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मूल भाषाओं को सहेजना मानव विरासत को सहेजने जैसा

केनया में पारंपरिक परिधानों में स्थानीय महिलाएं.
World Bank/Curt Carnemark
केनया में पारंपरिक परिधानों में स्थानीय महिलाएं.

मूल भाषाओं को सहेजना मानव विरासत को सहेजने जैसा

संस्कृति और शिक्षा

संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष तिजानी मोहम्मद-बांडे ने कहा है कि यूएन के प्रयासों के बावजूद विश्व में आदिवासियों की मूल भाषाएं लुप्त होती जा रही हैं जिसके कारण उनकी पहचान व परंपराओं को ख़तरा पैदा हो रहा है. ‘आदिवासियों की मूल भाषाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय वर्ष' के समापन पर न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने यह बात कही है.

यूएन महासभा अध्यक्ष ने कहा, “हर दो सप्ताह में कम से कम एक मूल भाषा पृथ्वी से लुप्त हो जाती है – यानी हर महीने दो मूल भाषाएं खो जाती हैं.”

उन्होंने बताया कि वर्ष 2007 में आदिवासी लोगों के अधिकारों पर एक घोषणापत्र में आदिवासियों के अधिकारों को पहचानने और उनकी भाषाओं, इतिहास, परंपराओं, जीवन-दर्शन और साहित्य को भावी पीढ़ियों के लिए सहेजने की पुकार लगाई गई थी.

यूएन महासभा अध्यक्ष तिजानी मोहम्मद-बांडे ने बताया कि आधुनिक जगत में आदिवासी समुदायों को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है उनसे निपटने के प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र हमेशा आगे रहा है, लेकिन चुनौतियां कम नहीं हुई हैं

“यथास्थिति का बने रहना बेहद गंभीर है. बची हुई चार हज़ार भाषाएँ विश्व आबादी का छह फ़ीसदी हिस्सा ही बोलता है.” दुनिया में निर्धनतम लोगों का 15 फ़ीसदी हिस्सा आदिवासी हैं.

क्यों अहम है भाषाओं को सहेजना

महासभा प्रमुख ने ध्यान दिलाया कि मूल भाषाओं, लोगों और संस्कृतियों को लुप्त होने से रोकना कई वजहों से अहम हैं.

मूल भाषाएं लोगों को ब्रह्मांड के बारे में व्यवस्थित ढंग से सोचना सिखाती हैं जिससे कठिन समस्याओं के समाधान की तलाश करने में मदद मिलती है.

यूएन महासभा अध्यक्ष तिजानी मोहम्मद-बांडे और आर्थिक व सामाजिक मामलों के अवर महासचिव लियू झेनमिन न्यूयॉर्क मुख्यालय में प्रतिभागियों के साथ.
UN Photo/ Rick Bajornas
यूएन महासभा अध्यक्ष तिजानी मोहम्मद-बांडे और आर्थिक व सामाजिक मामलों के अवर महासचिव लियू झेनमिन न्यूयॉर्क मुख्यालय में प्रतिभागियों के साथ.

आदिवासी परंपराओं से ज्ञान अर्जित करने और उसे भावी पीढ़ियों तक संचारित करने में आसानी हुई है – उदाहरण के तौर पर जड़ी-बूटियों पर आधारित चिकित्सा, खाद्य संरक्षण, सार्वजनिक प्रशासन, और विवादों के निपटारे के परंपरागत तरीक़ों को जारी रखना.

साथ ही मानव प्रगति के लिए आवश्यक है कि विविध भाषाओं व परंपराओं में संवाद का हो, और यदि भाषाओं की मौत होती है तो आदिवासी समुदायों की पहचान को ख़तरा बढ़ जाता है.

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2007 में आदिवासी लोगों के अधिकारों पर एक घोषणा अपनाया था. इसके मूल में उनके अधिकारों को पहचानना और उनकी भाषाओं, इतिहासों, परंपराओं, जीवन-दर्शनों और साहित्य को भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने का प्रयास था.

इस घोषणा के तहत सदस्य देशों से आदिवासी समुदायों के साथ सलाह-मशविरे के बाद असरदार उपाय अपनाने का आग्रह किया गया है.

इससे उनके साथ होने वाले भेदभाव का अंत करने, पूर्वाग्रहों का सामना करने और सहिष्णुता, समझ व अच्छे रिश्तों को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी.

साथ ही उन नीतियों और क़ानूनों को प्रभावी ढंग से अमल करने पर ज़ोर दिया गया है जिनसे उनकी भाषाओं को सहेजना और मज़बूती दे पाना संभव हो.

इस कार्यक्रम का आयोजन संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO), संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग (UNDESA) और सदस्य देशों ने मिलकर किया था ताकि 2019 में मनाए गए अंतरराष्ट्रीय वर्ष की समीक्षा हो सके और मौजूदा चुनौतियों का आकलन भी.