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साक्षात्कार

Revathi Roy

जागती आंखों से सपने देखो: रेवती रॉय

किराने का सामान, महत्वपूर्ण दस्तावेज़, कुरियर या कोई अन्य सामग्री हो, पार्सल वितरण की एक नई सेवा ज़रूरत का सामान लोगों के घरों तक पहुंचा रही है. अहम बात यह है कि ‘हे दीदी’ नाम की इस सेवा में हर ज़िम्मेदारी महिलाएं ही संभालती हैं. प्रशिक्षण प्राप्त एजेंट के तौर पर काम करने वाली अधिकांश महिलाएं निम्न आय वाले या ग़रीब परिवारों से आती हैं और यह अवसर उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बना रहा है.

इस पार्सल सेवा को शुरू करने वाली रेवती रॉय ने 2007 में ‘फ़ॉरशी’ नाम से एक टैक्सी सेवा की भी शुरुआत की थी जिसमें सिर्फ़ महिला चालक थीं और वो सेवा विशेष रूप से महिलाओं के लिए ही थी.

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UN

'मैं भी महिलाओं के लिए मिसाल बन सकती हूं'

भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका चलाने के लिए कृषि पर निर्भर है. इनमें भी अधिकाशं छोटे किसान हैं जिन्हें अपनी फ़सलों का कई बार सही दाम नहीं मिल पाता और बाज़ार से सीधे जुड़ने में भी अवरोधों का सामना करना पड़ता हैं. लेकिन हाल के सालों में जैविक खेती और सेहमतंद आहार की अहमियत के प्रति जागरूकता बढ़ी है जिससे कृषि के क्षेत्र में नए अवसर और संभावनाएं भी पैदा हुई हैं.

मुंबई स्थित ‘तरू नैचुरल्स’ इन्हीं दो विषयों को ध्यान में रखते हुए जैविक और स्वस्थ आहार को बढ़ावा देने और छोटे किसानों, विशेषकर महिला किसानों के सशक्तिकरण की दिशा में काम कर रही है.

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8'7"
UN News/Video screen grab

मैं कभी हिम्मत नहीं हारता: मैथ्यू निमेत्ज़

पिछले साल जून महीने में एक ऐतिहासिक समझौते के साथ ही दो देशों, पूर्व यूगोस्लाविया के मैसेडोनिया गणराज्य और ग्रीस, में 27 साल से चले आ रहे विवाद का निपटारा हो गया. इस मुद्दे पर चली वार्ताओं में संयुक्त राष्ट्र की ओर से मैथ्यू निमेत्ज़ ने अहम भूमिका निभाई और दो दशकों से ज़्यादा समय तक वार्ताओं का नेतृत्व किया.

संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता के बाद जब एथेंस और स्कोप्ये के बीच “प्रेस्पा समझौते” पर दोनों देशों की संसद ने मुहर लगाई और फिर 12 फ़रवरी को यह लागू हो गया. पूर्व यूगोस्लाविया के मैसेडोनिया गणराज्य का नया नाम अब उत्तर मैसेडोनिया गणराज्य है.

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Sarah Farhat/World Bank

भाषाओं का संरक्षण ज़रूरी

21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाया जाता है. एक ऐसा दिन जब भाषायी और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित रखने और उसके प्रचार प्रसार की अहमियत के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास किए जाते हैं.

कुछ अनुमानों के मुताबिक़ हर दो हफ़्ते में एक भाषा विलुप्त हो रही है. इसके साथ ही उस भाषा में बात करने वाले और उनसे जुड़े संस्कृति भी खो रही है जो चिंता का कारण है. लेकिन कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है. सीमित दायरे में प्रचलित भाषाएं विलुप्त होती हैं तो स्थानीय लोग अन्य भाषाओं को स्वीकार कर लेते हैं. ऐसे में भाषाओं को बचाने की ज़रूरत क्यों है. 

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