भूमि और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव, खाद्य सुरक्षा के लिये हालात जोखिम भरे

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की एक नई रिपोर्ट दर्शाती है कि पिछले एक दशक में, मृदा, भूमि और जल संसाधनों पर दबाव लगातार बढ़ा है और अब स्थिति एक नाज़ुक पड़ाव पर पहुँच गई है. रिपोर्ट के मुताबिक़, मौजूदा हालात, पारिस्थितिकी तंत्रों की सेहत के नज़रिये से चिन्ताजनक हैं, जिससे बढ़ती विश्व आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिये ख़तरा उत्पन्न हो सकता है.
वर्ष 2050 में विश्व आबादी बढ़कर, 10 अरब तक पहुँच जाने का अनुमान है.
Land, soil & water are precious resources, essential for our food security. But unsustainable practices are putting them on the brink of collapse.We must manage these resources wisely to safeguard our future.👉https://t.co/m9G8uMewCf#SOLAW2021 pic.twitter.com/pn9omQjfSR
FAO
‘State of the World’s Land and Water Resources for Food and Agriculture – Systems at breaking point’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ती आबादी के लिये भोजन का प्रबन्ध करने के रास्ते में अनेक चुनौतियाँ हैं.
यूएन एजेंसी के महानिदेशक क्यू डोंग्यू ने नई रिपोर्ट पेश करते हुए कहा, “कृषि-खाद्य उत्पादन के मौजूदा रुझान, टिकाऊ साबित नहीं हो रहे हैं.”
उन्होंने कहा कि इसके बावजूद, ये प्रणालियाँ, इन दबावों को दूर करने और जलवायु व विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में सकारात्मक योगदान देने में एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक़, अगर दुनिया, मौजूदा रास्ते पर बढ़ना जारी रखते हुए, 50 फ़ीसदी अतिरिक्त भोजन का उत्पादन करती है, तो खेतीबाड़ी के लिये 35 प्रतिशत अधिक जल के इस्तेमाल की आवश्यकता होगी.
इसके दुष्प्रभाव, पर्यावरणीय आपदाओं के रूप में सामने आ सकते हैं, संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है, जोकि नई सामाजिक चुनौतियों व हिंसक टकरावों को हवा दे सकते हैं.
फ़िलहाल, मानव गतिविधियों के कारण होने वाले मृदा क्षरण से कृषि योग्य भूमि का 34 फ़ीसदी (166 करोड़ हैक्टेयर) प्रभावित है.
कुल खाद्य उत्पादन का 95 फ़ीसदी से अधिक, भूमि पर उगाया जाता है, और उत्पादकता बढ़ाने के नज़रिये से भूमि क्षेत्र का विस्तार कर पाना आसान नहीं है.
शहरी क्षेत्र, पृथ्वी की भूमि सतह के महज़ 0.5 फ़ीसदी पर ही मौजूद हैं, मगर शहरों का आकार तेज़ी से बढ़ने के कारण संसाधनों में काफ़ी हद तक कमी आई है. इसके साथ-साथ, प्रमुख कृषि-योग्य भूमि पर प्रदूषण व अतिक्रमण भी बढ़ा है.
वर्ष 2000 से 2017 के बीच, महज़ 17 वर्षों में, प्रति व्यक्ति भूमि के इस्तेमाल में 20 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
कृषि-योग्य भूमि वाले इलाक़ों में रह रहे तीन अरब 20 करोड़ से अधिक लोगों पर, जल की क़िल्लत का जोखिम मंडरा रहा है.
यूएन एजेंसी का मानना है कि टैक्नॉलॉजी और नवाचार के दायरे में तेज़ी से विस्तार के सहारे, इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है.
इस क्रम में, कृषि के लिये आँकड़े, जानकारी और विज्ञान-आधारित समाधान प्रस्तुत करने वाली डिजिटल प्रणालियों को मज़बूत किये जाने की आवश्यकता है.
भूमि और जल व्यवस्था को ज़्यादा समावेशी और परिस्थितियों के अनुरूप ढलने वाली बनाया जाना होगा, ताकि उनका लाभ लाखों-करोड़ों लघु किसानों, महिलाओं, युवजन और आदिवासी लोगों तक पहुँच सके.
ये समुदाय सर्वाधिक निर्बलों में हैं और उनके लिये खाद्य असुरक्षा का शिकार होने का जोखिम सबसे अधिक है.
इसके समानान्तर, सभी स्तरों पर एकीकृत योजना की भी दरकार होगी, और कृषि में निवेश को सामाजिक व पर्यावरणीय प्रगति की दिशा में मोड़ा जाना होगा.
खाद्य एवं कृषि संगठन का कहना है कि इन संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल, कार्बन उत्सर्जन में कटौती और अनुकूलन लक्ष्यों को हासिल करने के लिये बेहद अहम है.
उदाहरणस्वरूप, मृदा के बुद्धिमतापूर्ण उपयोग के ज़रिये, ग्रीनहाउस गैसों को ज़्यादा मात्रा में सोख़ पाना सम्भव है.