भारत में शरणार्थी और मेज़बान समुदाय पर तालाबन्दी की मार

भारत में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूएनएचसीआर) के साथ पंजीकृत 40 हज़ार 276 शरणार्थियों में से ज़्यादातर पहले ही जीवनयापन के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन कोरोनावायरस महामारी के कारण उनकी ज़िन्दगी और बिखर गई है.
2013 में अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ म्याँमार से भारत आए 44 वर्षीय रोहिंज्या शरणार्थी, निज़ामुद्दीन लिन राजधानी नई दिल्ली में एक ग़ैर-लाभकारी क़ानूनी सहायता संगठन के लिए अनुवाद का काम करके जीवनयापन कर रहे थे. इससे वो अपने परिवार की गुज़र-बसर लायक आय अर्जित कर लेते थे, लेकिन तीन महीने पहले कोविड महामारी के कारण भारत में देशव्यापी बन्द होने से हालात बदल गए.
अब, वो पेट भरने के लिए स्थानीय किराना दुकानों पर माल उठाने-लादने के लिए मजबूर है. उन्होंने बताया, "मैं बड़ी मुश्किल से गुज़ारे लायक आमदनी कमा पाता हूँ, मेरे पास जो भी छोटी-मोटी नौकरियाँ थीं वो ख़त्म हो गई हैं."
भारत में इस महीने के शुरू में लॉकडाउन खुलना शुरू हो गया था, लेकिन हाल ही में कोविड-19 के संक्रमण के नए मामलों में वृद्धि हुई है. स्थिति ये है कि देश के अनौपचारिक क्षेत्र में दैनिक मज़दूरी करने वाले अधिकांश शरणार्थियों के पास अब भी कोई काम नहीं है.
निज़ामुद्दीन मानते हैं कि उनकी स्थिति रोहिंज्या समुदाय के अनेक अन्य लोगों की तुलना में फिर भी बेहतर है. अपने परिवार की गुज़र-बसर के लिए वो म्याँमार का अपना घर बेचकर कुछ धन ले आए थे. लेकिन दूसरे शरणार्थियों के पास इस तरह की कोई बचत नहीं है और वो संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों, स्थानीय ग़ैर सरकारी संगठनों और भारत सरकार की सहायता पर अब पहले से कहीं अधिक निर्भर हैं.
भारत में यूएनएचसीआर के साथ पंजीकृत शरणार्थियों में से अधिकतर, म्याँमार (ज़्यादातर रोहिंज्या समुदाय से) और अफ़ग़ानिस्तान से हैं, और कुछ छोटे समूह यमन, सीरिया, सोमालिया और अन्य अफ्रीकी देशों से आते हैं.
तालाबन्दी की शुरुआत में भोजन जुटाना पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत थी. शरणार्थी एजेंसी ने अपने स्थानीय साझेदारों के साथ मिलकर,अप्रैल और मई महीनों के बीच लगभग 9 हज़ार शरणार्थी परिवारों को खाद्य पैकेज मुहैया कराए, जबकि अन्य 3 हज़ार 200 परिवारों को स्थानीय अधिकारियों और ग़ैर सरकारी संगठनों ने भोजन मुहैय्या कराया.
इस संकट ने न केवल शरणार्थियों को प्रभावित किया है, बल्कि उनके मेज़बान समुदाय पर भी काफ़ी असर डाला है. यूएन शरणार्थी एजेंसी ने यथा सम्भव खाद्य और साबुन बाँटकर स्थानीय लोगों की मदद की. लेकिन और ज़्यादा जीवन-रक्षक राहत पहुँचाने के लिए धन ख़त्म हो रहा है. यूएनएचसीआर की खाद्य राहत सामग्री की नवीनतम खेप में अब केवल 930 परिवारों को ही मदद पहुँचाई जा सकी.
भारत में यूएनएचसीआर के सहायक बाहरी सम्बन्ध अधिकारी किरी अत्री ने कहा, "ज़रूरतें बहुत बड़ी हैं, लेकिन हमारे पास और अधिक मदद करने के लिए धनराशि नहीं है. जीवन रक्षक गतिविधियाँ जारी रखने व कमज़ोर तबके के शरणार्थियों और मेज़बान समुदायों को भोजन, राशन, नक़दी की सहायता और महिलाओं व लड़कियों के लिए सैनिटरी नैपकिन जैसी ज़रूरतों के लिए तत्काल धन की आवश्यकता है."
किरी अत्री ने कहा कि मानसून और डेंगू का मौसम आने के साथ ही भीड़भाड़ वाली झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों को भी अपने घरों की मरम्मत, मच्छरदानी और अन्य आवश्यक सहायता की आवश्यकता होगी.
निज़ामुद्दीन ने कहा कि शरणार्थी एजेंसी और उसकी स्थानीय सहयोगी संस्था, बॉस्को से मिला भोजन उनके परिवार के लिए अहम था, ख़ासतौर पर इसलिए कि दिल्ली में रह रहे रोहिंज्या समुदाय के लोग एक दूसरे की मदद करने की स्थिति में नहीं थे.
