‘भूमिहीन से भू-स्वामी’: आदिवासी समुदायों को उनके अधिकार दिलाने के प्रयास
भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP), भारत सरकार के साथ मिलकर स्थानीय आदिवासी समुदायों, विशेषकर महिलाओं को वन भूमि स्वामित्व का अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत है. इससे ना केवल आदिवासियों को आजीविका के बेहतर साधन मिल रहे हैं, बल्कि यह वन संरक्षण के लिए भी एक उपयुक्त उपाय साबित हो रहा है.
मार्च की चिलचिलाती धूप में, सोमारी बाई झुककर अपने धान के खेत की कटाई कर रहीं हैं, इस बात से बिल्कुल बेफ़िक्र कि आने वाले महीनों में गर्मी और बढ़ेगी. खेतों के बीच रास्ता बनाकर आगे बढ़ते हुए, वो रुककर अपनी साड़ी का पल्लू सिर पर ढंकती हैं, मानों कठोर धूप से बचाव का यही एकमात्र तरीक़ा हो.
60 वर्षीय सोमारी बाई, दृढ़ निश्चयी दृष्टि से मुस्कराते हुए कहती हैं, "मुझे कड़ी मेहनत करने की आदत है. मेरा जीवन कठिन रहा है और कड़ी मेहनत ही एक ऐसी चीज़ है जिसने मेरे परिवार को जीवित रखा है. मैं आपको अपनी दुख भरी कहानी से उबाना नहीं चाहती हूँ."
मध्य भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में, गोंड जनजाति से ताल्लुक रखने वाली सोमारी बाई को, अपने विवाहित जीवन की शुरुआत में ही बड़ा दंश झेलना पड़ा. उन्होंने एक ही वर्ष के भीतर अपने पति, ससुर व सास को खो दिया, और दो बच्चों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उन पर आ गई.
उन्होंने आस-पास के जंगल से महुआ फूल, तेंदू और पान के पत्ते, और चार और चीका जैसे फल इकट्ठा करके, उन्हें स्थानीय बाज़ार में बेचना शुरू किया. लेकिन उनका गुज़ारा बड़ी मुश्किल से होता था.
सोमारी बाई बताती हैं, "मेरी आमदनी, अपने बेटों को शिक्षित करने और हम सभी का पेट भरने के लिए बहुत कम थी."
अनियोजित विकास के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन ने, जैव विविधता पर क़हर बरपाया है, जिसके परिणामस्वरूप वन आवरण, लकड़ी रहित वन उपज और खेती के लिए उपलब्ध भूमि में कमी आई है.
2011 की जनगणना के अनुसार, आदिवासी आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 प्रतिशत यानि 10 करोड़ 40 लाख से अधिक है, जिसमें 50 प्रतिशत से अधिक आदिवासी वन क्षेत्रों में रहते हैं.
जबरन विस्थापन और भूमि का स्वामित्व न होने के कारण, अक्सर आदिवासी समुदायों की स्थिति सम्वेदनशील होती है.
एकल व संयुक्त अधिकारों को मान्यता
इस पृष्ठभूमि में, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम), आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाने और भेदभाव का मुक़ाबला करने के लिए एक प्रभावी उपाय साबित हुआ है.
वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act), वनों के लिए जनजातीय समुदाय, विशेषकर महिलाओं के योगदान को मान्यता देता है और समुदाय की महिलाओं और पुरुषों को समान भूमि स्वामित्व अधिकार प्रदान करता है.
यह पहली बार है कि किसी क़ानून में व्यक्तिगत भूमि पर संयुक्त स्वामित्व का उल्लेख किया गया है. साथ ही इसमें, भूमि पर एकल महिलाओं के अधिकारों को भी मान्यता दी गई हैं.
2012 से भारत में यूएनडीपी, देश भर में अधिनियम के कार्यान्वयन को मज़बूत करने के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय के साथ सहयोग करता रहा है.
राष्ट्रीय स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक के कार्यान्वयन अधिकारियों के साथ मिलकर, अनेक प्रशिक्षण क्षमता निर्माण व जागरूकता कार्यशालाओं का आयोजन किया गया है, और राज्यों द्वारा कार्यान्वयन के लिए एक रोडमैप की तैयारी एवं निगरानी में सहायता की जा रही है.
अब तक, UNDP ने भारत के वनों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए लगभग 22 लाख वन भूमि स्वामित्व को मान्यता देने की प्रक्रिया को समर्थन प्रदान किया है, जिनमें 21 लाख से अधिक व्यक्तिगत और एक लाख से अधिक सामुदायिक हैं).
सोमारी बाई जैसे कई लोगों के लिए, इसका मतलब है, ऐसी भूमि का स्वामित्व मिलना, जो क़ानूनी तौर पर उनकी होगी, जिससे उनके विस्थापित होने की अनिश्चितता दूर होगी और उन्हें एक स्थिर आजीविका स्रोत प्राप्त होगा. सोमारी बाई को ढाई एकड़ से अधिक वन भूमि का स्वामित्व मिला है.
