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भारत: कचरे को पशु चारे में बदलती, काली सैनिक मक्खी

अपशिष्ट प्रबन्धन के लिए उपयोग होने वाला काली सैनिक मक्खी का लार्वा.
UNDP India
अपशिष्ट प्रबन्धन के लिए उपयोग होने वाला काली सैनिक मक्खी का लार्वा.

भारत: कचरे को पशु चारे में बदलती, काली सैनिक मक्खी

जलवायु और पर्यावरण

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) भारत के नागालैंड प्रदेश में एक ऐसी परियोजना का समर्थन कर रहा है, जिसके ज़रिए, पर्यावरण को हानि पहुँचाए बिना, घरेलू अपशिष्ट प्रबन्धन व री-सायकलिंग की जा रही है. ख़ास बात यह है कि इसमें मदद कर रही हैं – काली सैनिक मक्खियाँ.

आमतौर पर मक्खियों को दूर भगा दिया जाता है. हम उन्हें अपने भोजन के आसपास या घर में कहीं भी फटकने नहीं देना चाहते हैं. लेकिन नागालैंड के जोंगपोंग चिटेन और डॉक्टर अकुमतोशी एलके उन्हें ढूंढकर, पालते हैं. सभी प्रकार की मक्खियों को नहीं - बल्कि केवल काली सैनिक मक्खियों को, जो घरेलू कचरे को प्रोटीन, खाद में विघटित करने की क्षमता रखती हैं.

घरों में उत्पन्न होने वाला, 40% से अधिक कूड़ा, जैविक प्रकृति का होता है, जिसे अगर अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो वह सड़कर, मीथेन गैस का उत्पादन करता है.

मीथेन गैस, कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 23 गुना अधिक प्रबल ग्रीनहाउस गैस होती है. घर की रसोई से निकलने वाला ठोस कचरा, अक्सर स्थानीय कचरे के ढेर या कूड़ाघर में चला जाता है, जहाँ उसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है.

यह समस्या, नागालैंड के दीमापुर जैसे उभरते शहरों में और भी बदतर हो जाती है, जहाँ कचरे के बढ़ते ढेर के अनुपात में संगठित कचरा संग्रह और प्रबन्धन सुविधाएँ मौजूद नहीं हैं.

दीमापुर में प्रतिदिन लगभग 115 मीट्रिक टन कचरा इकट्ठा किया जाता है, जिसमें से एक बड़ा भाग जैविक कूड़े का होता है. लेकिन इसके लिए उपलब्ध री-सायकलिंग प्रणाली सीमित है.

अपशिष्ट से प्रोटीन बनाने वाली सुविधा.
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मक्खियों से निदान

'वेस्ट टू प्रोटीन फ़ैसिलिटी' के संस्थापकों में से एक - जोंगपोंग चिटेन कहते हैं, “दीमापुर में बहुत सारा घरेलू कूड़ा-कचरा जैविक होता है. हमें इसे कूड़ाघर में सड़ने के लिए छोड़ने के बजाय, पर्यावरण सुरक्षित तरीक़े से संसाधित करने का उपाय खोजने की आवश्यकता थी. काली सैनिक मक्खी यही काम करने में सक्षम हैं.”

काली सैनिक मक्खी के लार्वा का उपयोग करके, जैविक कचरे को विघटित करने का तरीक़ा, पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित और लागत प्रभावी है. दुनिया भर में यह तरीक़ा तेज़ी से अपनाया जा रहा है. काली सैनिक मक्खी का लार्वा, भोजन अपशिष्ट समेत विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों को तेज़ी से खाता है, और पारम्परिक कम्पोस्टिंग विधियों की तुलना में, लगभग 50% अतिरिक्त तेज़ दर से कचरा का वज़न कम करता है.

जोंगपोंग चिटेन बताते हैं, “हमने जंगल से काली सैनिक मक्खियों (बीएसएफ़) को इकट्ठा करके इस मुहिम की शुरुआत की. बीएसएफ़, प्रतिदिन अपने शरीर के वज़न से चार गुना अधिक जैविक कचरे का सेवन करती हैं. इसके लिए, बहुत कम जगह और संसाधनों की आवश्यकता होती है, और बीएसएफ़ द्वारा बनाई गई ख़ाद, तीन सप्ताह से भी कम समय में तैयार हो जाती है."

