वैश्विक परिप्रेक्ष्य मानव कहानियां

'कश्मीर' में मानवाधिकार उल्लंघन की अंतरराष्ट्रीय जाँच का अनुरोध

श्रीनगर में तैनात सुरक्षाकर्मी (फ़ाइल).
Nimisha Jaiswal/IRIN
श्रीनगर में तैनात सुरक्षाकर्मी (फ़ाइल).

'कश्मीर' में मानवाधिकार उल्लंघन की अंतरराष्ट्रीय जाँच का अनुरोध

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन की एक ताज़ा रिपोर्ट में मानवाधिकार परिषद के 47 सदस्य देशों से 'कश्मीर' में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की जाँच के लिए एक अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र जाँच आयोग गठित करने की संभावना पर विचार करने का अनुरोध किया गया है.

'भारत प्रशासित कश्मीर' और 'पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर' में मानवाधिकार स्थिति के बारे में संयुक्त राष्ट्र की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले क़रीब एक साल के दौरान आम लोगों की मौतों की संख्या पिछले क़रीब एक दशक में सबसे ज़्यादा होने का अनुमान है.

8 जुलाई 2019 को जारी इस रिपोर्ट में मई 2018 से अप्रैल 2019 की समयावधि के दौरान मानवाधिकारों की स्थिति का जायज़ा लिया गया है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा जून 2018 में जारी रिपोर्ट में उठाई गईं विभिन्न चिंताओं के संबंध में भी कोई ठोस क़दम नहीं उठाए हैं.

इस रिपोर्ट में दिखाया गया है कि फ़रवरी 2019 में पुलवामा में भारतीय सुरक्षा बलों को निशाना बनाकर किए गए आत्मघाती हमले के बाद किस तरह कश्मीर में तनाव बढ़ गया था.

साथ ही ये भी कहा गया है कि इस तनाव ने आम लोगों के मानवाधिकारों को किस तरह गंभीर रूप से प्रभावित किया है. इनमें लोगों का जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थानीय सिविल सोसायटी द्वारा एकत्र आँकड़े बताते हैं कि “वर्ष 2018 में लगभग 160 आम लोगों की मौत हुई, ये संख्या पिछले क़रीब एक दशक में सबसे ज़्यादा होने की आशंका है.”

“वर्ष 2018 में ही संघर्ष संबंधी घटनाओं में 586 लोगों की मौत हुई जो वर्ष 2008 के बाद से सबसे ज़्यादा संख्या थी. इनमें सशस्त्र गुटों के 267 सदस्य और सुरक्षा बलों के 159 जवान भी थे.”

रिपोर्ट कहती है कि भारत के गृह मंत्रालय ने मारे गए लोगों की संख्या कुछ कम बताई है. गृह मंत्रालय की सूची में 2 दिसंबर 2018 तक के 11 महीनों के दौरान मारे गए लोगों की संख्या कुछ इस तरह बताई गई है – आम लोग 37, आतंकवादी 238 और सुरक्षा बलों के सदस्य 86.

स्थानीय संगठनों द्वारा एकत्र आँकड़ों के अनुसार जिन 160 आम लोगों की मौत हुई, उनमें 71 लोग कथित रूप से भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए. 43 लोगों की मौत कथित तौर पर सशस्त्र गुटों के सदस्यों या फिर अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा की गई. 29 लोगों की मौत सीमावर्ती इलाक़ों में पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा गोलीबारी या गोलाबारी में हुई बताई गई है.

सीमा पर संघर्ष

पाकिस्तान सरकार का कहना है कि वर्ष 2018 के दौरान पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाक़ों में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा की गई गोलीबारी और गोलाबारी में 35 आम लोगों की मौत हुई और 135 घायल हुए.

दो सशस्त्र गुटों पर भारत प्रशासित कश्मीर में बच्चों को लड़ाई के लिए भर्ती करने और उन्हें बाल सैनिकों के तौर पर इस्तेमाल करने के आरोप भी लगे हैं.

ये भी आरोप हैं कि जम्मू कश्मीर में सशस्त्र गुट राजनैतिक संगठनों से संबंधित लोगों पर हमले करने के लिए ज़िम्मेदार रहे हैं. इन हमलों में कम से कम छह राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और एक पृथकतावादी नेता की मौत हुई थी.

अक्तूबर 2018 में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों के समय सशस्त्र गुटों ने लोगों को उन चुनावों में भाग नहीं लेने की धमकियाँ दी थीं. उन चुनावों में हिस्सा लेने वाले प्रत्याशियों को तुरंत नाम वापिस लेने के लिए धमकियाँ दी गई थीं नहीं तो “गंभीर परिणाम” भुगतने के लिए तैयार रहने की चेतावनी भी दी गई थीं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत प्रशासित कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए जवाबदेही तय करने के मामले बिल्कुल ना के बराबर हैं.  