सोमारी बाई बताती हैं, “मैंने अपने खेत के लिए एक बोरवेल खोदा और सब्ज़ियों के साथ-साथ, धान की खेती भी शुरू की. मैं इस तरह की पहल करने वाली अपने गाँव की पहली व्यक्ति थी. फिर मैंने अपनी फ़सल, सरकारी मंडियों में बेचनी शुरू की.”
इन क़दमों से उनकी घरेलू आय, 25 हज़ार से से बढ़कर लगभग सवा लाख रुपये प्रति वर्ष हो गई है, जिससे उनके रहन-सहन में सुधार हुआ है.
2019 में जलवायु परिवर्तन पर अन्तर सरकारी पैनल (IPCC) की जलवायु परिवर्तन और भूमि पर विशेष रिपोर्ट में कहा गया कि भूमि अधिकार और मान्यता कार्यक्रम, विशेष रूप से स्थानीय व सामुदायिक स्वामित्व को अधिकृत एवं सम्मानित करने वाले कार्यक्रम, कार्बन भंडारण समेत अन्य मुद्दों पर वनों के बेहतर प्रबन्धन में मदद कर सकते हैं.
वन अधिकार अधिनियम, पारिस्थितिकी तंत्र आधारित अनुकूलन के लिए एक ऐसा वैश्विक मॉडल बन सकता है, जो ग़रीबी को कम करते हुए प्रकृति संरक्षण को बढ़ावा दे.
जनजातीय मामलों के मंत्रालय से लेकर, राज्य सरकारों व ग्राम सभाओं तक, वन अधिकार अधिनियम के निर्बाध कार्यान्वयन के लिए यूएनडीपी, सरकार के सभी स्तरों पर साथ मिलकर पर काम कर रहा है.
इसमें संस्थागत क्षमताओं को मज़बूत करना, आदिवासी लोगों को भूमि के अधिकार के लिए आवेदन करने में सक्षम बनाना और सामुदायिक वन संरक्षण योजनाओं की तैयारी के ज़रिए, वनों, वन्य जीवन एवं जैव-विविधता के संरक्षण व सुरक्षा के लिए ग्राम सभाओं का समर्थन करना शामिल है.
रोज़गार के अवसर
भूमि स्वामित्व सुरक्षा और उसका रिकॉर्ड रखे जाने के लिए, अधिकारों की मान्यता आवश्यक है. इसके मद्देनज़र, यूएनडीपी ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों के साथ साझेदारी को अन्य विकास कार्यक्रमों के साथ भी जोड़ा है, ताकि वन अधिकार भूमि धारकों के जीवन में और सुधार लाया जा सके.
उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में, यूएनडीपी इंडिया और राज्य के आदिवासी कल्याण विभाग ने ‘फ़ाउंडेशन ऑफ़ इकोलॉजिकल सिक्योरिटी’ (FES) के साथ साझेदारी में, मछली एवं अन्य जलाशय उत्पादों एवं आजीविका के लिए चारागाहों पर आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने के विशेष प्रयास किए हैं.
केन्द्र और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं के सम्मिलन से, व्यक्तिगत वन अधिकार धारकों को विभिन्न प्रकार की सहायता, जैसेकि भूमि समतलीकरण, खाद, बीज एवं सिंचाई उपकरण सम्बन्धी मदद प्रदान की जा रही है.
छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के मसूलपानी गाँव में 42 वर्षीय चमेली बाई एकल माँ हैं, और ऐसी ही एक योजना की लाभार्थी हैं. उन्हें लगभग एक एकड़ ज़मीन मिली, जिस पर उन्होंने वन उपज इकट्ठा करने और बेचने के अलावा धान की खेती शुरू की.
फिर उन्हें स्थानीय टीम द्वारा ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना) में आवेदन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिससे उन्हें खेती-बाड़ी से इतर दिनों में अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिली. भूमि के स्वामित्व ने, जनजातीय लोगों, विशेषकर महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसर खोलने में भी मदद की है.
छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले के वन बोर्ड की प्रसंस्करण इकाई में काम करने वाली 22 वर्षीय रंबा तिघम ने बताया, “चूँकि मेरा परिवार अपनी ज़मीन पर खेती कर सकता है, इसलिए अब हमें काम की तलाश में गाँव से बाहर नहीं जाना पड़ता. मेरे लिए, इसका मतलब यह भी है कि अब मैं अपने घर के क़रीब ही रोज़गार की तलाश कर सकती हूँ.”
वह मुस्कराते हुए कहती हैं, ''आदिवासी परिवारों को ज़मीन मिलने से, आख़िरकार उन्हें अपनी तक़दीर बदलने की ताक़त मिल गई है.''
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