वहीं, पारम्परिक तरीक़ों से खाद तैयार करने में आमतौर पर 4-6 महीने लगते हैं.

इसके लिए, वयस्क काली सैनिक मक्खियों को जालीदार बाड़े में रखा जाता है. मादा मक्खी द्वारा दिए गए अंडों को हाथों से अलग करके, गेहूँ की भूसी और पानी के मिश्रण भरे एक बर्तन में रखकर, कृत्रिम तरीक़े से सेया जाता है. थोड़ा-थोड़ा करके, लार्वा को भोजन अपशिष्ट की छोटी ट्रे में पाला जाता है.

लार्वा का एक हिस्सा, प्रजनन से उनकी आबादी बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है जबकि शेष हिस्से का उपयोग पशुधन के चारे के रूप में किया जाता है, क्योंकि ये चारा, प्रोटीनबहुल होने के कारण, मुर्ग़ियों व मछलियों के लिए उपयुक्त भोजन बनता है.

पर्यावरण अनुकूल

ख़ास बात ये है कि बीएसएफ़ आधारित तकनीक से, किसी भी तरह की ग्रीनहाउस गैस पैदा नहीं होती, और केवल 15 दिनों के भीतर, 100 किलोग्राम जैविक कचरे को, 21 किलोग्राम कम करना सम्भव होता है. यह बचा हुआ कचरा, खाद बन जाता है, और इसे जैविक खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

परियोजना के सह-संस्थापक, डॉक्टर अकुमतोशी बताते हैं, "हमने यह सुविधा शुरू करने के 2 महीने के भीतर, एक किलो लार्वा पैदा किया, जिससे निकट के सुपरमार्केट व पास के 10 घरों से एकत्रित, 30 किलो हरित कचरे का विघटन सम्भव हुआ."

काली सैनिक मक्खी का लार्वा, भोजन अपशिष्ट समेत विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों को तेज़ी से खाता है.
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उनकी स्टार्टअप कम्पनी, 'वेस्ट टू SDG Innovation Participatory Action Research Initiative (IPAR) के विजेताओं में से एक थी, जिसे नागालैंड सरकार के योजना और समन्वय विभाग के SDG समन्वय केन्द्र, एवं UNDP के तकनीकी समर्थन से आयोजित किया गया था. विजेताओं को उनकी पहल के लिए प्रारम्भिक धनराशि के तौर पर 2 लाख रुपये दिए गए थे.

IPAR एक अभिनव कार्यक्रम है, जिसके ज़रिए, समुदाय बेहतरी के लिए काम कर रहे सभी व्यक्तियों/संगठनों के प्रयासों को प्रोत्साहन व समर्थन दिया जाता है.

टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में तेज़ी से हो रहे विकास के कारण बढ़ते, असंगठित ठोस अपशिष्ट के मद्देनज़र, बीएसएफ़ जैसे, ठोस जैविक कचरा प्रबन्धन के वैकल्पिक तरीक़े, वर्तमान समय की मांग हैं.

भारत सरकार के नीति आयोग की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के शहरों में हर दिन एक लाख 30 हज़ार से डेढ़ लाख मीट्रिक टन तक, नगरपालिका ठोस कचरा पैदा होता है – यानि प्रति शहरी निवासी लगभग 330-550 ग्राम.

मतलब यह कि कुल मिलाकर, प्रति वर्ष लगभग 5 करोड़ मीट्रिक टन कचरा जमा होता है; और मौजूदा दरों पर, यह आँकड़ा 2031 तक बढ़कर 12 करोड़ 50 लाख मीट्रिक टन प्रति वर्ष हो सकता है!

हालाँकि इस परियोजना की शुरुआत छोटे स्तर पर हुई थी, लेकिन वर्तमान में दीमापुर की ‘वेस्ट टू प्रोटीन पहल’ से हर महीने, 1.2 टन खाद्य अपशिष्ट संसाधित किया जा रहा है, जिससे उत्पन्न खाद, दीमापुर और कोहिमा ज़िलों के किसानों के बीच वितरित कर दी जाती है.