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'कोविड-19 जैसे संकट में ही संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता निहित'

भारत में संयुक्त राष्ट्र  की रेज़ीडेंट कोऑर्डिनेटर, रेनाटा डेज़ालिएन.
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भारत में संयुक्त राष्ट्र की रेज़ीडेंट कोऑर्डिनेटर, रेनाटा डेज़ालिएन.

'कोविड-19 जैसे संकट में ही संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता निहित'

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र चार्टर की स्थापना को 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं. 26 जून 1945 को संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाले 50 देशों में से एक भारत भी था. तब से लेकर आज तक,  संयुक्त राष्ट्र और भारत – दोनों ही बहुपक्षवाद में भागीदार रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र में भारत अहम योगदान देता रहा है. वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को लेकर कई सवाल उठे हैं. संयुक्त राष्ट्र की उपयोगिकता और यूएन में भारत के योगदान पर भारत में संयुक्त राष्ट्र की रेज़ीडेंट कोऑर्डिनेटर, रेनाटा डेज़ालिएन का ब्लॉग. 

पिचहत्तर साल पहले, एक ऐसे हिंसक, व्यापक और विनाशकारी युद्ध का अन्त हुआ था, जैसा दुनिया ने शायद ही पहले कभी देखा हो. युद्ध में लाखों लोगों ने भाग लिया, कष्ट भोगे या मारे गए, वहीं लाखों लोग विस्थापित हुए और वापस अपने घरों को नहीं लौट पाए, उनके कामकाज व आमदनियाँ ख़त्म हो गईं, यहाँ तक कि उन्हें ये भी मालूम नहीं था कि उनकी अगली ख़ुराक कहाँ से आएगी. ऐसी ही हताशभरी, संकट की स्थिति से, 75 साल पहले, संयुक्त राष्ट्र वजूद में आया था.

संयुक्त राष्ट्र दोषहीन भले ही न हो, लेकिन देशों को युद्ध के गर्त में धकेलने से बचाने के लिए मानवता द्वारा कल्पित, अब तक का सबसे प्रभावी अनुबन्ध था और रहेगा. समय के साथ, इस समझौते में व्यापक रूप से ये समझ भी शामिल की गई कि शान्ति का मतलब केवल युद्ध ख़त्म करना नहीं है, बल्कि सभी के लिए गरिमा और कल्याण का वादा भी है. शान्ति, विकास और मानव अधिकारों के एकीकरण से मानव प्रगति के लिए एक सहज, बहुरूपदर्शक दृष्टिकोण बना.

यूएन चार्टर का उदय

26 जून 1945 का वो दिन, जब दो भारतीय प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे और उस समय तक आज़ाद भी नहीं हुए अपने राष्ट्र को उस वैश्विक नियामक संरचना के प्रति वचनबद्ध किया था जो “युद्ध के संकट से भविष्य की पीढ़ियों को बचाने" और "मौलिक अधिकारों में विश्वास की पुन: पुष्टि" करने के लिए बनाया गया था. तब से आज तक, भारत और संयुक्त राष्ट्र ने अन्तरराष्ट्रीयता की सबसे सच्ची और गहरी समझ बनाते हुए भागीदारी की है, जिसमें नैतिक नियमों को परिष्कृत करने पर बारीकी से काम किया जा रहा है और जिसके ज़रिये सदस्य देश, संवाद और आपसी समझ के माध्यम से मतभेदों को पाटने के  क्षेत्र में सहयोग कर सकते हैं.

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महात्मा गाँधी ने 1945 में एक प्रैस वक्तव्य में कहा था, "भविष्य की शान्ति, सुरक्षा और दुनिया की प्रगति के लिए स्वतन्त्र राष्ट्रों के विश्व महासंघ की बहुत ज़रूरत है ... (और इसलिए) भारत का राष्ट्रवाद अन्तरराष्ट्रीयता को बढ़ावा देता है." इस तरह भारत ने 1946 के शुरू में ही, संयुक्त राष्ट्र में मताधिकार से वंचितों के लिए आवाज़ उठाई और एक नवीन व उभरती हुई अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था लाने का आग्रह किया, जिससे संयुक्त राष्ट्र चार्टर की भावना को कथनी और करनी में अपनाया जा सके. 

भारत की भागीदारी

फिर भारत ने, 'मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा' के प्रारूप मेंअपनी उत्साहित भागीदारी के ज़रिये अपना बहुपक्षीय दृष्टिकोण दोहराया. इसमें इस विश्वास को रेखांकित किया गया कि महाद्वीपों, राजनैतिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भों में, जीवन, स्वतन्त्रता, निष्पक्षता, अन्तरात्मा की आवाज, लोकतन्त्र और कल्याण के लिए, सभी के अधिकार समान हैं. इन वैश्विक मानवीय मूल्यों को वैश्विक नज़रिये में डालने का काम, न केवल पुरानी अभिजात्य, पश्चिमी शक्तियों ने किया था, बल्कि भारत के नेताओं, महिलाओं और पुरुषों के लगातार प्रयासों ने भी इसमें अहम भूमिका निभाते हुए, घोषणा में इस देश की गूढ़ सार्वभौमिक प्रतिबद्धता प्रतिबिम्बित करने के प्रयास किए थे. उदाहरण के लिए, भारत की हंसा मेहता ने 1947 में संयुक्त राष्ट्र से आग्रह किया था कि यूएन घोषणापत्र के मसौदे से "सभी पुरुष स्वतन्त्र और समान पैदा हुए हैं" को बदलकर "सभी मनुष्य स्वतन्त्र और समान पैदा हुए हैं” किया जाए.

