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भारत में बाल विवाह के चँगुल से निकल, शिक्षा का रुख़ करती लड़कियाँ

लाली आदिवासी (दाँये) ने रामकली आदिवासी (बाँये) का बाल विवाह होने से रोका.
Darshna Mahila Kalyan Samiti, India
लाली आदिवासी (दाँये) ने रामकली आदिवासी (बाँये) का बाल विवाह होने से रोका.

भारत में बाल विवाह के चँगुल से निकल, शिक्षा का रुख़ करती लड़कियाँ

महिलाएँ

हाल ही में जारी हुई 2020 की विश्व जनसंख्या स्थिति रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में बाल विवाह के प्रचलन की दर लगभग 21 प्रतिशत है और हर 5 में से 1 लड़की का विवाह 18 साल की उम्र से पहले ही कर दिया जाता है. भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 2015-16 आँकड़ों के मुताबिक हर 4 में से लगभग 1 लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती है. लेकिन अनेक भारतीय महिलाएँ ऐसी भी हैं जिन्होंने बाल विवाह की हानिकारक प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द की और शिक्षा व आत्मनिर्भरता को चुनकर अपना जीवन अपने दम पर जीने का रास्ता चुना.
 

भारत के महाराष्ट्र राज्य में बीड के कृषि क्षेत्र की रहने वाली सोनी के माता-पिता काम के लिये गाँव से बाहर रहते थे. सोनी 15 वर्ष की थीं जब उसके चाचा ने 28 साल के एक व्यक्ति से उनका विवाह कर दिया था. सोनी बताती हैं, "उन्होंने कहा कि मैं बहुत अधिक आज़ाद ख़याल और बड़बोली हूँ, और अब वो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते हैं."

जब सूखे की मार पड़ती है, तो सोनी के माता-पिता जैसे ही बहुत से अन्य ग़रीब लोग अपने गाँवों से पड़ोसी क्षेत्रों के गन्ने के खेतों में काम करने के लिये पलायन करते हैं. इन जगहों पर मज़दूरी केवल जोड़े में अनुबन्धित की जाती है, यानि आमतौर पर पति-पत्नी दोनों को जोड़े में ही मज़दूरी के लिये रखा जाता है. 

इससे अक्सर किशोरियाँ बेहद असुरक्षित माहौल में पीछे रह जाती हैं. इसलिये उनके परिवारों को लगता है कि विवाह होने पर वो सुरक्षित हो जाएँगी.

लेकिन सोनी अपने पति के घर में सुरक्षित नहीं थीं. विवाह के कुछ महीनों के अन्दर ही घरेलू हिंसा शुरू हो गई.

सोनी बताती हैं, "मेरे पति और ससुराल वाले मुझे बहुत पीटते थे. मेरे ससुराल वालों ने कहा कि मेरे अन्दर बुरी आत्माओं का वास है, क्योंकि मैं अपने मन की बात कहने का साहस रखती थी. वो मुझे तान्त्रिकों के पास ले गए जिन्होंने मेरे अन्दर से आत्माएँ भगाने के लिए मुझे बहुत पीटा. माता-पिता भी मुझे वापस नहीं लेना चाहते थे.वो कहते थे कि अब पति का घर ही तेरा घर है और मुझे वहीं रहना होगा.”

2018 में एक अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस कार्यक्रम में दर्शकों को संबोधित करती, सोनी.

सोनी को मदद मिली, दलित महिला विकास मण्डल नामक एक संस्था से, जो किशोरियों को आवश्यक कौशल सिखाने वाला एक कार्यक्रम चलाती थी.

वहाँ, सोनी ने एक नर्स बनने का प्रशिक्षण लिया और उसने अपने गाँव की 12 अन्य लड़कियों को भी इसी पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की प्रेरणा दी.

सोनी आज, अपने पति के घर की अपमानजनक स्थिति से दूर, एक स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर महिला हैं और पुणे शहर में एक अस्पताल की नर्स के रूप में कार्यरत हैं.

सोनी अब अपने ख़ाली समय में, लड़कियों के ख़िलाफ़ भेदभाव उजागर करने वाले नाटकों में हिस्सा लेकर, जागरूकता बढ़ाने में मदद करती हैं. 

सोनी बताती हैं, "मेरे साथ जो हो रहा था, उससे मुझमें बहुत रौष बढ़ रहा था. कुछ समय के लिये, मुझे लगा कि मेरे जीवन में कोई दिशा, कोई नियन्त्रण ही नहीं है. लेकिन अब मैं कमाती हूँ और अपने माता-पिता को पैसे भेज सकती हूँ. अब मैं अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित महसूस करती हूँ.”

असली योद्धा

पूजा यादव और लाली आदिवासी का जीवन एक मिशन के लिये समर्पित हैं. भारत के मध्य प्रदेश राज्य के एक आदिवासी गाँव रामगढ़ में बाल विवाह का चलन आम है. 

लेकिन पूजा और लाली समुदाय के सदस्यों के साथ बातचीत करके, लड़कियों को स्कूल में रखने और उनकी शिक्षा पूरी करने के लिये प्रोत्साहित करती हैं. वो समुदायों को समझातीं हैं कि शादी की उम्र होने तक उन्हें इन्तज़ार करना चाहिये. उनके काम का एक हिस्सा सतर्क रहना भी है. 

