'फ़ेसबुक पर नफ़रत भरी सामग्री से मानव गरिमा के लिये गम्भीर चुनौतियाँ'
संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने फ़ेसबुक के निगरानी बोर्ड से, विवादास्पद सामग्री, विशेष रूप में घृणास्पद या नफ़रत फैलाने वाली सामग्री के बारे में कोई फ़ैसला करने से पहले, नस्लीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को और ज़्यादा अहमियत देने का आहवान किया है.
अल्पसंख्यक मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर फ़र्नान्ड डे वैरेनेस ने हाल में आई इन ख़बरों का स्वागत किया है कि फ़ेसबुक के निगरानी बोर्ड ने ऐसे पहले 6 मामले स्वीकार कर लिये है जिनमें कुछ सामग्री को हटाए जाने के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपील की गई थी.
UN expert @fernanddev calls on Facebook’s Oversight Board to take the rights of ethnic, religious and linguistic minorities into account in reaching decisions, particularly on hate speech. Learn more: https://t.co/7snKcf6Dqh pic.twitter.com/gs92AovCOx
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उन्होंने कहा, “ऑनलाइन मंचों पर नफ़रत भरी भाषा का सबसे ज़्यादा सम्भावित या लक्षित निशाना अल्पसंख्यक हैं, और हम जानते हैं कि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ऑनलाइन मंचों पर नफ़रत भरी भाषा का इस्तेमाल करने के, अक्सर वास्तविक दुनिया में गम्भीर नतीजे होते हैं, यहाँ तक कि नस्लीय सफ़ाए और जनसंहार के रूप में भी सामने आ सकते हैं.”
उन्होंने कहा, “ऑनलाइन मंचों पर घृणास्पद भाषा का इस्तेमाल और फैलाव, मानव गरिमा व जीवन के लिये, आज के दौर की सबसे ज़्यादा गम्भीर चुनौतियों में से एक है.”
निगरानी मानकों की एकरूपता
फ़ेसबुक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) मार्क ज़ुकरबर्ग ने संस्था के निगरानी बोर्ड को, इस सोशल मीडिया मंच का अपना 'सुप्रीम कोर्ट' क़रार दिया है.
ये बोर्ड एक ऐसी स्वतंत्र संस्था है जो फ़ेसबुक के, किसी सामग्री को प्रकाशित करने में विवेक का इस्तेमाल करने के फ़ैसलों की समीक्षा करती है.
यूएन विशेषज्ञ का कहना है कि फ़ेसबुक के सामुदायिक मानकों को, संयुक्त राष्ट्र द्वारा, घृणास्पद भाषा पर, हाल ही में जारी की गई रणनीति व कार्य योजना में, नफ़रत भरी भाषा के बारे में दी गई समझ के स्तर पर लाना चाहिये.
उन्होंने फ़ेसबुक द्वारा भाषाई अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त करने में कोताही को परेशान करने वाला और अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून के उलट बताया.
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने, सिविल व राजनैतिक अधिकारों पर अन्तरराष्ट्रीय कवीनेन्ट के अनुच्छेद 27, और संयुक्त राष्ट्र महासभा के 1992 में पारित राष्ट्रीय या जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों से सम्बन्ध रखने वाले लोगों के अधिकारों पर घोषणा-पत्र, और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर अन्य क़ानूनी प्रावधानों की तरफ़ भी, निगरानी बोर्ड का ध्यान आकर्षित किया है.
बोर्ड की सराहना
संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने, साथ ही, निगरानी बोर्ड को, ऑनलाइन अभिव्यक्ति, ख़ासतौर से नफ़रत भरी सामग्री पर नज़र रखने वाली, एक ऐसी नवाचार, रचनात्मक व महत्वाकाँक्षी पहल क़रार दिया है, जो दुनिया भर में कमज़ोर हालात वाले अल्पसंख्यकों की असरदार हिफ़ाज़त सुनिश्चित करने के लिये ज़रूरी है.
उन्होंने इस तथ्य की भी सराहना की कि निगरानी बोर्ड में ऐसे प्रमुख विशेषज्ञ शामिल हैं जो मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिये प्रतिबद्ध हैं.
उन्होंने ये भी ज़िक्र किया है कि एक स्वतन्त्र ट्रस्ट द्वारा बोर्ड के प्रशासनिक संचालन के ज़रिये इसकी निष्पक्षता भी सुनिश्चित करने के प्रयास किये गए हैं.
नफ़रत का सामना
विशेष रैपोर्टेयर ने, वर्ष 2020 के दौरान, नफ़रत भाषा, सोशल मीडिया और अल्पसंख्यक, विषयों पर अपना ख़ास ध्यान केन्द्रित किया है.
उन्होंने योरोप, एशिया में क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किये, और नवम्बर में, अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के एक फ़ोरम की अध्यक्षता भी की थी.
इन तीनों गतिविधियों के ज़रिये, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ऑनलाइन घृणास्पद भाषा व सामग्री का मुक़ाबला करने के लिये, 100 से ज़्यादा सिफ़ारिशें पेश की गईं.
स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ और विशेष रैपोर्टेयर जिनीवा स्थित यूएन मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त किये जाते हैं. उनका कार्य किन्हीं ख़ास मानवाधिकार मुद्दों या देश की स्थिति की जाँच-पड़ताल करके उनके बारे में रिपोर्ट सौंपना है. ये पद मानद होते हैं और ये विशेषज्ञ संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं, और ना ही, यूएन द्वारा, उन्हें उनके इस कार्य के लिये कोई वेतन दिया जाता है.