यूएन का नया वन प्रोजेक्ट जलवायु संकल्पों को पूरा करने में देशों की मदद करेगा

संयुक्त राष्ट्र ने बेहतर वन प्रबंधन पर एक ऐसा नया प्रोजेक्ट तैयार किया है जिसकी मदद से एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के देशों में जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिलेगी. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफ़एओ) ने ये योजना तैयार की है जिसे सोमवार को जारी किया गया.
इस योजना के तहत 26 देश जल्द ही जंगलों और भूमि प्रयोग के बारे में बेहतर आँक़ड़े मुहैया करा सकेंगे - जोकि पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त करने वाले सभी देशों का एक प्रमुख संकल्प है.
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संगठन ने कहा है कि अगर देशों को टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में ठोस प्रगति करनी है तो जंगलों और भूमि के इस्तेमाल की सटीक निगरानी किया जाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने और उसके उपाय तलाश करने के लिए काफ़ी काम करना होगा.
खाद्य और कृषि संगठन द्वारा जारी एक वक्तव्य में कहा गया है, "जंगल सिर्फ़ पेड़ों के झुंड होने से कहीं ज़्यादा लोगों की खाद्य सुरक्षा व बेहतर आजीविका के साधन हैं."
"जंगल पानी के बहाव को नियमित करके, खाद्य सामग्री, ऊर्जा के लिए लकड़ी, घरों के लिए छत, चारा और फ़ायबर उपलब्ध कराकर स्थानीय समुदायों की मज़बूती और क्षमता बढ़ाते हैं. साथ ही जैव विविधता को बढ़ाने के साथ-साथ आमदनी बढ़ाते और रोज़गार के अवसर मुहैया कराते हैं. इनके अलावा जंगलों से खेतीबाड़ी के टिकाऊ तरीक़ों और मिट्टी व जलवायु में स्थिरता लाकर इंसानों के रहन-सहन में सुधार होता है."
खाद्य और कृषि संगठन की इस योजना पर लगभग 71 लाख डॉलर की रक़म ख़र्च होगी जिसे संगठन व देशों में उसके राष्ट्रीय अधिकारियों द्वारा लागू किया जाएगा.
ये राष्ट्रीय अधिकारी पहले से ही 70 देशों में ज़्यादा टिकाऊ भूमि प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए वन निगरानी में मदद करते हैं.
दुनिया भर में मौजूद वन संसाधनों की स्थिति के बारे में आँकड़े खाद्य और कृषि संगठन की वेबसाइट पर हासिल किया जा सकता है - Global Forest Resources Assessment (FRA 2020)
संगठन के वन विभाग के एक पदाधिकारी हिरोती मित्सूगी ने इस योजना का स्वागत करते हुए ज़्यादा जानकारी के साथ बताया कि बहुत से विकासशील देश ऐसे वन आँकड़े तैयार करने में सक्षम नहीं हैं जिनसे उनकी जलवायु संबंधी उपलब्धियों का अंदाज़ा लगाया जा सके.
उनका कहना था, "इस प्रोजेक्ट के माध्यम से वन संबंधी पारदर्शी डेटा इकट्ठा करने के लिए एक ज़रूरी मंच मिलेगा. संबंधित देश पेरिस जलवायु समझौते के तहत अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए वन संबधी आँकड़े इकट्ठा कर सकेंगे, उनका विश्लेषण करके उनके बारे में बेहतर जानकारी भी दे सकेंगे."
यूँ भी कह सकते हैं कि दरअसल इस प्रोजेक्ट के तहत देशों के राष्ट्रीय वन कर्मचारियों को जंगलों संबंधी आँकड़ों में पारदर्शिता बरतने के लिए कंप्यूटर व इंटरनेट प्रोग्राम इस्तेमाल करने के बारे में प्रशिक्षण दिया जाएगा.
संगठन का कहना है कि ये प्रशिक्षण कार्यक्रम विश्व विद्यालयों, निजी क्षेत्र और अंतरसरकारी संगठनों को भी उपलब्ध कराया जाएगा.
ध्यान रहे कि 12 दिसंबर 2015 को हुआ पेरिस जलवायु समझौता देशों से जलवायु परिवर्तन का सामना करने का आहवान करता है, साथ ही कम कार्बन वाला एक टिकाऊ भविष्य संभव बनाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने और धन निवेश करने के प्रयास तेज़ करने का भी आहवान करता है.
अभी तक 187 पक्ष इस समझौते को मंज़ूरी दे चुके हैं, जबकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क (UNFCCC) में 197 सदस्य हैं. अमेरिका ने 4 नवंबर को पेरिस जलवायु समझौते से बाहर होने की औपचारिक घोषणा की है जिसके एक वर्ष के भीतर ये देश इस समझौते से बाहर हो जाएगा.
पेरिस जलवायु समझौते का केंद्रीय मक़सद जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने में पूरी दुनिया को एकजुट करके सटीक उपाय करना है. इनमें वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना प्रमुख लक्ष्य है.
देशों से ये भी उम्मीद की जाती है कि वो पृथ्वी की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए ठोस प्रयास करें और ऐसे कार्यक्रम व योजनाएँ लागू करें जिनसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सफल तरीक़े से मुक़ाबला किया जा सके.
पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त करने वाले देशों को नेशनली डिटरमिन्ड काँट्रीब्यूशंस (NDCs) को लागू करने और आने वाले वर्षों में ये प्रयास ज़्यादा सघन करने की भी अपेक्षा की जाती है.
समझौते में ये भी प्रावधान रखा गया है कि दस्तख़त करने वाले सभी देश अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन के स्तर और जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने के लिए किए जा रहे उपायों के बारे में नियमित रूप से रिपोर्ट देते रहें. साथ ही देशों को प्रगति का जायज़ा लेने के लिए हर पाँच वर्ष में होने वाली समीक्षा में भी शिरकत करने अनिवार्यता रखी गई है.