हेट स्पीच: हवा का रुख़ पलटने की लहर

ऑनलाइन माध्यमों पर इस्तेमाल की जाने वाली हेट स्पीच, भले ही कभी नहीं थमने वाले लहर नज़र आती हो मगर सरकारें, नागरिक समाज और व्यक्तियों द्वारा इस समस्याओं के ख़िलाफ़ रणनीतियाँ नियोजित की जा रही हैं. संयुक्त राष्ट्र की इस नई पॉडकास्ट श्रृंखला ‘यूनाइटिंग अगेंस्ट हेट स्पीच’ यानि नफ़रत के ख़िलाफ एकजुटता, के इस भाग में ध्यान दिलाया गया है कि विश्व भर में इस ख़तरनाक चलन से कैसे निपटा जा रहा है.
नई संचार तकनीकों के कारण नफ़रत भरी भाषा के बढ़ते प्रभाव को, अभूतपूर्व स्तर पर प्रचार मिला है. ये तकनीकें, वैश्विक स्तर पर विभाजनकारी बयानबाज़ी फैलाने के सबसे सामान्य तरीक़ों में से एक हैं जिनसे दुनिया भर में अशान्ति फैलने का ख़तरा है.
एक प्रमुख अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन अल्पसंख्यक अधिकार समूह (Minority Rights Group) के अनुसार, एक विश्लेषण में वर्ष 2011 और 2021 के बीच ऑनलाइन माध्यमों पर, पाकिस्तान में नफ़रत भरे शब्दों के उपयोग में, 400 गुना वृद्धि दर्ज की गई है.
नफ़रत भरी भाषा का लगातार निरीक्षण करने से, अधिकारियों को भविष्य में होने वाले अपराधों का अन्दाज़ा हो सकता है, और साथ ही उन अपराधों की रोकथाम के लिए बहुमूल्य जानकारी मिल सकती है.
सेंटिनल प्रोजेक्ट, कैनेडा में एक ग़ैर-लाभकारी संगठन है, जिसकी ‘हेटबेस’ पहल, विभिन्न मंचों पर दिखने वाले भड़काऊ शब्दों की निगरानी करती है. घृणा से भरी ऐसी भाषा वास्तविक दुनिया में हिंसा का रूप लेती है.
सेंटिनल प्रोजेक्ट के कार्यकारी निदेशक क्रिस टकर ने इसे "प्रारम्भिक चेतावनी संकेतक के रूप में वर्णित किया है, जो हमें हिंसा के बढ़ते जोखिम से अवगत कराने में सहायता कर सकता है.”
इस प्रोजेक्ट के तहत ऑनलाइन माध्यमों, मुख्य तौर पर ट्विटर पर विभिन्न भाषाओं में लिखे गए, कुछ प्रमुख शब्दों यानि Keywords पर नज़र रखी जाती है. और फिर सम्बन्धित नियमों की मदद से, ये आकलन किया जाता है कि कौन सी सामग्री असल में नफ़रत भरी हो सकती है.
ये डेटाबेस यानि जानकारी अन्य संगठनों, शिक्षाविदों, ग़ैर सरकारी संगठनों और संयुक्त राष्ट्र से लेकर व्यक्तिगत शोधकर्ताओं व नागरिक समाज संगठनों के लिए उपलब्ध है, जो अपने विभिन्न उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की जाती है.
टकर के अनुसार, अभद्र भाषा और ग़लत सूचना आपस में जुड़े हुए हैं. उन्होनें उदाहरण देते हुए कहा, “नफ़रत भरी बोली और सन्देश, बन्दूक में बारूद की तरह हैं, और ग़लत सूचना व ख़बरें, ट्रिगर दबा देतीं हैं. इतनों सालों में कुछ इस तरह का रिश्ता समझ में आया है.”
ये स्थिति, सैद्धान्तिक रूप से किसी भी उस व्यक्ति को इस तरह की सामग्री का सृजक बना सकती है जिसके पास इंटरनेट कनेक्शन की सुविधा हो. और इसलिए यह वास्तव में वैश्विक पहुँच के साथ अनेक परिस्थितियों को बदलता है.
एक अन्य संगठन, ‘बाल्कन इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग नैटवर्क’ है, जो इसी तरह की अभद्र भाषा के इस्तेमाल का ख़ाका तैयार करता है.
ये नैटवर्क बोस्निया और हर्ज़ेगोविना में युद्धापराध अत्याचारों से सम्बन्धित प्रत्येक मुक़दमे पर नज़र रखता है और फ़िलहाल इसके पास 700 मामलों की जानकारी है.