रिपोर्ट कहती है कि सुरक्षा बलों और सशस्त्र गुटों के सदस्यों के बीच हुई मुठभेड़ों के इर्दगिर्द के इलाकों में मारे गए आम लोगों की बड़ी संख्या के बावजूद “इस बारे में कोई जाँच-पड़ताल किए जाने की जानकारी नहीं है कि इतना ज़्यादा बल प्रयोग क्यों किया गया जिससे आम लोगों की मौत हुई.”

“जम्मू कश्मीर में वर्ष 2016 में आम लोगों की ग़ैर-न्यायिक तरीके से हुई हत्याओं की जाँच–पड़ताल शुरू की गई थी लेकिन उसकी प्रगति के बारे में भी कोई ताज़ा जानकारी उपलब्ध नही हैं.”

रिपोर्ट के अनुसार, “जम्मू कश्मीर सरकार ने वर्ष 2017 के दौरान हुई आम लोगों की मौतों के कारणों की कोई जाँच-पड़ताल नहीं शुरू की. इन मौतों के लिए किसी पर क़ानूनी कार्रवाई किए जाने की भी कोई ख़बरें नहीं हैं. ऐसा भी नज़र नहीं आता कि भारतीय सुरक्षा बलों को भीड़ को नियंत्रित करने व युद्धक गतिविधियों के नियमों का पालन करने की अपनी तकनीकों की समीक्षा करने या उनमें बदलाव करने के लिए कहा गया हो.”

रिपोर्ट कहती है कि लोगों को मनमाने तरीक़े से बंदी बना लेना और नाकेबंदी करके तलाशी अभियान चलाने के दौरान बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन के मामले गंभीर रूप से चिंता का विषय बने हुए हैं. इसी तरह भारत प्रशासित कश्मीर में लागू विशेष क़ानूनी व्यवस्थाएँ भी बहुत सी समस्याओं की जड़ नज़र आती हैं.

रिपोर्ट कहती है कि “सशस्त्र बल (जम्मू कश्मीर) विशेषाधिकार अधिनियम 1990 (अफ़्सपा) जवाबदेही निर्धारित करने के रास्ते में एक बड़ी बाधा है.”

“इस अधिनियम की “धारा – 7” सुरक्षा बलों के जवानों पर क़ानूनी कार्रवाई करने से रोकती है, जब तक कि भारत सरकार की पूर्वानुमति ना ले ली जाए, या फिर भारत सरकार सशस्त्र सुरक्षा बलों के सदस्यों पर मुक़दमा चलाने की अनुमति ना दे दे.”

रिपोर्ट के अनुसार, “क़रीब 30 वर्षों से ये क़ानून जम्मू कश्मीर में लागू रहा है और इन तीन दशकों के दौरान भारत सरकार ने सशस्त्र बलों के एक भी सदस्य पर क़ानूनी कार्रवाई करने की अनुमति नहीं दी है. भारतीय सेना द्वारा चलाए गए कोर्ट मार्शल में भी जिन सैनिकों को आरंभिक तौर पर दोषी पाया गया था, बाद में उच्च स्तरीय सैनिक ट्राइब्यूनल ने उन्हें बरी कर दिया, उनके बारे में सेना ने कोई ब्यौरा जारी नहीं किया है.”

इसके अलावा रिपोर्ट में ये भी कहा गया है, “सुरक्षा बलों के जवानों पर 1990 में आम लोगों को प्रताड़ित करने और अमानवीय व्यवहार करने के आरोप लगने शुरू होने के बावजूद एक भी जवान या सुरक्षा कर्मी के ख़िलाफ़ सिविल अदालत में क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई है.”

भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा भीड़ को नियंत्रित करने की तकनीक के रूप में बंदूकों (शॉटगन) के लगातार इस्तेमाल से बड़ी संख्या में लोगों के हताहत होने पर अंतरराष्ट्रीय चिंताओं के बावजूद उन बंदूकों का इस्तेमाल जारी है. इन बंदूकों के इस्तेमाल से और ज़्यादा लोगों की मौतें हो रही हैं और लोग गंभीर रूप से घायल भी हो रहे हैं, इस घायलावस्था से उनका जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है. हालाँकि इस तरह की बंदूकों का इस्तेमाल भारत के किसी अन्य हिस्से में नहीं होता है.

