दुनिया के सामने ‘जलवायु रंगभेद’ का ख़तरा

संयुक्त राष्ट्र के एक विशेषज्ञ ने चेतावनी दी है कि जलवायु से जुड़े रंगभेद का एक ऐसा नया दौर शुरू होने का ख़तरा नज़र आ रहा है जहाँ बढ़ते तापमान और भूख से बचने के लिए अमीर लोग धन के बल पर अपने लिए बेहतरी का रास्ता बना लेंगे. उनका मानना है कि पिछले 50 वर्षों में जितना भी विकास हुआ, वैश्विक स्वास्थ्य में बेहतरी आई है और ग़रीबी कम करने के प्रयास हुए हैं, जलवायु परिवर्तन की वजह से वे सभी विफल हो सकते हैं.
अत्यधिक ग़रीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत फ़िलिप एलस्टन कहते हैं कि अगर वर्तमान लक्ष्य पूरे भी हो जाएँ, तब भी व्यापक रूप से करोड़ों लोग ग़रीबी का शिकार होंगे, बड़े पैमाने पर भुखमरी फैलेगी और लोग बेघर होंगे.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव कमज़ोर वर्ग पर पड़ेगा. इसके कारण 2030 तक 12 करोड़ से भी ज़्यादा लोग ग़रीबी के गर्त में धकेल दिये जाएंगे.
इससे सबसे ज़्यादा असर उन ग़रीब देशों, क्षेत्रों और स्थानों पर पड़ेगा, जहां ग़रीब लोग रहते और काम करते हैं.
My new report on #ClimateChange and poverty is out today. It finds that climate change will have the greatest impact on those living in poverty, but also poses dire threats to democracy and human rights that most actors have barely begun to grapple with: https://t.co/4CDnAl4uHg pic.twitter.com/nNZ13iM4EE
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अगर इस सदी के अंत तक यानी वर्ष 2100 शुरू होने पर तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रहने का सबसे अच्छा परिदृश्य भी लें तो भी अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक तापमान की वजह से कमज़ोर वर्ग को आय में कमी और बिगड़ते स्वास्थ्य के साथ-साथ खाद्य असुरक्षा का भी सामना करना पड़ेगा.
“इसके अलावा ज़्यादातर लोगों को तो भुखमरी या अपने स्थान छोड़कर रोज़ी-रोटी की तलाश में किन्हीं अन्य स्थानों पर जाने के विकल्प में से किसी एक को चुनने के लिए विवश भी होना पड़ सकता है.”
“हालाँकि ग़रीब लोग वैश्विक उत्सर्जन के सिर्फ़ एक अंश के लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन बड़े अफ़सोस की बात है कि ग़रीब लोग न केवल जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा भुगतेंगे, बल्कि उसके असर से ख़ुद को बचाने की क्षमता भी उनमें सबसे कम होगी.”
विशेषज्ञ का कहना था, “हमें भविष्य में 'जलवायु रंगभेद' के ऐसे हालात नज़र आ रहे हैं जहाँ भीषण गर्मी, भूख और संघर्ष से बचने के लिए अमीर लोग धन देकर बच निकलेंगे और बाक़ी दुनिया कष्ट भोगने के लिए मजबूर होगी.”
जलवायु परिवर्तन का जीवन, भोजन, आवास और पानी सहित सभी मानव अधिकारों पर भारी असर होता है.
फिलिप एलस्टन ने कहा कि जिस तरह सभी देशों की सरकारें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए संघर्ष कर रही हैं और संबंधित घटकों को कुछ प्रमुख सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन करने पर मनाने में लगीं हैं, इससे नागरिक और राजनैतिक अधिकार कमज़ोर पड़ सकते हैं, जिससे लोकतंत्र प्रभावित हो सकता है.
उनका कहना था, "अधिकांश मानवाधिकार संगठन व संस्थाएँ अभी ये समझने की कोशिशों कर रहे हैं कि मानव अधिकारों के लिए जलवायु परिवर्तन के क्या मायने हो सकते हैं. लेकिन फिलहाल ये अन्य अहम मुद्दों के साथ एक लंबी सूची में विचाराधीन नज़र आता है, बावजूद इसके कि भयावह परिणामों से बचने के लिए बहुत कम समय बचा है.”
“एक ऐसा विशालकाय संकट जो बड़ी आबादी के मानव अधिकारों के लिए ख़तरा बनता जा रहा है, उससे निपटने के लिए धीरे-धीरे, मुद्दा दर मुद्दा उठाने की प्रक्रिया बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है.”
ज़्यादातर देश हर एक वैज्ञानिक चेतावनी, हर एक सीमारेखा को नज़रअंदाज़ कर चुके हैं और एक समय जिस चुनौती को भयंकर ख़तरा माना जा रहा था, उसे अब सामान्य समझा जा रहा है. इसीलिए आज भी कई देश ग़लत दिशा में अदूरदर्शी क़दम उठा रहे हैं
ज़्यादातर देश तो अपने वर्तमान कार्बन उत्सर्जन में कमी और जलवायु वित्तीय वादों को पूरा करने में पूरी तरह विफल रहे हैं और जीवाश्म ईंधन उद्योग को प्रति वर्ष 5.2 ट्रिलियन डॉलर लागत की सब्सिडी देना जारी रखे हुए हैं.
फिलिप एलस्टन ने कहा कि वर्तमान राह पर चलने का मतलब है आर्थिक त्रासदी का नुस्खा तैयार कर देना. उन्होंने कहा कि हालांकि आर्थिक ख़ुशहाली और पर्यावरण निरंतरता एक दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए हैं, लेकिन फिलहाल ग़रीबी उन्मूलन और आर्थिक कल्याण को जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन से अलग करने की ज़रूरत है.
इस बदलाव के लिए ज़रूरी है कि स्थानीय नीतियाँ विस्थापित श्रमिकों के समर्थन में हों और उत्तम रोज़गार सुनिश्चित हों.
"एक मज़बूत सामाजिक सुरक्षा ढाँचा ही जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सबसे सटीक जवाब होगा. फिलिप एलस्टन ने विस्तार से बताया कि ये एक ‘कैटेलिस्ट’ की तरह होना चाहिए जिससे लंबे समय से हो रही आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की अनदेखी को दुरुस्त किया जा सके. इसमें सामाजिक सुरक्षा और भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, आश्रय और उचित काम मिलना भी शामिल है.”
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ ने कहा, "यदि जलवायु परिवर्तन का उपयोग व्यापार-अनुकूल नीतियों और व्यापक निजीकरण को सही ठहराने के लिए किया जाएगा तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और ग्लोबल वार्मिंग घटने की बजाय और बढ़ेगी.”
उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन पर ख़तरे की घंटी लगातार बज रही है. बढ़ती मौसमी आपदाओं के नीचे सारा शोर-शराबा, ग़लत जानकारी और अनदेखी दब ज़रूर गई है, लेकिन इक्का-दुक्का सकारात्मक घटनाक्रम काफी नहीं है
इसका निष्कर्ष देते हुए संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ ने कहा कि जिस पैमाने पर बदलाव की यहाँ असल में ज़रूरत है, उसके लिए ये केवल पहला क़दम ही माना जाएगा.