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‘हेट स्पीच’ – एक बढ़ता अन्तरराष्ट्रीय ख़तरा

नफ़रत के खिलाफ एकता, एपिसोड 5
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नफ़रत के खिलाफ एकता, एपिसोड 5

‘हेट स्पीच’ – एक बढ़ता अन्तरराष्ट्रीय ख़तरा

मानवाधिकार

नफ़रत भरी भाषा, सन्देश व सम्बोधन कोई नई बात नहीं है, लेकिन ऐसे मामलों को इंटरनेट के प्रयोग से ज़ाहिर तौर पर बढ़ावा मिला है. ऑनलाइन माध्यमों के ज़रिए दुनिया भर में झूठ, साज़िशें और डराने-धमकाने के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. नफ़रत के ख़िलाफ़ एकजुटता (Uniting Against Hate) श्रृंखला के इस विशेष लेख में, हम इस बढ़ती हुई समस्या के प्रभावों और सम्भावित समाधानों को परखने का प्रयास कर रहे हैं.

‘हेट स्पीच’ (नफ़रत भरी बोली, भाषा व सन्देश) का समाज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, 6 जनवरी, 2021 को संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी में संसदीय इमारतों पर हुए हमले और हाल ही में ब्राज़ील में, सरकारी इमारतों पर भीड़ के हमले के बीच, अनेक समानताओं में से एक ये रही कि ये घटनाएँ, कुछ समूहों द्वारा बार-बार अन्य लोगों व समूहों के ख़िलाफ ख़तरनाक बयानबाज़ी, सन्देश और झूठे निर्देश देने के बाद हुईं.

इन बढ़ती घटनाओं के मद्देनज़र स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने प्रमुख सोशल मीडिया (ऑनलाइन माध्यमों) से अपील की है कि उन्हें नफ़रत भरी बोली, सन्देश व सम्बोधन के ख़िलाफ़ अपने व्यापार मॉडल में संशोधन करने चाहिए और इन मामलों पर जवाबदेही तय करनी होगी.

हाल ही में, सोशल मीडिया पर सक्रिय एंड्रयू टेट का मामला सुर्ख़ियों में रहा. एंड्रयू टेट को, कथित तौर पर मानव तस्करी और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के आरोपों की जाँच के तहत रोमानिया में हिरासत में लिया गया था. एंड्रयू टेट ने इन आरोपों से इन्कार किया है.

इससे पहले एंड्रयू टेट पर, ग़लत विचार और अभद्र भाषा का प्रयोग करने के कारण विभिन्न प्रमुख सोशल मीडिया मंचों पर रोक लगा दी गई थी. इनमें टिकटॉक, इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और यूट्यूब जैसे मंच शामिल हैं.

‘यूनाइटिंग अगेंस्ट हेट स्पीच’ पर संयुक्त राष्ट्र की पॉडकास्ट श्रृंखला में, निर्माता कैटी डॉर्टफ़ोर्ड ने उन प्रमुख कार्यकर्ताओं से ख़ास बातचीत की, जिन्हें अपने काम की वजह से ऑनलाइन हमलों, दुष्प्रचार और धमकियों का सामना करना पड़ा.

UNMISS, दक्षिण सूडान में संयुक्त राष्ट्र मिशन के साथ काम कर रहे शांतिरक्षक सेंट्रल इक्वेटोरिया में गश्त करते हैं
UN Photo/Isaac Billy

दक्षिण सूडान में हेट स्पीच और घातक हिंसा

दक्षिण सूडान में कुछ विशिष्ट वर्गों को ही इंटरनेट तक पहुँच है, लेकिन देश के सबसे प्रमुख मानवाधिकार रक्षकों में से एक, एडमंड यकानी जैसे कार्यकर्ता भी, ऑनलाइन माध्यमों पर नफ़रत भरी भाषा का निशाना बनते हैं.

यकानी बताते हैं कि किस तरह देश में और देश से बाहर रहने वाले नागरिकों यानि प्रवासियों की तरफ़ से, नफ़रत फैलाने वाली भाषा, किस तरह विश्व के इस नवीनतम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त देश में हिंसा बढ़ाई जा रही है. उनका कहना है कि देश में 60 फ़ीसदी भयानक हिंसा, नफ़रत भरी बोली और सन्देशों के कारण भड़कती है.

मानवाधिकार पैरोकार, एडमंड यकानी का कहना है कि वह अक्सर ऑनलाइन हमलों के शिकार हुए हैं, जिसमें उनकी छवि या उनके दिए हुए बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है.

