इसराइली बस्तियाँ अंतरराष्ट्रीय क़ानून का 'घोर उल्लंघन' हैं - यूएन दूत
किसी देश का अपनी राष्ट्रीय नीति के तहत कुछ भी कहना हो, इसराइल द्वारा क़ब्ज़ा किए हुए फ़लस्तीनी क्षेत्रों में इसराइली बस्तियाँ बसाया जाना 'अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत घोर उल्लंघन' है. मध्य पूर्व शांति प्रक्रिया के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष संयोजक निकोलय म्लदेनॉफ़ ने बुधवार को सुरक्षा परिषद में ये बात कही.
उन्होंने अमरीका के राष्ट्रपति द्वारा सोमवार को की गई इस घोषणा पर अफ़सोस जताया जिसमें कहा गया था कि अमरीका फ़लस्तीनी क्षेत्रों में इसराइली बस्तियों को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं समझता.
Upholding #UN resolutions and international law is just as important as preventing escalation and #war in #Gaza and paving the way for negotiations. https://t.co/4azDJt9i8r pic.twitter.com/Ic6raHTlQl
nmladenov
निकोलय म्लदेनॉफ़ ने 15 सदस्यों वाली सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए कहा कि "संयुक्त राष्ट्र का रुख़ पहले जैसा ही है".
मध्य पूर्व शांति प्रक्रिया के लिए संयुक्त राष्ट्र के दूत ने इसराइली बस्तियों को "दो राष्ट्रों के रूप में समाधान निकालने के प्रयासों में और न्यायपूर्ण, दीर्घकालीन व संपूर्ण शांति के रास्ते में एक मुख्य बाधा" क़रार दिया.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, "एकतरफ़ा कार्रवाई से ग़ुस्से और निराशा को बढ़ावा मिलता है, और ये स्थिति एक टिकाऊ फ़लस्तीनी राष्ट्र की स्थापना की ऐसी संभावनाओं को धूमिल करती है, जहाँ येरूशलम दोनों देशों - इसराइल और फ़लस्तीन की राजधानी हो."
ग़ाज़ा की विस्फोटक स्थिति
विशेष समन्वयक ने चैम्बर के भीतर राजदूतों को जानकारी देते हुए कहा कि इसराइल और ग़ाज़ा के भीतर सक्रिय फ़लस्तीनी चरमपंथियों के बीच हाल ही में भड़के गंभीर तनाव के कुछ ही दिनों के भीतर सुरक्षा परिषद की ये बैठक बुलानी पड़ी है.
उन्होंने ये माना कि तात्कालिक संकट तो टल गया है मगर वहाँ "स्थिति अब भी बहुत विस्फोटक बनी हुई है".
निकोलय म्लदेनॉफ़ ने चरमपंथियों की गतिविधियों, रॉकेट फ़ायर, और इसराइल द्वारा बदले में हवाई हमलों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जिस संकट की वजह से दोनों तरफ़ लोग हताहत हुए हैं.
इसराइल और फ़लस्तीनी चरमपंथियों के बीच युद्धविराम कराने के संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों में मिस्र की भूमिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 48 घंटों की युद्धक गतिविधियों के भीतर ही कुछ शांति स्थापित हो गई थी.
लेकिन उनका ये भी कहना था कि अगर बीच-बचाव के ये प्रयास नाकाम हो गए होते तो हम एक और युद्ध देख रहे होते जोकि 2014 के भीषण तबाही वाले युद्ध से भी भयावह हो सकता था.
उन्होंने ध्यान दिलाया कि ख़तरा अभी टला नहीं है और आगाह करते हुए कहा कि आम आबादी के ख़िलाफ़ अंधाधुंध रॉकेट व मोर्टार हमले दागा जाना किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकता और ये हमले तुरंत रुकने चाहिए.
हताश स्थिति
अन्य ख़तरों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने इसराइल द्वारा ग़ाज़ा की सीमा की नाकेबंदी और ग़ाज़ा में विभिन्न फ़लस्तीनी गुटों के बीच जारी मतभेदों की स्थिति भी हालात की गंभीरता की आग में घी का काम कर रही है.
उनका कहना था संयुक्त राष्ट्र ने पिछले क़रीब डेढ़ वर्ष के दौरान तनाव को दूर करने और भड़काव को रोकने के लिए क़दम उठाए हैं, "लेकिन वित्तीय संसाधनों की क़िल्लत, फ़लस्तीनी नेताओं की प्रतिबद्धताओं और इसराइल द्वारा उठाए जा रहे क़दमों की वजह से वो क़दम काफ़ी साबित नहीं हुए हैं."
उन्होंने दलील देते हुए कहा कि दीर्घकालीन समाधान राजनैतिक ही हो सकता है: "इसराइल नाकेबंदी की ऐसी नीतियाँ जारी नहीं रख सकता जिससे विकास का गला घुटता है", दूसरी तरफ़ "फ़लस्तीनी नेता भी अपनी आंतरिक राजनैतिक मतभेदों की स्थिति के ख़तरनाक नतीजों को नज़रअंदाज़ करना जारी नहीं रख सकते.
विशेष दूत ने सुरक्षा परिषद को याद दिलाते हुए कहा कि उसका अंतिम लक्ष्य "फ़लस्तीनियों को क़ब्ज़े से मुक्ता माहौल में प्रगति करने, और इसराइल को भी सुरक्षा के माहौल में रहने का माहौल तैयार करने में मदद करना है, ऐसा माहौल जहाँ आतंक व रॉकेट हमलों का डर ना हो."
महिलाओं पर सबसे ज़्यादा असर
एक इसराइली मानवाधिकार संगठन - गिशा की डायरेक्टर तानया हैरी ने स्थिति का विश्लेषण करने वाली एक रिपोर्ट सुरक्षा परिषद के सदस्यों को सौंपी. इसमें ग़ाज़ा पर लगी पाबंदियों के मौहाल में ज़िंदगी जीने में होने वाली कठिनाइयों का विस्तृत ख़ाका पेश किया गया है.
तानया हैरी का कहना था कि महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं. साथ ही उन्होंने आहवान किया कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि ग़ाज़ा में सभी लोगों को सभी सुविधाएँ आसानी से मिलें, सामान पर लगी पाबंदियाँ हटाई जाएँ और मौजूदा समीकरणों को पलटकर शांति का रास्ता निकाला जाए.