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भारत में महिला सशक्तिकरण के लिये ‘दिशा’

भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और आइकिया फाउंडेशन की ‘दिशा’ परियोजना के तहत दस लाख महिलाओं को सशक्त किया जा रहा है.
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भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और आइकिया फाउंडेशन की ‘दिशा’ परियोजना के तहत दस लाख महिलाओं को सशक्त किया जा रहा है.

भारत में महिला सशक्तिकरण के लिये ‘दिशा’

महिलाएँ

भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और आइकिया फाउण्डशन की ‘दिशा’ परियोजना के तहत दस लाख महिलाओं को सशक्त बनाया जा रहा है. इसमें संरक्षकों का दल बनाकर, महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों को बढ़ावा दिया जा रहा है. भारत में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रैज़िडेंट रैप्रैज़ेटेटिव, शोको नोडा की क़लम से...

हाल ही की मीडिया ख़बरों के मुताबिक जापान ने कुछ वर्ष पहले 2020 तक, नेतृत्व के पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत करने का संकल्प लिया था, जो पूरा नहीं हो सका.

2011 में जब एक आकर्षक नारे के साथ इस संकल्प की घोषणा की गई थी - "ऐसे समाज का निर्माण करें, जहाँ महिलाएँ चमकें" – उस समय उक्त दर 10.6% थी. आज यह केवल 15% तक बढ़ पाई है.

एक जापानी महिला होने के नाते इस ख़बर ने मुझे निराश ज़रूर किया, लेकिन वास्तव में मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. जब हम आज भी लड़कियों और महिलाओं से पारम्परिक देखभाल की भूमिका निभाने की उम्मीद रखते हैं तो सरकारी, निजी क्षेत्र और राजनैतिक पदों पर महिलाओं का मज़बूत प्रतिनिधित्व कैसे आगे बढ़ सकता है?

मैंने अनेक देशों में काम किया है - नेपाल, मालदीव, ताज़िकिस्तान, यूगोस्लाविया और अब भारत - इन ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से विविध देशों में एक बात समान है: वो है लैंगिक असमानता. अपने काम और निजी अनुभवों के आधार पर मैंने स्पष्ट रूप से देखा है कि महिला सशक्तिकरण रातों-रात नहीं हो सकता है. महिला सशक्तिकरण को सरकारी नीतियों, कार्यस्थल प्रथाओं, सामाजिक मानदण्डों, शिक्षा और पालन-पोषण का हिस्सा बनना होगा. यह एक धीमी और लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है.

कोविड-19 महामारी से लैंगिक असमानता और ज़्यादा बढ़ गई है. बच्चों व बुज़ुर्गों की देखभाल और घरेलू कामकाज का सारा बोझ महिलाओं पर पड़ रहा है. एक अनुमान के अनुसार भारत में अप्रैल में तालाबन्दी लागू होने के बाद, हर दस में से चार महिलाओं का आय वाला रोज़गार ख़त्म हो गया है.

भारतीय कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 2005 में 35 प्रतिशत थी जो घटकर 25.5 प्रतिशत पर आ गई है और लॉकडाउन ने इस संख्या को और भी नीचे धकेल दिया है.

यूएनडीपी के लिये, महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी भागीदारी बढ़ाना हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता रही है.
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यूएनडीपी के लिये, महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी भागीदारी बढ़ाना हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता रही है.

यूएनडीपी के लिये, महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी भागीदारी बढ़ाना हमेशा सर्वोच्च प्राथमिकता रही है. आर्थिक सशक्तिकरण पर हमारे सभी कार्य - आत्मविश्वास निर्माण, बातचीत कौशल, नेतृत्व कौशल पर केन्द्रित होते हैं.  

आत्मविश्वास और बातचीत कौशल विकसित करने से लैंगिक भेदभाव और लिंग आधारित हिंसा से निपटने में मदद मिलती है, जिनका सामना अक्सर महिलाओं को काम करने और अन्य निर्णय लेने के दौरान करना पड़ता है. 

भारत में यूएनडीपी और आइकिया फाउण्डेशन ने मिलकर, ‘दिशा’ परियोजना के माध्यम से दस लाख महिलाओं को सशक्त बनाने में मदद की है, और महिलाओं के नेतृत्व वाली उद्यमशीलता को मज़बूत करने के लिये संरक्षक का एक काडर बनाया है.

इस परियोजना के हिस्से के रूप में प्रदान किये गए मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समर्थन में न केवल अपना उद्यम शुरू करने के लिये कौशल-प्रशिक्षण शामिल है, बल्कि यह उन्हें घर और समुदाय में लैंगिक रूढ़िवादिता पर सवाल उठाने और उसके ख़िलाफ़ लड़ने के लिये भी सशक्त बनाता है.

हम उन महिला उद्यमियों के सम्पर्क में हैं जिनके साथ हम काम करते हैं, और हमने देखा है कि कोविड-19 का आर्थिक प्रभाव सबसे अधिक महिलाओं और लड़कियों पर पड़ रहा है, विशेष रूप से उन पर जो पहले से ही आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं या दूसरों पर निर्भर हैं.  ऐसा करना स्थानीय स्तर पर रोज़गार और महिलाओं के लिये आजीविका के अवसरों की गुंजाइश मज़बूत करने के लिए महत्वपूर्ण भी है ताकि वो किसी भी सम्भावित आर्थिक संकट से निपट सकें.

जब हम महिलाओं की आजीविका की नई परिकल्पना कर रहे हैं, तो हमें यह अहसास होना चाहिये कि आजीविका को अलग करके नहीं देखा जा सकता है.

जब हम भारत भर में ग्रामीण महिलाओं के साथ मिलकर काम करते हैं, तो हम उन विभिन्न चुनौतियों से भी रूबरु होते हैं जो उनके और उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता के बीच आती हैं - सुरक्षा के मुद्दे, घरों से बाहर निकलने के लिये आत्मविश्वास की कमी, परिवार की देखभाल का बोझ, बाहर जाने से जुड़े मुद्दे और सामाजिक मानदण्ड.

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस वास्तविकता को बदलना सम्भव है. लेकिन महिलाएँ केवल अपने बूते पर ऐसा नहीं कर सकतीं.

हमें अधिक नेताओं, अधिक निगमों और सबसे अहम, पुरुषों को आगे बढ़कर हर एक लड़की के लिये ऐसे अवसर सुनिश्चित करने होंगे कि हर लड़की व हर महिला को अपनी पूरी क्षमता का अहसास हो, और आगे बढ़ने का समान मौका मिले.

हमें एक साथ काम करके यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएँ सभी निर्णयात्मक प्रक्रियाओं का हिस्सा हों, जो उन्हें प्रभावित करती हैं या उनके लिये ज़रूरी हैं - संसद में, पंचायतों में, स्कूलों में, सामुदायिक समूहों में, मीडिया में और घरों पर.

महिला सशक्तीकरण एक धीमी और लम्बी प्रक्रिया है - यह परिवार और समुदाय के साथ शुरू होती है. इससे लड़कियों में समान अवसर मिलते हैं और ये विश्वास पैदा होता है कि वो अपने अधिकारों के लिये लड़ें और वो हासिल करें जो उनके लिये सही है.