"कुछ लोग तो मुझे जानवर, एक तिलचट्टा, बन्दर या साँप कहकर वर्णित करते हैं और कुछ लोग मुझे एक हत्यारा कहकर पुकारते हैं.”

“इस तरह के बयानों का बहुत गम्भीर प्रभाव होता है. ये मेरे सामाजिक ताने-बाने, दूसरों के साथ मेरे सम्बन्धों को पूरी तरह ख़त्म कर देता है, और इस तरह की भाषा से मेरे प्रति लोगों में अविश्वास उत्पन्न होता है.”

ये हालात, यकानी के लिए बेहद चिन्ताजनक है कि नफ़रत भरी ये बोली, देश को अस्थिर बना रही है और विवादों को सुलझाने के लिए हिंसा को प्राथमिक उपाय बना रही है.  

यकानी, अपनी सुरक्षा ख़तरे में होने के बावजूद, जवाबदेही, न्याय और मानवाधिकारों के लिए सम्मान सुनिश्चित करने का प्रयास लगातार जारी रखे हुए हैं.

"कोई भी व्यक्ति जो अपने क़दम मज़बूती से जमाए हुए हैं, जवाबदेही व पारदर्शिता की मांग करते हैं, और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों, या फिर लोकतांत्रिक बदलाव की मांग कर रहे हों, वो हमेशा नफ़रत की भाषा का शिकार होते हैं.

मु्म्बई में एक निर्धन इलाक़े में कुछ बच्चे सार्वजनिक शौचालय के बाहर अपनी बारी का इन्तज़ार करते हुए.
© UNICEF/Dhiraj Singh

एक दलित की पहचान

जब वर्ष 2015 में, याशिका दत्त ने सार्वजनिक रूप से अपनी पहचान दलित के रूप में की, तो वे जाति-आधारित भेदभाव करने वाले लोगों की नफ़रत भरी भाषा के निशाने पर आ गईं. इन लोगों के अनुसार जाति-आधारित वर्गीकरण में दलित सबसे नीचे आते हैं.

“मैं खुलकर अपनी बात रखती थी. मैंने जाति के बारे में चर्चा की और कहा कि हमें यह पहचानने और स्वीकार करने की ज़रूरत है कि जाति मौजूद है और झुठलाया या छिपाया नहीं जा सकता है. ज़ाहिर है कि इन बातों ने बहुत से लोगों को परेशान किया होगा,  और इसलिए मुझ पर ऑनलाइन हमले होते रहते हैं.”

‘Coming out as Dalit’ नामक संस्मरण (पुस्तक) की पुरस्कृत लेखिका और पत्रकार यशिका दत्त का कहना है कि जाति और जातिवाद, भारतीय समाजों का हिस्सा है, चाहे वह देश में ही हो, या अन्य देशों में रहने वाले भारतीय प्रवासियों में. वे कहती हैं कि सोशल मीडिया के आने से नस्लवाद, नफ़रत और मौखिक हमलों को अवांछित बढ़ावा मिला है.

याशिका दत्त का टम्बलर ब्लॉग, "Documents of Dalit discrimination – दलित भेदभाव के दस्तावेज़", का मक़सद एक ऐसा सुरक्षित मंच प्रदान करना है, जहाँ निचली जाति के व्यक्ति अपने मानसिक सदमे के बारे में बात कर सकें, लेकिन वह कहती हैं कि अब उन्हें ट्विटर और फेसबुक़ पर हर दिन नफ़रत भरी बोली व सन्देशों का सामना करना पड़ता है.

"अगर मैं कोई भाषण देती हूँ या किसी पैनल-चर्चा का हिस्सा होती हूँ, तो हमेशा अवश्य कुछ लोग मुझे ट्रोल (आलोचना) करते हैं. यह समझने के बजाय, कि मैं इस भेदभाव से वास्तव में पीड़ित हूँ, और मैं व मेरे आसपास के लोग इसका हर दिन सामना करते हैं, मेरे बारे में कहा जाता है कि मैं किसी गुप्त एजेंसी के लिए काम करती हूँ."

याशिका दत्त का कहना है कि, नफ़रत की ये भाषा “वास्तव में इंटरनेट एक जघन्य रूप में सक्रिय है क्योंकि ‘ट्रोल्स’ की पूरी सेना आपके अकाउंट पर झुंड के रूप में हमला करती है, और यह सुनिश्चित करती है कि आप फिर कभी अपनी आवाज़ ना उठाएँ. और यह बहुत ख़ौफ़नाक है.”

