इण्टरनेट व मोबाइल फ़ोन पर पाबन्दियों के बढ़ते चलन से अधिकारों के लिये गम्भीर ख़तरा
संयुक्त राष्ट्र के एक शीर्ष स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा है कि दुनिया भर में अनेक स्थानों पर असहमति को दबाने के लिये इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाएँ बन्द कर देने का चलन बहुत बढ़ गया है और बहुत से देशों में ये बहुत जटिल भी हो गया है क्योंकि सरकारें सत्ता अपने हाथों में रखना चाहती हैं.
विशेष मानवाधिकार विशेषज्ञ क्लेमेंट वॉले ने जिनीवा में मानवाधिकार परिषद को सम्बोधित करते हुए आगाह किया कि इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाओं पर पाबन्दियाँ अब अधिक समय तक जारी रह रही हैं और उनके बारे में जानकारी हासिल करना भी कठिन साबित हो रहा है.
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उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ये चलन केवल सर्वाधिकारवादी शासन व्यवस्थाओं वाले देशों तक ही सीमित नहीं है. "इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन पर ये पाबन्दियाँ लम्बे समय से लोकतंत्र शासन प्रणालियों वाले देशों और हाल के दौर में लोकतंत्र बने देशों में समान रूप से देखी गई हैं. ये दुनिया भर में देखे गए लोकतांत्रिक मन्दी के व्यापक चलन से मेल खाता है."
"उदारहरण स्वरूप, लातीनी अमेरिका में, वर्ष 2018 तक इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन पर पाबन्दियाँ, केवल निकारागुआ और वेनेज़ुएला में ही दर्ज किये गए थे, लेकिन उसके बाद से, कोलम्बिया, क्यूबा और इक्वाडोर में, जन प्रदर्शनों के सम्बन्ध में, कथित रूप से ये पाबन्दियाँ जल्दी-जल्दी देखी गई हैं."
बैण्डविथ का दम घोटा जाना
सुरक्षा बलों ने हाल के वर्षों में कुछ विशेष क्षेत्रों में प्रदर्शनकारियों को, प्रदर्शनों से पहले और उनके दौरान आपस में संवाद करने से रोकने के लिये, तेज़ रफ़्तार वाले इण्टरनेट का दम घोंटकर, अपनी तकनीकों में चिन्ताजनक तरीक़े से बदलाव किये हैं.
स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा, "सुरक्षा बलों ने विशेष रूप से सोशल मीडिया और सन्देश संवाद ऐप्लीकेशन मंचों के साथ-साथ, कुछ विशिष्ट स्थानों पर और विशिष्ट समुदायों को निशाना बनाया." कोविड-19 महामारी के दौरान इण्टरनेट सेवाओं की उपलब्धता में बाधा जारी रही और इस कारण लोगों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच से बाधाएँ खड़ी हुई हैं.
बांग्लादेश में हिंसा
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाएँ बन्द होने की घटनाओं वाले देशों का सन्दर्भ देते हुए ध्यान दिलाया कि बांग्लादेश में विशाल कॉक्सेस बाज़ार शरणार्थी शिविर में, सितम्बर 2019 में शुरू हो कर, लगभग 355 दिन तक, इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाएँ बन्द रहीं.
ख़बरों के अनुसार, ऐसा म्याँमार के राख़ीन प्रान्त में सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दो वर्ष पूरे होने के अवसर पर, रोहिंज्या शरणार्थियों द्वारा प्रदर्शन किये जाने के बाद किया गया था. ध्यान रहे कि म्याँमार में सुरक्षा बलों की कार्रवाई को, संयुक्त राष्ट्र के पूर्व मानवाधिकार उच्चायुक्त ज़ायद राआद अल हुसैन ने, नस्लीय सफ़ाए का ठोस मामला क़रार दिया था.
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि इण्टरनेट और मोबाइल सेवाएँ बन्द होने के तुरन्त बाद, बांग्लादेश के पुलिस और सैनिक जवान भारी संख्या में शरणार्थी शिविरों में दाख़िल हो गए, जिसके बाद बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ़्तार किये जाने, उन्हें पीटे जाने, हत्याओं और कड़े करफ़्यू की ख़बरें आई थीं, "अधिकारियों ने हज़ारों मोबाइल फ़ोन ज़ब्त कर लिये थे और शरणार्थियों द्वारा सिम कार्ड ख़रीदने पर रोक लगा दी थी. "
इथियोपिया में अशान्ति
शान्तिपूर्ण तरीक़े से सभाएँ करने और एकत्र होने के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि इथियोपिया में जुलाई 2020 में, तीन सप्ताह तक इण्टरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाएँ बन्द किये जाे के कारण, 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोग प्रभावित हुए थे.
उन्होंने कहा कि इन पाबन्दियों के बाद बड़े पैमाने पर अशान्त फैल गई थी जो एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और लोकप्रिय ओरोमो गायक हचालू हुण्डेसा की, 29 जून को हुई हत्या के कारण और भी भड़क उठी थी. उसके बाद तो प्रदर्शनों पर किये गए बल प्रयोग में कितने लोग हताहत हुए, इसकी सटीक जानकारी हासिल करना ही अत्यन्त कठिन साबित हुआ.

मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि बेलारूस में भी अगस्त 2020 में हुए चुनाव नतीजों के विरोध में हुए जन प्रदर्शनों के दौरान राष्ट्रव्यापी स्तर पर इण्टरनेट और मोबाइल फ़ोन पर पाबन्दियाँ लगाने के साथ-साथ अन्य तरह के व्यवधान तरीक़े अपनाए गए हैं. इन तरीक़ों में, लोकतंत्र समर्थकों की सभाओं द्वारा प्रयोग किये जाने वाले दौरान सोशल मीडिया मंचों को निशाना बनाया गया, जोकि दिसम्बर 2020 तक, प्रत्येक रविवार को आयोजित की जाती थीं.
म्याँमार में दण्ड मुक्ति
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने म्याँमार में फ़रवरी 2021 में सेना द्वारा तख़्तापलट के ज़रिये सत्ता अपने हाथों में लेने की घटना का ज़िक्र करते हुए कहा कि सैन्य नेतृत्व ने अनेक बार राष्ट्रीय स्तर पर इण्टरनेट पर पाबन्दियाँ लगाने के आदेश दिये थे, जिनका उद्देश्य सूचना के मुक्त प्रवाह को बाधित करना और लोकतंत्र के समर्थन में सक्रियता में हस्तक्षेप करना था.
इन तरीक़ों से, सुरक्षा बलों को दण्डमुक्ति का माहौल मिल गया जो रातों में भी लोगों का हिंसक दमन करने के साथ-साथ उन्हें गिरफ़्तार भी कर रहे थे, जबकि तमाम इण्टरनेट कम्पनियों को फ़ेसबुक, ट्विटर, और इंस्टाग्राम जैसे मंचों को रोक देने का आदेश दिया गया था.
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि माली में भी जुलाई 2020 में विशेष रूप से सोशल मीडिया संवाद मंच ऐसे जन प्रदर्शनों के दौरान बन्द किये गए जो राजनैतिक सुधारों की माँग कर रहे थे. कुछ इसी तरह की घटनाएँ, अक्टूबर 2019 में, इराक़ में और ईरान में, ईंधन की क़ीमतें बढ़ने के विरुद्ध नवम्बर 2019 में हुईं. सूडान में भी 2019 में आठ महीने तक चले लोकतंत्र समर्थित आन्दोलन के दौरान इण्टरनेट और मोबाइल फ़ोन पर पाबन्दियाँ लगाई गईं ताकि लोगों को पुलिस के बल प्रयोग और दमन का सीधा प्रसारण नहीं करने से रोका जा सके.
वैश्विक व्यवधान
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने ध्यान दिलाते हुए कहा कि एक ग़ैर-सरकारी संगठन - #KeepItOn गठबन्धन के आँकड़ों से झलकता है कि वर्ष 2016 के बाद से, 60 से भी ज़्यादा देशों में, कम से कम 768 सरकारी आदेशों के ज़रिये इण्टरनेट सेवाएँ रोकी गईं.
उन्होंने कहा कि लगभग 190 पाबन्दियों ने शान्तिपूर्ण सभाओं को प्रभावित किया, जबकि 2016 से मई 2021 तक, लगभग 55 पाबन्दियाँ चुनावों के सम्बन्ध में लगाई गईं. जनवरी 2019 से मई 2021 तक, लगभग 79 पाबन्दियाँ प्रदर्शनों के सम्बन्ध में लगाई गईं जिनमें बेनिन, बेलारूस, काँगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मलावी, उगाण्डा और कज़ाख़्स्तान के साथ-साथ अन्य देशों में चुनाव से सम्बन्धित पाबन्दियाँ शामिल थीं.
कोविड सम्बन्धी चिन्ताएँ
संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि कोविड-19 महामारी के दौरान इण्टरनेट और मोबाइल फ़ोन पर लगने वाली पाबन्दियों के साथ-साथ अन्य दमनकारी तरीक़े भी अपनाए गए हैं जिनमें पत्रकारों और मानवाधिकार हिमायतियों का आपराधीकरण किया जाना शामिल है.
ऐसा इसके बावजूद देखने में आया जबकि अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून में सुस्थापित सिद्धान्थ वर्णित हैं जिनमें ये कहा गया है कि मानवाधिकारों का ऑनलाइन और ऑफ़लाइन प्रयोग करने और उनका आनन्द उठाने के लिये इण्टरनेट की उपलब्धता अनिवार्य है, और इन अधिकारों में शान्तिपूर्ण तरीक़े से सभा करने का अधिकार भी शामिल है.
विशेष रैपोर्येटर और स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों की नियुक्ति यूएन मानवाधिकार परिषद द्वारा किसी मानवाधिकार मुद्दे या किसी देश में किसी ख़ास स्थिति की जाँच करने और रिपोर्ट सौंपने के लिये की जाती है. विशेष रैपोर्टेयर और स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और ना ही उनके काम के लिये उन्हें, संयुक्त राष्ट्र से कोई वेतन मिलता है.