रिपोर्ट में अनेक दिल दहला देने वाली घटनाओं का हवाला दिया गया है. ऐसी ही एक घटना में 25 नवंबर 2018 को सुरक्षा बलों की शॉटगन से निकलने वाली धातु की गोलियाँ 19 महीने की एक लड़की की दाईं आँख में लगी थीं. "

"श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल से मिली जानकारी के अनुसार “मध्य 2016 से लेकर 2018 के अंत तक भारतीय सुरक्षा बलों की बंदूकों से निकली धातु की गोलियों से 1,253 लोग अंधे हो चुके हैं.” इस तरह की गोलियों से घायल होने वाले लोगों का इलाज इसी अस्पताल में होता है.

पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर

रिपोर्ट में 'पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर' में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की भी पड़ताल की गई है.

कश्मीर के उस हिस्से में भारत प्रशासित कश्मीर की तुलना में अलग तरह के मानवाधिकार उल्लंघन हो रहे हैं. आज़ाद जम्मू कश्मीर और गिलगित बल्तिस्तान में रहने वाले लोग बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं.

ख़ासतौर से उन्हें अपने विचार या राय अभिव्यक्त करने, शांतिपूर्ण रूप से सभा करने या किसी संगठन की सदस्यता हासिल करने की आज़ादी नहीं है.

रिपोर्ट कहती है कि इससे पहले जून 2018 में जारी की गई मानावधिकार कार्यालय की रिपोर्ट में जताई गई चिंताओं को दूर करने के मामले में कोई ठोस क़दम नहीं उठाए गए हैं.

इनमें बहुत गंभीर समस्याएँ पैदा करने वाली क़ानूनी पाबंदियों का ज़िक्र भी उस रिपोर्ट में किया गया था.

रिपोर्ट कहती है, “राजनैतिक प्रतिपक्षियों और सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए आतंकवाद निरोधक क़ानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है.”

रिपोर्ट ये भी कहती है कि राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता समर्थक राजनैतिक दलों का दावा है कि उन्हें भी स्थानीय अधिकारियों और गुप्तचर एजेंसियों की धमकियाँ मिलती हैं, प्रताड़ित किया जाता है, यहाँ तक कि उनकी राजनैतिक गतिविधियों के लिए उन्हें गिरफ़्तार भी किया जाता है. “इन धमकियों का शिकार अक्सर उनके परिजनों व बच्चों को भी बनाया जाता है.”

रिपोर्ट में कुछ ख़ास मामलों का ब्यौरा देते हुए कहा है कि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में “पत्रकारों को अपना कामकाज करने के लिए किस तरह धमकियों और यातना के माहौल में जीना पड़ता है.”

रिपोर्ट कहती है कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय को “ऐसी ठोस जानकारी मिली है कि किस तरह पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में लोगों को जबरन ग़ायब कर दिया जाता है. जबरन लापता होने वाले लोगों में वो लोग भी होते हैं जिन्हें गुप्त स्थानों पर हिरासत में रखा जाता है. ऐसे लोगों के पते-ठिकाने के बारे में कोई जानकारी अभी तक मालूम नहीं है.”

रिपोर्ट के अनुसार, “लगभग सभी मामलों में पीड़ितों ने आरोप लगाया है कि लोगों के इस तरह लापता होने के पीछे पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसियों का हाथ होता है.”

“ऐसा भी डर व्यक्त किए गया गया है कि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से जिन लोगों को जबरन ग़ायब किया गया है उन्हें पाकिस्तान में सेना द्वारा चलाए जा रहे बंदीगृहों में रखा गया हो.”

सशस्त्र गुट

रिपोर्ट में ये भी ध्यान दिलाया गया है कि भारत प्रशासित कश्मीर में इस समय प्रमुख रूप से चार सशस्त्र गुट सक्रिय हैं. इनके नाम हैं – लश्कर-ए-तैबा, जैश–ए-मोहम्मद, हिज़्ब-उल- मुजाहिदीन और हरकत-उल-मुजाहिदीन.

ऐसा माना जाता है कि ये चारों संगठन सीमा पार पाकिस्तान से अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं.

रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा गया है कि “संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय की जून 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट में पेश की गई सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए भारत और पाकिस्तान सरकार दोनों ने ही कोई ठोस क़दम नहीं उठाए हैं.

इसलिए इस ताज़ा रिपोर्ट में उन सिफ़ारिशों को दोहराते हुए कुछ नई सिफ़ारिशें भी पेश की गई हैं.

ये ताज़ा रिपोर्ट यहाँ उपलब्ध है.

इससे पहले कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय की रिपोर्ट 14 जून 2018 को प्रकाशित हुई थी जिसे यहाँ देखा जा सकता है.