जब 15 वर्षीय रामकली आदिवासी किशोर लड़कियों के लिये एक सामुदायिक समूह की बैठक में शामिल नहीं हुईं, तो उन्हें तुरन्त अहसास हो गया कि कुछ गड़बड़ है.

फिर उन्हें मालूम हुआ कि रामकली के माता-पिता उसका विवाह कराने की कोशिश कर रहे हैं.

रामकली याद करती हैं, '"मैं शादी के लिये तैयार नहीं थी और शिक्षित होकर जीवन में कुछ बनना चाहती थी. जब मेरे माता-पिता ने मेरी शादी तय की तो मैं बहुत परेशान हो गई."

पूजा और लाली ने शादी रोकने का संकल्प लिया और रामकली के माता-पिता से बात करने के लिये उनके घर पहुँचीं. 

परम्परा के ख़िलाफ़ जाकर कुछ भी समझाना आसान काम नहीं था. लेकिन आख़िरकार, उन्होंने रामकली के माता-पिता को बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानूनों का हवाला देकर व बेटी के स्वास्थ्य को नुक़सान के बारे में बताकर उन्हें मना ही लिया. 

रामकली ने बताया, "मुझे बहुत राहत मिली जब पूजा दीदी और लाली दीदी ने मेरे माता-पिता से बात करके मेरी शादी रोक दी.अब मैं अपने सपने पूरे कर सकती हूँ."

सपने देखने का हौसला

भारत के पूर्वी राज्य ओडिशा के जादीपाड़ा गाँव की निवासी अंम्बिका ओराम की कहानी भी कुछ इसी तरह की है . वो बताती हैं, "ऐसी बहुत सी चीजें थीं जो मैं करना चाहती थी. मेरे सपने थे और मैं उन्हें छोड़ने के लिये तैयार नहीं थी. इसलिये मैंने शादी करने से इन्कार कर दिया.”

अम्बिका अब 21 साल की हैं और भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में एक मिल में काम करती हैं.

आठ साल पहले, जब उनके माता-पिता ने एक धनी परिवार के लड़के से उनकी शादी तय कर दी थी, तो उन्होंने ठान लिया कि अपने सपने पूरे करने के लिये वो अपनी बात पर मज़बूती से टिके रहेंगी.

इसके लिये उन्होंने अपने स्कूल में जीवन कौशल कार्यक्रम सिखाने वाले शिक्षकों से मदद माँगी. अम्बिका की योजना काम कर गई.

उनके पिता अर्जुन ओरम ने बताया, "जब उसने शादी करने से इन्कार कर दिया, तो हम भौंचक्के रह गए."

"यहाँ ज़्यादातर लड़कियाँ ऐसा नहीं कहती हैं. लेकिन फिर हमें ये अहसास हुआ कि लड़कियों को शिक्षित करना चाहिये व इतनी कम उम्र में शादी करने के लिये उन्हें मजबूर करना सही नहीं है. हमें उम्मीद है कि वो जीवन में कुछ बड़ा करे, जिससे हम सभी का सिर गर्व से ऊँचा हो.”

बुलन्द इरादे

सोनी, रामकली और अम्बिका की ही तरह ओडिशा के कोरापुट जिले की 15 वर्षीय राधमनी माझी भी अपने जीवन में कुछ करने का सपना लेकर बड़ी हुईं.

लेकिन उसके माता-पिता ने उसके लिये कुछ और ही सोच रखा था. वो 18 साल की होने से पहले ही राधमनी का विवाह करा देना चाहते थे.

उन्हें समझाने में असमर्थ रामधनी ने यूएन जनसंख्या कोष समर्थित आदिवासी युवा सहयोग कार्यक्रम, मिशन ‘उदय’ का सहारा लिया. आनन-फ़ानन में इस कार्यक्रम के स्वयं-सेवकों ने तुरन्त ग्राम निगरानी समिति को सतर्क किया. 

वो बहुत प्रसन्नता से बताती हैं, "आँगनवाड़ी दीदी मेरे घर आईं और मेरे माता-पिता को बाल विवाह के दुष्प्रभावों के बारे में बत्या. कुछ बैठकों के बाद, मेरे माता-पिता मेरा विवाह रोकने के लिये तैयार हो गये." 

मानसिकता में बदलाव ज़रूरी 

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि लैंगिक भेदभाव और हानिकारक प्रथाएँ, पक्षपाती मानदण्दों और रूढ़ियों के आधार पर पनपते हैं, फिर चाहे उनकी जड़ें कितनी ही गहरी क्यों न हों.

अनेक कार्यक्रमों के ज़रिये समुदायों के साथ मिलकर हानिकारक प्रथाओं को बदलने का काम किया गया है. इसमें थोड़ी प्रगति ज़रूर हासिल हुई है, मगर ये काफ़ी नहीं है. 

रिपोर्ट के अनुसार सार्वभौमिक पैमाने पर कार्रवाई ही विश्व स्तर पर मानव अधिकारों के समझौतों का मक़सद पूरा कर सकती है. इसी से जनसंख्या और विकास पर 1994 के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन (ICPD) और 2030 के सतत विकास एजेण्डे व उसके 17 लक्ष्यों के कार्यक्रम पर किये गए वादे पूरे हो पाएँगे.