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वसुधैव कुटुम्बकम (सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है) की नीति में अपना विश्वास जारी रखते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा का ध्यान दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव की ओर आकर्षित किया और भारत व दुनिया भर में उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए, औपनिवेशिक देशों और लोगों के लिए स्वतन्त्रता की माँग को लेकर 1960 का युगान्तकारी घोषणापत्र तैयार करने में अहम भूमिका निभाई. इस घोषणापत्र में सभी प्रकार के उपनिवेशवाद का बिना शर्त अन्त करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया. 

प्रेरक योगदान 

इतने वर्षों में, कभी भी भारत बहुपक्षीयता की अपनी प्रतिबद्धता से डिगा नहीं और संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना, जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकारों और सतत विकास समेत सभी रूपों में उसे समर्थन दिया. हाल ही में, कोविड-19 महामारी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था की पुनर्बहाली के लिए, भारत संयुक्त राष्ट्र के ग़रीबी उन्मूलन गठबन्धन में एक संस्थापक सदस्य के रूप में शामिल हुआ. इसमें भारत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धनराशि या मुआवज़ा देना ही ग़रीबी उन्मूलन का लक्ष्य नहीं है, बल्कि ये भी ज़रूरी है कि लोगों को गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वच्छता के साधन उपलब्ध हों.

संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रेरक नेतृत्व के अनगिनत अन्य उदाहरण हैं. इनमें अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा शामिल है; भारत-संयुक्त राष्ट्र विकास साझेदारी निधि का संस्थापक रहा है, दक्षिण-दक्षिण सहयोग पहल में विकासशील देशों में परियोजनाएँ शुरू करने वाला पहला एकल-देश रहा; टैक्स मैटर्स के संयुक्त राष्ट्र ट्रस्ट फंड में अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के लिए स्वैच्छिक रूप से योगदान देने वाला पहला देश, काले धन का प्रवाह रोकने और कर सहयोग पर बहुपक्षीय समर्थन में अपनी बात पर अडिग रहकर इस क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र तन्त्र को मज़बूत करना; अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद पर एक व्यापक सम्मेलन का मसौदा तैयार करने की पहल (CCIT); आपदा लचीली संरचना के लिए गठबन्धन का संस्थापक; संयुक्त राष्ट्र लोकतन्त्र निधि (UNDEF) का संस्थापक; अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन (आईएसए) का संस्थापक, और संयुक्त राष्ट्र के साथ सन्धि-आधारित अन्तर-सरकारी संगठन में पंजीकृत; व 2030 के एजेंडा निर्धारण में अपने अतुल्य नेतृत्व के रूप में हमेशा से संयुक्त राष्ट्र में अहम योगदान देता रहा है. 

कोविड संकट से निपटने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका

महान वैश्विक अनिश्चितता और तनाव के इस समय में जब पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी के संकट से निपटने के लिए संघर्ष कर रही है, दुख की बात ये है कि हम एक ऐसा बदलाव भी देख रहे हैं जो सभी को बहुपक्षीय सहयोग से दूर ले जा रहा है. संकीर्णतावादी राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद, व्यापार युद्ध और "पहले मैं" जैसी अन्य अभिव्यक्तियों ने परस्पर कल्याण के लिए सहयोग के ज़ज्बे को फीका कर दिया है. कुछ लोग ये भी दावा करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र का समय अब लद चुका है. लेकिन दुनिया में इस उथल-पुथल के समय ही बहुपक्षीय सहयोग की सबसे अधिक ज़रूरत है. कोविड-19 की जवाबी कार्रवाई में दुनिया बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी, अगर सभी देशों ने तालाबन्दी में समन्वय करके, वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं की सुरक्षा के लिए अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया होता. सोचिये! अगर सभी देश कोविड-19 वैक्सीन पर आपसी सहयोग करते, तो कितने लोगों की जान बचाई जा सकती थी!

इसलिए, संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वर्षगाँठ पर, मैं अपने विश्वास पर क़ायम हूँ कि संयुक्त राष्ट्र सर्वश्रेष्ठ भले ही न हो, लेकिन ये एकमात्र ऐसी संस्था है जो सदस्य देशों के बीच पनप रहे तनाव को शान्त कर सकता है, इसे फैलने से रोकने के लिए सहयोग रूपी पुलों का निर्माण कर, संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के शाश्वत मानदंडों के मार्गदर्शन के ज़रिये, विश्व को कोविड-19 जैसे संकटों से बाहर निकालकर, वैश्विक पुनर्‌निर्माण में मदद कर सकता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र प्रभावी होने के लिये ज़रूरी है कि सभी देश के बीच सहयोग के लिए सहमति हो. 

भारत बहुपक्षवाद के महत्व को समझता है और इसके लिए उसने बार-बार अपनी प्रतिबद्धता साबित भी की है. 2016 में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा था,  “हमारा अनुबन्ध: सहयोग को बढ़ावा देकर आगे बढ़ सकता है, प्रभुत्व को बढ़ाकर नहीं. सम्पर्क को बढ़ाकर - अलगाव को बढ़ाकर नहीं. समावेश को बढ़ाकर - अलग-थलग करने वाले तन्त्र को बढ़ावा देकर नहीं. वैश्विक लक्ष्यों के लिए सम्मान, और मुख्य रूप से, अन्तरराष्ट्रीय नियमों और मानदंडों के लिए सम्मान दिखाना बहुत आवश्यक है."

धन्यवाद, भारत.