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प्रवाल भित्तियाँ, जटिल पारिस्थितिकी प्रणाली होती हैं, जो मछली व अन्य जीवों के लिए मूल्यवान आवास प्रदान करती हैं.

भारत: तमिलनाडु में कृत्रिम प्रवाल भित्तियों के ज़रिये समुद्री जैव-विविधता की पुनर्बहाली

© Ocean Image Bank/Matt Curnock
प्रवाल भित्तियाँ, जटिल पारिस्थितिकी प्रणाली होती हैं, जो मछली व अन्य जीवों के लिए मूल्यवान आवास प्रदान करती हैं.

भारत: तमिलनाडु में कृत्रिम प्रवाल भित्तियों के ज़रिये समुद्री जैव-विविधता की पुनर्बहाली

जलवायु और पर्यावरण

भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) कार्यालय, तटीय प्रदेश तमिलनाडु में कृत्रिम प्रवाल भित्तियों (coral reefs) के ज़रिये, जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों में जुटा है. इससे न केवल समुद्री पर्यावरण को स्वस्थ बनाने में मदद मिली है, बल्कि मछुआरों की आमदनी भी बढ़ी है और वो सतत ढंग से मत्स्य पालन करना भी सीख रहे हैं.

भारत के 9 तटीय प्रदेशों में से एक है, तमिलनाडु, जहाँ 13 लाख मछुआरे रहते हैं. वे अपनी आजीविका के लिए समुद्री जैव विविधता पर निर्भर हैं. तमिलनाडु व श्रीलंका के बीच स्थित मन्नार का खाड़ी क्षेत्र, प्रवाल भित्तियों, समुद्री घास, मैन्ग्रोव, मुहाना, चट्टानी तटों और रेतीले समुद्र तटों समेत विविध एवं उत्पादक आवासों से पटा हुआ है.

10 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला यह क्षेत्र, दुनिया के सबसे अधिक उत्पादक समुद्री आवासों में से एक माना जाता है, जहाँ पौधों व पशुओं की 3,600 प्रजातियाँ वास करती हैं. 

दक्षिण पूर्व एशिया का पहला बायोस्फ़ीयर रिज़र्व मनाटी की एक लुप्तप्राय प्रजाति डुगोंग के लिए शेष बचा सबसे बड़ा चारागाह माना जाता है, जो कछुए, डॉल्फ़िन, व्हेल व sea cucumbers समेत कई अन्य दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों का घर है.

इस वजह से इसे मछली पकड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र भी माना जाता है. लेकिन हाल ही के दशकों में मत्स्य पालन उत्पादन में भारी गिरावट देखने को मिल रही है. 

जलवायु परिवर्तन और समुद्री संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने मत्स्य पालन में गिरावट में प्रमुख भूमिका निभाई है.
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अत्यधिक दोहन

एक संरक्षण एवं सामाजिक विकास संगठन, पार्टिसिपेटरी लर्निंग ऐक्शन नैटवर्क एंड ट्रेनिंग (PLANT) के संस्थापक, डॉक्टर आर टी जॉन सुरेश कहते हैं, ''इसके पीछे कई वजहें हैं.''

जलवायु परिवर्तन व समुद्री संसाधनों के अत्यधिक दोहन का इस गिरावट में बड़ा हाथ रहा है. 2004 में भारतीय महासागर में आई सूनामी के बाद, मछुआरों को फ़ाइबर ग्लास से बनी प्लास्टिक नावें और जाल बाँटे गए थे. हालाँकि इससे अल्पकाल में पुनर्बहाली में मदद मिली, लेकिन अन्तत: समुद्री संसाधनों का अत्याधिक दोहन होने लगा.

मछली पकड़ने के उपकरणों की चपेट में आने से, अक्सर युवा मछलियाँ व अन्य समुद्री जीव मर जाते हैं, जिससे नई मछलियों के नष्ट होने से, उनकी आबादी कम होने लगती है. इससे प्रवाल भित्तियाँ भी नष्ट हो रही हैं, जो अनगिनत प्रजातियों के लिए महत्पूर्ण प्रजनन स्थल का काम करती हैं.” 

यहीं पर आवश्यकता पड़ती है, कृत्रिम प्रवाल भित्तियों (coral reefs) की, जिसके इस्तेमाल से समुद्री जैवविविधता की पुनर्बहाली सम्भव है. कंक्रीट, रेत, सीमेंट, नीली धातु और स्टील जैसी सामग्रियों से निर्मित कृत्रिम मूंगे की चट्टानें, समुद्री वातावरण का सामना करने में सक्षम होती हैं और समुद्री जीव-जन्तुओं के लिए एक स्थिर आवास प्रदान करती हैं.

तमिलनाडु में चेन्नई फ़िशिंग हार्बर के पास कासिमेडु गाँव के एक मछुआरे शंकर, अन्तहीन हिन्द महासागर के अन्तहीन क्षितिज की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, “प्रवाल भित्तियाँ हमारी जीवन रेखा हैं. उनके कारण हमारे जालों में मछलियाँ आती हैं, हमारे घर तूफ़ानों से बचते हैं, और पीढ़ियों तक हमारे समुदाय बने रहते हैं. उनके बिना, हमारी जीवनशैली ख़त्म हो जाएगी.” 