नफ़रत का मानचित्र तैयार करके रखने में, चार अलग-अलग पहलू देखे जाते हैं, राजनेताओं द्वारा नफ़रत भरे भाषण, भेदभावपूर्ण भाषा, अत्याचार से इनकार और वास्तव में हुई वो घटनाएँ, जहाँ अल्पसंख्यक समूहों पर हमला किया गया हो.
बोस्निया और हर्ज़ेगोविना में इस प्रोजेक्ट की इस शाख़ा के कार्यकारी निदेशक और सम्पादक डेनिस गिलिक के अनुसार, देश में नफ़रत फैलाने वाले मुख्य रूप से लोकलुभावन वादी और जातीय-राष्ट्रवादी राजनेता हैं.
गिलिक का कहना है, "पूरी मैपिंग यानि निगरानी प्रक्रिया के पीछे का विचार, राजनैतिक बयानों और नफ़रत; व होने वाले असल अत्याचारों को, राजनैतिक तरीक़ों से बढ़ावा देने के बीच के सम्बन्ध को प्रमाणित करना है.” और होने वाले वास्तविक अत्याचारों के बीच सम्बन्ध को साबित करना है,"
गिलिक कहते हैं कि ये नैटवर्क ये भी साबित करना चाहता है कि नफ़रत में किए गए अपराधों की सुनियोजित पैरेवी की कमी है. राजनेताओं द्वारा अधिक भेदभावपूर्ण भाषा और कम मुक़दमों के कारण, अभद्र भाषा, हिंसा के इस कभी न रुकने वाले चक्र को चलने देती है.
डेनिस गिलिक बताते हैं, "नफ़रत भरी बोली के परिणामस्वरूप, हमने कट्टर सोच वाले समूहों में तेज़ी होते देखी. हम देश में तीन विभिन्न जातियों और धार्मिक समूहों के बीच इस अन्तर को बढ़ाने के लिए, नक़ली एनजीओ या नक़ली मानवतावादी समूहों को, अभद्र या भेदभावपूर्ण भाषा फैलाने के लिए संगठित होते हुए देख रहे हैं."
विशिष्ट अल्पसख्यंक पंथों की मौजूदगी के स्थान पर, इस नैटवर्क ने मस्जिदों, या चर्चों को नुक़सान पहुँचाने या तहस नहस करने जैसी वास्तविक घटनाएँ दर्ज की हैं.
गिलिक के अनुसार, ये हालात जातीय-राष्ट्रवादी दलों के एजेंडे को बढ़ावा दे रहे हैं, जो सभी लोगों को विभाजित करना चाहते हैं.
डेनिस गिलिक के मुताबिक़, हमें इस विषैले माहौल से निपटने के लिए और एकता के प्रचार के लिए, स्थिति के उलट कहानी बुननी होगी और सही ख़बरें फैलानी होंगी.
हालाँकि वे जानते हैं कि ये एक बड़ा काम है. विशिष्ट विषयों पर अलग तरीक़े से लिखने की कोशिश कर रहे, केवल 10 से 15 पत्रकारों के समूह का, सार्वजनिक प्रसारकों और कई सौ पत्रकारों के साथ बड़े मीडिया संगठनों से सामना करना अत्यन्त कठिन है.
एक संगठन जो काउंटर-नैरेटिव (एक वैकल्पिक कहानी) बनाने का प्रयास कर रहा है, वो इराक़ में एक स्वतंत्र मीडिया संगठन ‘किरकुक नाउ’ है. ये संगठन, इन समूहों पर निष्पक्ष और गुणवत्ता वाली सामग्री तैयार करने और उसे सोशल मीडिया मंचों पर साझा करने की कोशिश कर रहा है.
‘किरकुक नाउ’ के प्रधान सम्पादक सलाम ओमर का कहना है, "हमारा ध्यान अल्पसंख्यकों, आन्तरिक रूप से विस्थापित लोगों (IDPs), महिलाओं व बच्चों और निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर है."
ओमर कहते हैं, "हम इराक़ के मुख्य मीडिया संगठनों में बहुत कम सामग्री देखते हैं, और अगर उन्हें वास्तव में चित्रित किया जाता है, तो उन्हें समस्याओं के रूप में चित्रित किया जाता है.”
पाकिस्तान में कुछ धार्मिक या आस्था-आधारित समूह अतिसंवेदनशील हैं, विशेष रूप से अहमदिया व शिया और फिर हिन्दू और ईसाई धार्मिक समूह. वहाँ Bytes for All नामक एक मानवाधिकार संगठन ने नफ़रत भरी बोली का मुक़ाबला करने के लिए ऑनलाइन अभियान शुरू किया है.
