनकी अचानक मुलाक़ात हुई. ये विशेषज्ञ, तारो शिल्प के बारे में जानने के लिए मणिपुर के दूरदराज़ इलाकों का सर्वेक्षण कर रहे थे.

तबीथा बताती हैं, "इन डिज़ाइनरों ने मुझे फार, रुउपोक, बुककांग, लुकपाक, लुकटोंग और पीशेप जैसे सभी पारम्परिक उत्पादों के लिए नए डिजाइन बनाने और उन्हें चन्देल के स्थानीय बाज़ार से परे, बड़े बाज़ारों तक ले जाने की प्रेरणा दी."

2017 में, केवल 67 घरों वाले अपने गाँव की 35 अन्य महिलाओं के साथ मिलकर, तबीथा ने एक छोटी सहकारी समिति का पंजीकरण करवाया. जल्द ही, इनमें से 10 महिलाओं को डिज़ाइन एवं मार्केटिंग में प्रशिक्षण के लिए अहमदाबाद स्थित एनआईडी परिसर में बुलाया गया.

तबीथा अपने उद्यम का विस्तार कर, अपने समुदाय को पहचान देना चाहती हैं.
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कहा जाता है कि तारो जनजाति, 1075 ईस्वी से मणिपुर में बसी है, लेकिन सरकार से 2003 में ही ताराओ को मणिपुर की एक आदिवासी जनजाति के रूप में मान्यता मिली. कथित तौर पर यह भारत की सबसे छोटी जनजाति है. 

किवदन्ती है कि वे तत्कालीन बर्मा से आए थे और मणिपुर के कुछ हिस्सों, मुख्यतः चन्देल में बस गए. उनमें से कुछ लोग उखरुल क्षेत्र में भी पाए जाते हैं. यह ग़रीब जनजाति, आजीविका के लिए मुख्य रूप से जंगलों पर निर्भर है. शिक्षा और बाहरी दुनिया से उनका जुड़ाव कम ही रहा है.

एनआईडी के साथ सहयोग शुरू होने के बाद से, तारो बाँस के उत्पाद अहमदाबाद, दिल्ली, मैसूर, उत्तरी केरल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक पहुँच गए हैं. महिलाएँ अब प्रति माह औसतन 5 से 6 हज़ार रुपए तक अर्जित लेती हैं. 

लगभग पाँच साल पहले, जब महिलाएँ केवल सीमित डिज़ाइन ही बुन पाती थीं, उनकी प्रति माह आमदनी केवल एक हज़ार से 2 हज़ार रुपए तक ही थी.

बाँस की रंगीन टोकरी बुनती एक महिला.
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भारत सरकार के ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फ़ैडरेशन (TRIFED) ने, तारो महिला सदस्यों को देश भर की विभिन्न प्रदर्शनियों में भाग लेने के लिए आमंत्रित भी किया है.

तबीथा अपनी उपलब्धियों को लेकर बेपरवाह नहीं हुई हैं - फ़िलहाल तो बिल्कुल नहीं. अपने समुदाय के लिए उनके पास अभी बहुत सी योजनाएँ हैं.

वह कहती हैं, "ख़रीदार हमारे उत्पादों को लेकर, उनमें थोड़ी चमक व स्टाइल जोड़ देते हैं, और फिर उन्हें पाँच गुना अधिक क़ीमत पर बेच देते हैं."

"उदाहरण के लिए, एक छोटे आकार की बाँस की टोकरी जिसे हम 300 रुपए में बेचते हैं, मणिपुर के बाहर के बाज़ारों में ख़रीदारों को उसकी क़ीमत डेढ़ हज़ार रुपए तक मिल जाती हैं. मैं अपने उत्पादों को उस स्तर पर ले जाना चाहती हूँ, जहाँ हम सारी आमदनी गाँव में ही रखने में सक्षम हो सकें.''