धुँधला रहा है 2030 तक ग़रीबी उन्मूलन का सपना – यूएन विशेषज्ञ

संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा है कि वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण 25 करोड़ से ज़्यादा लोग भुखमरी के कगार पर पहुँच गए हैं और वर्ष 2030 तक चरम ग़रीबी के उन्मूलन की उम्मीदें धूमिल हो गई हैं. यूएन के विशेष रैपोर्टेयर की ताज़ा रिपोर्ट में लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने के लिए सरकारों के आर्थिक प्रगति पर निर्भर रहने की आलोचना की गई है.
मानवाधिकार परिषद के सत्र में प्रस्तुत की जाने वाली इस रिपोर्ट को चरम ग़रीबी और मानवाधिकार पर यूएन के विशेष रैपोर्टेयर ओलिवियर दे शुटर के पूर्ववर्ती फ़िलिप ऑलस्टन ने तैयार किया है.
रिपोर्ट के मुताबिक टिकाऊ विकास लक्ष्यों के ज़रिये चरम ग़रीबी ख़त्म करने का यूएन का 2030 एजेण्डा बहुत ज़्यादा एक ग़रीबी की रेखा पर निर्भर करता है जिसे विश्व बैंक ने तैयार किया है. इस ग़रीबी रेखा के ज़रिये सरकारें वास्तविक प्रगति के अभाव में भी प्रगति का दावा कर सकती हैं.
#COVID19 has pushed more than 250 million people to the brink of starvation worldwide & dashed hopes of eradicating extreme poverty by 2030 – @srpoverty reports at #HRC44. The world needs new strategies, genuine mobilisation, empowerment & accountability: https://t.co/5tLunza4sT pic.twitter.com/xyQeliGJ4t
UN_SPExperts
रिपोर्ट दर्शाती है कि विश्वव्यापी महामारी के कारण 17 करोड़ से ज़्यादा लोग चरम ग़रीबी में धकेल दिए जाएँगे, जिससे निम्न आय वाले लोगों की उपेक्षा की समस्या और ज़्यादा विकराल रूप धारण कर लेगी.
इन हालात में महिलाओं, प्रवासी मज़दूरों और शरणार्थियों के प्रभावित होने की आशंका ज़्यादा है.
रिपोर्ट के अनुसार ग़रीबी, विषमता और मानव जीवन के प्रति बेपरवाही से निपटने में अन्तरराष्ट्रीय समुदाय का रिकॉर्ड ख़राब रहा है और यह स्थिति महामारी से पहले भी क़ायम थी.
“अनेक विश्व नेता, अर्थशास्त्री और विद्वानों ने उत्साहजनक तरीक़े से ख़ुद को बधाई देने वाले संदेशों को बढ़ावा दिया है, और ग़रीबी के ख़िलाफ़ प्रगति को हमारे समय की महानतम मानव उपलब्धि क़रार दिया है.”
“सच्चाई यह है कि अरबों लोगों को कम अवसरों, अनगिनत मौक़ों पर गरिमा को ठेस पहुँचने, अनावश्यक भुखमरी और रोकथाम की जा सकने वाली मौतों का सामना करना पड़ता है और उन्हें बुनियादी मानव अधिकार तक मयस्सर नहीं हैं.”
रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है कि आर्थिक वृद्धि के जिन फ़ायदों का वादा किया गया था, वे या तो पूरे नहीं हुए या फिर उनका लाभ सभी को नहीं मिला.
“दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना हो गया है लेकिन फिर आधी आबादी प्रतिदिन 5.50 डॉलर से कम पर गुज़ारा करती है, मुख्यत: इसलिये क्योंकि आर्थिक वृद्धि के फ़ायदे सबसे ज़्यादा अमीरों को मिले हैं.”
रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि दुनिया को नई रणनीतियों, ईमानदार लामबन्दी, सशक्तिकरण और जवाबदेही की ज़रूरत है ताकि केवल अन्तहीन सपाट रिपोर्टें जारी करते हुए ही नीन्द जैसी बेख़याली में आगे बढ़ते रहने का नतीजा निश्चित विफलता के रूप में सामने ना आए.
इस सिलसिले में न्यायोचित टैक्स को अहम बताया गया है ताकि सरकार के पास सामाजिक संरक्षा के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था हो.
वर्ष 2015 में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने मुनाफ़े की 40 फ़ीसदी धनराशि को ऐसे देशों मे हस्तान्तरित कर दिया जिन्हें टैक्स से बचने के लिए अनुकूल माना जाता है.
साथ ही वैश्विक स्तर पर कॉरपोरेट टैक्स में भारी गिरावट आई है - वर्ष 1980 में यह लगभग 40 फ़ीसदी था जो अब घटकर 24 प्रतिशत रह गया है.
विशेष रैपोर्टेयर ओलिवियर दे शुटर ने एक सामाजिक संरक्षा कोष बनाने की भी पुकार लगाई है ताकि निर्धनतम समुदायों को बुनियादी सामाजिक सुरक्षा गारण्टी प्रदान की जा सके.
उन्होंने कहा कि सम्पदा के स्फूर्तिवान पुनर्वितरण के बग़ैर महज़ आर्थिक वृद्धि के ज़रिये ग़रीबी से नही निपटा जा सकता.
ऐतिहासिक आँकड़े दर्शाते हैं कि प्रतिदिन पाँच अरब डॉलर की आय पर आधारित चरम ग़रीबी के उन्मूलन में 200 साल लगेंगे और उसके लिए वैश्विक सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को 173 गुना बढ़ना होगा.
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि यह पूरी तरह अवास्तविक सम्भावना है, इसलिए भी क्योंकि इसमें पर्यावरण क्षरण या जलवायु परिवर्तन का हिसाब नहीं रखा गया जो आमतौर पर आर्थिक विकास से जुड़े हैं.
उन्होंने ध्यान दिलाया कि ग़रीबी को उखाड़ फेंकने के लिए समावेशी समाजों का निर्माण करना होगा ताकि उदारता (चैरिटी)-आधारित समाधानों से लेकर अधिकार-आधारित सशक्तिकरण जैसे तरीक़े अपनाए जा सकें.
स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतंत्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.