कृत्रिम भित्तियाँ, कंक्रीट, रेत, सीमेंट, नीली धातु और स्टील से बनाई जाती हैं और समुद्री वातावरण का सामना करने में सक्षम होती हैं.
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कृत्रिम प्रवाल भित्तियाँ

धातु और कंक्रीट से बना ग्रोपर या फेरो-कंक्रीट कृत्रिम मॉड्यूल, छह वर्ग मीटर का त्रिआयामी सतही क्षेत्र प्रदान करता है. जब यह ढाँचा समुद्र के तल पर रखी जाती है, तो रीफ़ के तले का केवल एक वर्ग मीटर समुद्र तल पर होता है, जबकि पाँच वर्ग मीटर बायोमास उत्पादन के लिए उपलब्ध होता है, जो समुद्र तल के ऊपर भित्तियों को बढ़ने के लिए सहारा देता है.

स्थापित होने के छह महीने के भीतर, बैक्टीरिया के साथ जैविक प्रक्रियाएँ शुरू हो जाती हैं, जिसके बाद शैवाल, समुद्री शैवाल, स्पंज, कठोर व नरम मूंगा, स्टारफिश, समुद्री खीरे, केकड़े तथा झींगा मछली सहित विभिन्न प्रकार के जीव इस पर घर बनाने लगते हैं. बढ़ती बसावट से एक समृद्ध एवं विविध आवास निर्मित होता है, जो विभिन्न प्रकार की मछलियों व अन्य कशेरुकियों को आकर्षित करता है.

डॉक्टर सुरेश कहते हैं, “समय के साथ, कृत्रिम चट्टानें विकसित होकर प्राकृतिक भित्तियों या मूंगा चट्टानें जैसी ही दिखने लगती हैं, ख़ासतौर पर अगर प्राकृतिक प्रवाल भित्तियाँ उनके पास ही स्थित हों. इन्हें मछुआरों के गाँवों के पास भी स्थापित किया जा सकता है, ताकि मछुआरे समय और ईंधन बचा सकें और प्राकृतिक प्रवाल भित्तियों को होने वाला नुक़सान भी कम हो सके. 

कृत्रिम चट्टानों पर, सजावटी मछलियों की एक स्वस्थ आबादी को पनपने की जगह मिलती हैं, जिन्हें अतिरिक्त आमदनी के लिए उपयोग में लाया जा सकता है. स्कूबा डाइविंग और स्नॉर्कलिंग जैसी जोखिम वाली पर्यटन गतिविधियों के रूप में इनसे युवजन को एक आकर्षक करियर विकल्प भी प्रदान करते हैं.”

डॉक्टर सुरेश, एक संरक्षण व सामाजिक विकास संगठन के संस्थापक हैं.
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मछुआरों के गाँव, पुडुपेट के निवासी कालियामूर्ति इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, “कृत्रिम चट्टानों के कारण मछली पकड़ने की हमारी यात्रा कम हो गई है, जिससे हर दिन लगभग पाँच लीटर ईंधन की बचत होती है. हमारी आय, जो 2004 की सुनामी के बाद लगभग शून्य हो गई थी, अब लगभग 200 अमेरिकी डॉलर प्रति माह तक पहुँच गई है. यह न केवल हमारे ख़र्चें पूरा करने के लिए, बल्कि परिवार के भविष्य के लिए बचत करने के लिए भी पर्याप्त है. ऐसा प्रतीत होता है कि मानो समुद्र ने स्वयं मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया हो. '' 

यूएनडीपी द्वारा कार्यान्वित यह परियोजना, वैश्विक पर्यावरण सुविधा (GEF) के लघु अनुदान कार्यक्रम द्वारा वित्त पोषित है. साथ ही, ऊर्जा और संसाधन संस्थान (TERI) , PLANT  के साथ साझेदारी में, मन्नार बायोस्फ़ीयर रिज़र्व की खाड़ी में प्रवाल भित्तियाँ स्थापित करने का काम कर रहा है. 

मत्स्य संसाधनों में सुधार लाने और मछली पकड़ने वाले समुदायों का समर्थन करने के उद्देश्य से तीन सौ कृत्रिम चट्टानें बनाई और स्थापित की जा रही हैं. साथ ही, दीर्घकालिक पारिस्थितिक एवं आर्थिक स्थिरता हेतु, मछुआरों को मत्स्य पालन की सतत प्रथाओं पर प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है.

संरक्षण से लाभ

बड़े जीवमंडल रिज़र्व के भीतर इन विशिष्ट क्षेत्रों को समुद्री संरक्षित क्षेत्र और आदिवासी समुदाय संरक्षित क्षेत्रों (ICCAs) के रूप में नामित करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं. इन संरक्षण प्रयासों से कुल मिलाकर 1,200 परिवारों और 4,800 परिवारों को सीधे लाभ पहुँचेगा.

मद्रास विश्वविद्यालय से कृत्रिम रीफ़ अध्ययन में पीएचडी, डॉक्टर सुरेश बताते हैं कि इससे उन्हें बहुत संतुष्टि महसूस होती है. “शुरुआत में, मुझे सन्देह था कि मछली पकड़ने वाले समुदाय इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया देंगे. लेकिन इन वैज्ञानिक तरीक़ों को अपनाने के लिए उनका असीम उत्साह देखकर स्पष्ट हो गया कि स्थानीय समुदायों को साथ लेकर चलने वाले सहभागी संरक्षण मॉडल ही हमारी बहुमूल्य जैव विविधता की रक्षा के लिए भविष्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं.”

जब संरक्षणकर्ता, समुदाय और सरकारें, साथ मिलकर काम करती हैं, तो लहरों के नीचे जीवन की जीवन्त तस्वीर एक बार फिर सजीव हो उठती है.

डॉक्टर सुरेश और उनकी टीम के काम की बदौलत, मछुआरों की यात्राएँ छोटी हो गई हैं, जिससे हर दिन लगभग पाँच लीटर ईंधन की बचत होती है.
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