वैश्विक परिप्रेक्ष्य मानव कहानियां

आपात हालात में लड़कियों व महिलाओं को ज़्यादा संरक्षण की ज़रूरत

सीरिया के इदलिब प्रांत के एक कैम्प में एक बच्ची बर्तन धो रही है.
© UNICEF/Omar Albam
सीरिया के इदलिब प्रांत के एक कैम्प में एक बच्ची बर्तन धो रही है.

आपात हालात में लड़कियों व महिलाओं को ज़्यादा संरक्षण की ज़रूरत

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उप-उच्यायुक्त (OHCHR) नाडा अल-नशीफ़ ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन, कोविड-19 और हिंसक संघर्ष के सामूहिक प्रभाव के कारण वर्ष 2022 तक 20 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मानवीय सहायता की आवश्यकता होगी. उन्होंने सोमवार को मानवाधिकार परिषद को जानकारी देते हुए आगाह किया कि महिलाओं व लड़कियों के लिए हालात विशेष तौर पर चिन्ताजनक है. 

यूएन मानवाधिकार उपप्रमुख नाडा अल-नशीफ़ के मुताबिक वैश्विक महामारी के कारण महिलाओं व लड़कियों को अतिरिक्त बोझ सहना पड़ रहा है और वे यौन दुर्व्यवहार का भी शिकार हो रही हैं. युद्ध और हिंसा के कारण विस्थापित महिलाएँ इन समस्याओं से ज़्यादा पीड़ित हैं. 

“अनुभव दर्शाते हैं कि असुरक्षा और विस्थापन के कारण यौन व लिंग-आधारित हिंसा पनपती है और अन्य अपराध व मानवाधिकार उल्लंघन होते हैं. इनमें बाल, छोटी आयु में विवाह और जबरन विवाह, या यौन व प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी किया जाना भी हैं.”

मानवीय राहत मामलों में समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (OCHA) का अनुमान है कि वर्ष 2022 तक 21 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मानवीय सहायता की ज़रूरत होगी.

इस वर्ष यह संख्या 16 करोड़ से ज़्यादा है – यानि हर 45 में से एक व्यक्ति मानवीय मदद पर निर्भर है. पिछले कई दशकों में यह सबसे ऊँचा स्तर है.

आपात परिस्थितियों में महिलाओं व लड़कियों के लिये मदद व जवाबदेही बेहतर बनाने पर जिनीवा में हुई चर्चा में यूएन अधिकारी ने सदस्य देशों से नए तरीक़े अपनाने पर विचार करने के लिये कहा है. 

त्वरित व पूर्ण न्याय

उन्होंने दुर्व्यवहार के दोषी पाए गए लोगों पर आपराधिक मुक़दमा चलाए जाने की मौजूदा व्यवस्था के अतिरिक्त ऐसे विशिष्ट क़ानून बनाए जाने की पुकार लगाई है जिनकी मदद से मानवाधिकार हनन के विविध रूपों पर अंकुश लगाया जा सकेगा.

उनका मानना है कि इन क़ानूनों से महिलाओं व लड़कियों के प्रति जवाबदेही की कमी की बुनियादी वजहों से निपटने में सहायता मिलेगी. 

यूएन मानवाधिकार उपप्रमुख ने कहा कि उनके लिए पूर्ण समानता, गरिमा और अधिकार बहाल करने का यही एक रास्ता है. 

रोहिंज्या महिलाएँ व लड़कियाँ अक्सर इसलिए स्कूल नहीं जा पातीं क्योंकि वहाँ लड़के-लड़कियाँ एक साथ पढ़ाई करते हैं.
UN Women/Allison Joyce
रोहिंज्या महिलाएँ व लड़कियाँ अक्सर इसलिए स्कूल नहीं जा पातीं क्योंकि वहाँ लड़के-लड़कियाँ एक साथ पढ़ाई करते हैं.

म्याँमार, वेनेज़ुएला और दक्षिण सूडान में हाल के समय में मानवाधिकार परिषद द्वारा की गई पड़ताल का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि इन सभी देशों में महिलाओं व लड़कियों को व्यवस्थागत भेदभाव का सामना करना पड़ता है जिनसे उनके अधिकारों का हनन होना जारी है. 

म्याँमार में स्वतन्त्र अन्तरराष्ट्रीय तथ्य-खोजी मिशन (Independent International Fact-Finding Mission) के मुताबिक रोहिंज्या महिलाओं व लड़कियों को लैंगिक असमानता, आवाजाही की आज़ादी ना होना, यौन व लिंग-आधारित हिंसा का सामना करना पड़ता है. 

ये भी पढ़ें - हानिकारक कुप्रथाओं की शिकार हैं 14 करोड़ लड़कियाँ - साढ़े चार करोड़ भारत में

साथ ही शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं और अन्य आर्थिक व सामाजिक अधिकारों तक उनकी पहुँच नहीं है.

यूएन की वरिष्ठ अधिकारी ने उधर वेनेज़ुएला में हालात से अवगत कराते हुए वर्ष 2019 की मानवाधिकार कार्यालय की रिपोर्ट का हवाला दिया.

रिपोर्ट दर्शाती है कि महिलाओं व लड़कियों की यौन व प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुँच है और कई शहरों में गर्भनिरोधक उपाय उपलब्ध नहीं है जबकि गर्भपात कराए जाने पर सख़्त पाबन्दियाँ हैं. 

इस वजह से कम उम्र में गर्भधारण की ऊँची दर देखने को मिल रही है और यह लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर करने वाला एक बड़ा कारण है. साथ ही ऐसी मातृत्व मौतों की संख्या भी बढ़ रही है जिसकी रोकथाम की जा सकती है – हर पाँच में से एक मातृत्व मौत असुरक्षित गर्भपात से जुड़ी है.

वहीं दक्षिण सूडान में वर्ष 2013 से ही यौन हिंसा के मामले व्यापक पैमाने पर सामने आते रहे हैं.

यौन हिंसा के पीड़ितों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं की पड़ताल करती एक रिपोर्ट बताती है कि हर दस हज़ार में से एक व्यक्ति के लिये स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध है. अनेक केन्द्रो पर पीड़ितों के उपचार के लिये समुचित प्रशिक्षण प्राप्त स्वास्थ्यकर्मी नहीं हैं. 

मानवाधिकार उपप्रमुख ने क्षोभ जताया कि इसके परिणामस्वरूप बेहद गम्भीर हालत होने पर ही पीड़ितों को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हो सकती हैं. अक्सर कथित सामाजिक कलंक के भय के कारण उन्हें ख़ामोशी से सब कुछ सहने के लिये मजबूर होना पड़ता है.