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‘महामारी’ के रूप में उभरती मुस्लिम-विरोधी नफ़रत, कार्रवाई का आग्रह 

यूएन प्रमुख न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की मस्जिदों में गोलीबारी में मारे गए लोगों को श्रृद्धांजलि देते हुए. (फ़ाइल)
UN Photo/Mark Garten
यूएन प्रमुख न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की मस्जिदों में गोलीबारी में मारे गए लोगों को श्रृद्धांजलि देते हुए. (फ़ाइल)

‘महामारी’ के रूप में उभरती मुस्लिम-विरोधी नफ़रत, कार्रवाई का आग्रह 

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र के एक स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा है कि इस्लाम के नाम पर किये गए  11 सितम्बर, 2001 के हमलों और अन्य भयावह आतंकवादी कृत्यों को अंजाम दिये जाने के बाद से, मुसलमानों को संदिग्ध नज़र से देखे जाने की समस्या महामारी का आकार ले रही है. धर्म या आस्था की आज़ादी पर यूएन के विशेष रैपोर्टेयर अहमद शहीद ने, गुरुवार को, मानवाधिकार परिषद को सम्बोधित करते हुए, देशों का आहवान किया है कि मुसलमानों के साथ भेदभाव पर अंकुश लगाने के लिये उपाय सुनिश्चित किये जाने होंगे. 

मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा कि सुरक्षा ख़तरों के मद्देनज़र अनेक देशों, क्षेत्रीय व अन्तरराष्ट्रीय निकायों ने ऐसे उपाय अपनाए हैं जिनका निशाना विषमतापूर्वक मुसलमान बने हैं.   

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साथ ही, मुसलमानों को बड़े ख़तरे के रूप में, कट्टरपंथी बनने के जोखिम के रूप में देखा जाता है.

“इस्लामोफ़ोबिया, मुसलमानों के इर्द-गिर्द कल्पनाओं को बुनता है, जिनका इस्तेमाल राज्यसत्ता द्वारा प्रायोजित भेदभाव और मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुश्मनी व हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिये किया जाता है. 

अहमद शहीद ने, मानवाधिकार परिषद को एक रिपोर्ट पेश करते हुए बताया कि मौजूदा हालात में, मानवाधिकारों के लिये कठोर नतीजे भरे हैं, जिनमें धर्म या आस्था की स्वतन्त्रता के लिये जोखिम भी है.

उन्होंने कहा कि व्यापक स्तर पर, इस्लाम और मुसलमानों से भय को नकारात्मक रूपों में पेश किये जाने, और सुरक्षा व आतंकवाद-निरोधक नीतियों के कारण मुसलमान व्यक्तियों व समुदायों के ख़िलाफ़, भेदभाव, विद्वेष और हिंसा बढ़ती है, उस पर मुहर लगती है, और उसका सामान्यीकरण होता है. 

विशेष रैपोर्टेयर के अनुसार बहिष्करण, भय और अविश्वास के इस माहौल में, और ‘संदिग्ध समुदाय’ से सम्बन्ध रखने के रूप में देखे जाने के रूप में, मुसलमानों को अक्सर कलंकित और शर्मिन्दगी महसूस होती है. 

उन्हें महसूस होता है कि चन्द लोगों के कृत्यों के लिये उन्हें सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. 

इस रिपोर्ट में वर्ष 2018 और 2019 में योरोप में कराए गए सर्वेक्षणों का हवाला दिया गया है, जिनमें स्थानीय आबादी का 37 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों को प्रतिकूल/बुरी (Unfavourable) नज़र से देखता है.

वर्ष 2017 में, एक सर्वेक्षण में शामिल 30 प्रतिशत अमेरिकियों ने मुसलमानों को नकारात्मक भाव से देखने की बात कही.  

विशेष रैपोर्टेयर ने सचेत किया कि, सार्वजनिक और निजी स्थलों पर, इस्लामोफ़ोबिया जनित भेदभाव के कारण मुसलमानों का एक 'मुस्लिम पहचान' के साथ रह पाना कठिन हो जाता है.

कठिन हालात

मानवाधिकार परिषद को पेश इस रिपोर्ट में जिन चिन्ताओं का उल्लेख किया गया है, उनमें आस्था प्रकट करने की क्षमता पर पाबन्दियाँ लगाए जाने, धार्मिक समुदायों को सुरक्षित बनाने, नागरिकता पाने की सुलभता को सीमित किये जाने, सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार और मुस्लिम समुदायों को कलंकित किये जाने सहित अन्य नीतियाँ शामिल हैं. 

मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी वाले देशों में, मुसलमानों को, स्पष्ट नज़र आने वाले मुस्लिम प्रतीकों, जैसेकि उनके नामों, त्वचा के रंग, कपड़ों, धार्मिक पोशाकों के कारण अक्सर निशाना बनाया जाता है. 

विशेष रैपोर्टेयर ने आगाह किया कि मुसलमानों और इस्लाम के ख़िलाफ़ नुक़सानदेह, घिसी-पिटी बातों को अक्सर मुख्यधारा मीडिया, ताक़तवर राजनैतिक नेताओं, और प्रभावशाली हस्तियों द्वारा और बल मिलता है. 

रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा गया है कि इस्लाम की समालोचना को, इस्लामोफ़ोबिया से अलग रखा जाना होगा, और ध्यान दिया जाना होगा कि अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून, धर्मों के बजाय, व्यक्तियों की रक्षा के लिये हैं. 

अहमद शहीद ने कहा कि, इस्लाम के विचारों, धार्मिक नेताओं, प्रतीकों और प्रथाओं की आलोचनाओं को तब तक, इस्लामोफ़ोबिया नहीं कहा जा सकता, जब तक उसमें मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत या पूर्वाग्रह नज़र ना आएँ.  

यूएन विशेषज्ञ ने सभी देशों से मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव के प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपों से लड़ने और धार्मिक नफ़रत को बढ़ावा देकर हिंसा उकसाने की रोकथाम करने के लिये हरसम्भव प्रयास किये जाने का आग्रह किया है.

स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतन्त्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतन्त्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.