यशिका दत्त के अनुसार, एक प्रतिष्ठित दक्षिणपंथी अकाउंट ने अपने लाखों प्रशंसकों को, अपशब्द कहने और शारीरिक या यौन हमले से डराने की कोशिश की, और यहाँ तक ​​कि मौत की धमकी देने के लिए भी भड़काया.

“मुझे लम्बे समय के लिए ऑफ़लाइन जाना पड़ा. भले ही मैं न्यूयॉर्क में रहती हूँ, मगर फिर भी भारत से बहुत सारी धमकियाँ आती हैं. और अब यहाँ अमेरिका में भी कट्टरपंथी हिन्दू समुदायों की मौजूदगी बड़ी संख्या में है. यह काफ़ी डरावना था, और समय के साथ मैंने इसका सामना करना सीख लिया है."

 “जान-बूझकर या अनजाने में, इसका असर हमारी अभिव्यक्ति पर पड़ता है. आख़िर में आप सोचने लगते हैं कि यदि आपने ये ट्वीट सन्देश इस तरह लिखा तो इसका क्या परिणाम होगा.”

मानवाधिकार विशेषज्ञों का मानना है कि ऑनलाइन व ऑफ़लाइन, बढ़ती नफ़रत, लोकतंत्र व मानवाधिकारों के लिये ख़तरा है.
Unsplash/Dan Edge

‘मैंने अपनी सभी उम्मीदें दफ़ना दीं'

एक अन्य महिला लेखिका और पत्रकार मार्टीना म्लिनारेविक को भी नफ़रत भरी भाषा का सामना करना पड़ा है.

मार्टीना म्लिनारेविक चैक गणराज्य में, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना की राजदूत हैं. उन्होंने वर्षों से अपने देश में भ्रष्टाचार के तमाम पहलुओं के बारे में लिखा है. इसके लिए उन्हें ऑनलाइन धमकियों और अपमानों का सामना करना पड़ा, लेकिन ये दुर्व्यवहार उस समय बिल्कुल एक अलग स्तर पर पहुँच गया, जब एक पत्रिका में उनके मास्टेक्टॉमी (स्तन उच्छेदन) के निशान की तस्वीर एक पत्रिका में प्रकाशित की गईं, जोकि बोस्नियो हर्ज़ेगोविना के लिए इस तरह का पहला मामला था.

मुझे ऑनलाइन धमकियों के कारण एक छोटे बच्चे के साथ दूसरे शहर जाना पड़ा. मेरे लिए सबसे कठिन और दुख़द रहा - अपने मूल शहर को छोड़ना, जहाँ मैंने अपने जीवन के 37 साल गुज़ारे.

मार्टीना म्लिनारेविक बताती हैं कि जब वर्ष 2020 में वो वह प्राग आईं, तो उनकी हमशक्ल एक गुड़िया को एक पारम्परिक समारोह में जलाया गया. "यह न केवल मेरे स्तन पर निशान नज़र आने के लिए मेरे ख़िलाफ़ एक उत्पीड़न अभियान था, बल्कि राजनीति पर टिप्पणी करने और लैंगिक मुद्दों पर अपनी राय देने के लिए व अन्य समस्याओं को उजागर करने के लिए मुझे दंडित करना भी था."

उस समय इन सभी हमलों के लिए कोई सज़ा नहीं हुई.  और वो हमले स्त्रीद्वेश में तब्दील हो, जिससे उनकी सुरक्षा और परिवार को ख़तरा पैदा हो गया. "मेरे लिए वो ऐसा मोड़ था जब मैंने उस क्षेत्र के बारे में अपनी सभी उम्मीदों को दफ़न कर दिया, जहाँ से मैं आई थी.”

मार्टीना म्लिनारेविक अपने कड़वे अनुभवों के बावजूद, भविष्य के लिए आशावादी हैं. "मैं यथासम्भव युवजन के साथ काम करने की कोशिश कर रही हूँ, उनकी आवाज़, लड़कियों और महिलाओं की आवाज़ को सशक्त बनाने का प्रयास कर रही हूँ, और उन्हें ख़ुद के लिए और दूसरों के लिए लड़ना सिखा रही हूँ. मैं आशा करती हूँ कि हमारे सभी बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य होगा.”