पाकिस्तान में इस अभियान के ज़रिए हेट स्पीच के ख़िलाफ़ सन्देश को, विभिन्न संगठनों से समर्थन का संकल्प लेने और आम लोगों से इस सन्देश को ख़ूब फैलाने को कहा गया. इसे वर्ष 2021 में ट्विटर पर आरम्भ किया गया था जब, ये देश के शीर्ष दस ट्रेंड्स (रुझानों) में से एक बन गया.
अगले चरण में वीडियो सन्देश शामिल किए गए जिनमें पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति और युवाओं को भी शामिल करने के लिए, यूनिवर्सिटी रोड शो किए गए.
इस अभियान में ज़्यादातर 15 से 35 वर्ष की उम्र के लोगों पर ध्यान केन्द्रित रहा है जोकि पाकिस्तान की आबादी का अधिकांश हिस्सा है.
Bytes for All के एक पदाधिकारी हारून बलूच कहते हैं, “दरअसल इसी उम्र के लोग सोशल मीडिया मंचों का ज़्यादा प्रयोग करते हैं, हेट स्पीच फैलाने में शामिल होते हैं, साथ ही वो ख़ुद भी ऑनलाइन माध्यमों और नफ़रत भरे सन्देशों का सामना भी करते हैं.”
ये एक व्यापक सोच या अवधारणा है कि ये तय करने की ज़िम्मेदारी सोशल मीडिया कम्पनियों की होनी चाहिए कि किस तरह की सामग्री उनके मंच पर प्रकाशित हो रही है, और यदि उस सामग्री में नफ़रत भरी भाषा हो तो उसे स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए.
लेकिन अन्तरराष्ट्रीय ग़ैरसरकारी संगठन अल्पसंख्यक अधिकार समूह की उप निदेशिका क्लेयर थॉमस के अनुसार, ये समस्या का दीर्घकालीन समाधान नहीं है.
“हमने म्याँमार में देखा था कि जब फ़ेसबुक ने अपने मंच पर प्रभावी रूप से निगरानी करनी शुरू की, तो म्याँमार में अभद्र भाषा इस्तमाल करने वालों ने टिकटॉक का रूख़ कर लिया. जब आपके पास बहुत उपभोक्ता हों और अनेक मंच हों तो आप केवल अपनी सबसे कमज़ोर कड़ी के बराबर ही मज़बूत होते हैं. जब आप देखते हैं कि कोई विशिष्ट मंच कहाँ स्थित हैं, और उन पर किस न्याय क्षेत्र का नियंत्रण है, तो उनकी सामग्री को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने की हमारी सामर्थ्य, वास्तव में काफ़ी सीमित हो जाती है.”
क्लेयर थॉमस के विचार में, लोगों को हेट स्पीच के ख़तरों से अवगत कराना चाहिए और हानिकारक प्रभावों के बारे में शिक्षित करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सन्तुलित सामग्री तक उनकी अधिक पहुँच हो.
वो कहतीं हैं कि “मुझे मालूम है की ये बहुत बड़ा दायित्व है और बहुत से लोगों को ये नहीं लगता कि ये मुमकिन है. परन्तु मुझे लगता है कि हमें इसी दिशा में प्रयास करने चाहिए.”
संयुक्त राष्ट्र की एक पूर्व स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ टेंडाई ऐश्यूमे की नज़र में, सोशल मीडिया कम्पनियों को बिज़नैस मॉडल पर और ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है. “लोग इन सोशल मीडिया कम्पनियों की राजनैतिक अर्थव्यवस्था पर सघन ध्यान दिए बिना, सामग्री की निगरानी पर बात करने के बारे में बहुत समय बिताना चाहते हैं, कि इन मंचों पर क्या सामग्री स्वीकृत होनी चाहिए. और मालूम होता है कि हेट स्पीच असल में फ़ायदे का सौदा है.”
टेंडाई ऐश्यूमे का तर्क है कि ऐसे स्थान सृजित किए जाने की ज़रूरत है जहाँ भिन्न मतों वाले लोग आपस में जुड़ सकें. साथ ही, उनका ये भी कहना है कि मीडिया और ऑनलाइन मंचों पर जिस तरह लोगों का प्रतिनिधित्व होता है, उसके बारे में एक वृहद संवाद आयोजित किए जाने की आवश्यकता है.