एशिया प्रशान्त में बड़ी आबादी सामाजिक संरक्षा से वंचित

संयुक्त राष्ट्र की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में आधी से ज़्यादा आबादी को किसी तरह का सामाजिक संरक्षण हासिल नहीं है जिसके कारण बहुत बड़ी आबादी ख़राब स्वास्थ्य, ग़रीबी, असमानता और सामाजिक बहिष्करण का सामना करने को मजबूर है.
एशिया और प्रशान्त क्षेत्र के लिये संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक आयोग (ESCAP) और अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोनावायरस ने सामाजिक संरक्षा व सुरक्षा की ज़रूरत को और भी ज़्यादा रेखांकित कर दिया है.
A new @UN report released today reveals that despite their rapid socioeconomic ascent, most countries in the #AsiaPacific region have weak social protection systems riddled with gaps: https://t.co/OqrlHCMMh5 pic.twitter.com/xSe8y7sT9G
UNESCAP
आयोग की कार्यकारी सचिव ने गुरूवार को जारी एक प्रैस विज्ञप्ति में कहा, “व्यापक सामाजिक संरक्षा प्रणाली से स्वस्थ समाजों और जीवन्त अर्थव्यवस्थाओं की बुनियाद तैयार होती है.”
उन्होंने कहा, “कोविड-19 महामारी ने इस ज़रूरत को और ज़्यादा रेखांकित कर दिया है कि अच्छी तरह काम करने वाली सामाजिक संरक्षा प्रणालियों ने किस तरह स्थिति को स्थिर करने में मदद की है और इस तरह की प्रणालियों के अभाव ने किस तरह असमानता व ग़रीबी को बढ़ाया है.”
The Protection We Want: Social Outlook for Asia and the Pacific नामक इस रिपोर्ट के अनुसार महामारी ने भविष्य के लिये सामाजिक संरक्षा प्रणालियाँ बनाने का एक अवसर पैदा कर दिया है.
देशों को कोरोनावायरस महामारी के कारण जो आर्थिक व रोज़गार झटके देखने पड़ रहे हैं, उनका मतलब है कि पुनर्बहाली में सामाजिक संरक्षा एक महत्वपूर्ण नीति औज़ार के रूप में मौजूद रहेगा. रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि सामाजिक संरक्षा कार्यक्रम तमाम पुनर्बहाली योजनाओं का अभिन्न हिस्सा होना चाहिये.
रिपोर्ट कहती है कि स्वास्थ्य क्षेत्र को हटाकर बात करें तो, ज़्यादातर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक संरक्षा प्रणालियों पर ख़र्च करते हैं, जबकि इसके उलट वैश्विक औसत 11 प्रतिशत है.
पूरे एशिया व प्रशान्त क्षेत्र में लगभग 46 प्रतिशत आबादी सामाजिक संरक्षा के कम से कम एक क्षेत्र में संरक्षित है, मगर इसके उप क्षेत्रों - दक्षिण पूर्व में ये संख्या 33 फ़ीसदी और दक्षिण एशिया के देशों में केवल 24 प्रतिशत है.
बहुत से देशों में ऐसी अनेक आपदाओं के लिये कोई योजना या कार्यक्रम ही नहीं जिनमें सामाजिक संरक्षा की बहुत ज़रूरत होती है, और मातृत्व, रोग, व रोज़गार या कामकाज के दौरान ज़ख़्मी या विकलाँग होने पर वित्तीय लाभ देने की ज़िम्मेदारी रोज़गार दाताओं के हाथों में होती है.
रिपोर्ट में आगाह किया गया है, “इस तरह के इन्तेज़ाम रोज़गारदाताओं के लिये मनमाने हालात पैदा कर सकते हैं.
मसलन, मातृत्व और जच्च-बच्चा के लिये रोज़गारदाता से मिलने वाले वित्तीय लाभ का इस्तेमाल प्रजनन आयु की महिलाओं के साथ भेदभाव करने के लिये किया जा सकता है.”
रिपोर्ट में ऐसे सात उपायों की शिनाख़्त की गई है जो सरकारों सामाजिक संरक्षण को बेहतर बनाने के लिये कर सकती हैं.
इनमें शामिल हैं: सामाजिक संरक्षा को सामाजिक व आर्थिक विकास के लिये एक प्रमुख रणनीति के रूप में मिलाना, सभी लोगों के लिये सामाजिक संरक्षा मुहैया कराने के लिये राजनैतिक प्रतिबद्धता और संसाधन निवेश वृद्धि, सामाजिक संरक्षा में मौजूदा असमानताओं की खाई को पाटना, अनौपचारिक से औपचारिक अर्थव्यवस्था की तरफ़ बढ़त को बढ़ावा देना, और नीति निर्माण व नीति क्रियान्वयन के सभी स्तरों पर सामाजिक संरक्षा संवाद को शामिल करना, जिसमें मूल्याँकन का स्तर भी शामिल है.
रिपोर्ट में सामाजिक संरक्षा प्रणालियों की लैंगिक संवेदनशीलता को भी मज़बूत करने का आहवान करते हुए ये सुनिश्चित करने की माँग करती है कि महिलाओं, पुरुषों, लड़कियों और लड़कों द्वारा सामना किये जाने वाली कमज़ोर और संवेदनशील परिस्थितियों का भी हल निकालने पर ध्यान दिया जाए.
साथ ही, सामाजिक संरक्षा को असरदार तरीक़े से लागू करने, उसकी कुशलता व सभी के लिये उसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने नई टैक्नॉलॉजी का फ़ायदा उठाया जाना चाहिये.
रिपोर्ट कहती है कि एशिया प्रशान्त के देश अपने यहाँ सार्वभौमिक सामाजिक संरक्षा कवरेज के प्रति अपने संकल्प बढ़ाकर, दरअसल टिकाऊ विकास लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में भी सकारात्मक उपलब्धि हासिल करेंगे. ऐसा करके मौजूदा और भविष्य की चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिये भी बेहतर तैयारी हो सकेगी.