उसने कहा, "अगर मेरी मौत भी हो जाती है, तो मेरे समुदाय में से कोई मुझे दफ़नाने तक के लिए भी धन नहीं जुटा पाएगा. हम सभी भुखमरी का शिकार हैं."
विश्व बैंक का अनुमान है कि कोरोनावायरस महामारी दुनिया भर में 7 करोड़ 10 लाख लोगों को अत्यधिक ग़रीबी में धकेल देगी. वैश्विक स्तर पर, वर्ष के अन्त तक तीव्र खाद्य असुरक्षा का सामना करने वाले लोगों की संख्या दोगुनी होने की सम्भावना है.
भोजन के अलावा, भारत में अनेक शरणार्थियों के लिए सबसे बड़ी चिन्ता ये है कि वो अपने घरों का किराया कैसे अदा करें और घर से निकाले जाने के डर में जी रहे हैं.
यूएन शरणार्थी एजेंसी की एसोसिएट प्रोटेक्शन ऑफिसर सेलिन मैथ्यूज़ का कहना है, "ज़्यादातर लोगों की धन बचत अब ख़त्म हो गई है. मकान मालिकों से बात करके हमने उनके लिए कुछ समय की मोहतल ले ली है, लेकिन अब स्थिति ऐसी हो चली है कि मकान मालिक ख़ुद अपने गुज़र-बसर के लिये किराए पर निर्भर हो गए हैं." उन्होंने कहा कि विदेश में रहने वाले रिश्तेदारों से आने वाली मदद भी अब बन्द होती जा रही है.
सोमालिया से आई 25 वर्षीय शरणार्थी, आयशा* ने बताया कि किसी दूसरे देश में रहने वाली उसकी चाची उसे प्रति माह 200 अमेरिकी डॉलर की रक़म भेजती थीं, जिससे उसकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होती थीं. "अब उनके पास ख़ुद अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए धन नहीं है, इसलिये उन्होंने मुझे रक़म भेजनी बन्द कर दी हैं."
आयशा* ने कहा कि वो केवल एक स्थानीय दुकानदार के रहमो-करम पर जी रही हैं, जो उसे उधार पर सामान देने को तैयार हो गया. लॉकडाउन से उत्पन्न परेशानियों में वित्तीय तनाव ही नहीं, कई और भी समस्याएँ हैं जिनका सामना ये शरणार्थी कर रहे हैं. बहुत से शरणार्थी कोविड-19 की चपेट में आकर बीमार भी हो चुके हैं. हालाँकि उनमें से अधिकाँश ठीक हो गए हैं, लेकिन अनेक अब भी अस्पताल में हैं, वहीं चार लोगों ने इस बीमारी के कारण दम तोड़ दिया है.
हालाँकि शरणार्थियों की स्वास्थ्य सेवा तक पूरी पहुँच है, लेकिन हाल ही में परीक्षण केन्द्रों ने सम्पर्क ट्रेसिंग के लिये पते का प्रमाण मांगना शुरू कर दिया है. ज़ाहिर है, 'किराया एग्रीमेन्ट दस्तावेज़' के बिना रहने वाले ज़्यादातर शरणार्थियों के पास ये है नहीं. सेलिन मैथ्यूज़ ने कहा कि ऐसे मामलों में यूएन शरणार्थी एजेंसी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए समर्थन पत्र देकर उनकी मदद कर रहा है.
उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य मन्त्रालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी स्वास्थ्य सलाह का शरणार्थियों की भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है. "लेकिन यह चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनमें से अनेक झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं, जहाँ उनके लिए शारीरिक दूरी बनाना मुश्किल है."
महामारी जैसे-जैसे और ज़्यादा फैल रही है, भारत में शरणार्थी भी उसकी रोकथाम की कोशिशों में हिस्सा ले रहे हैं - उन्हीं में से एक हसीबुल्लाह पारहिज़ हैं. 24 वर्षीय अफ़ग़ान शरणार्थी हसीबुल्लाह ने भोजन सामग्री वितरित करने और अपने समुदाय में रोकथाम के उपायों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद की है.
हसीबुल्लाह ख़ुद कोविड-19 के लक्षण दिखने पर पिछले 17 दिनों से एकान्तवास में रह रहे थे. उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि एक शरणार्थी को अन्य शरणार्थियों की मदद करना बहुत ज़रूरी है."
तालाबन्दी के प्रतिबन्धों के कारण यूएन शरणार्थी एजेंसी के कर्मचारी शारीरिक रूप से समुदाय के लोगों के पास नहीं जा पा रहे हैं, सेलिन मैथ्यूज़ ने बताया कि शरणार्थी एजेंसी अपनी राहत और निगरानी आवश्यकताएँ वितरित करने के लिए हसीबुल्लाह जैसे शरणार्थी स्वयंसेवकों पर निर्भर है. वो और उनके सहयोगी व्हाट्सएप जैसे मैसेजिंग ऐप का उपयोग करके, विभिन्न शरणार्थी समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ नियमित सम्पर्क में रहते हैं और ख़ासतौर पर विकलांगों और बुज़ुर्गों को विशिष्ट सेवाएँ दी जाती हैं.
उन्होंने कहा, "लॉकडाउन और संक्रमण के डर के बावजूद, बहुत से लोग अपने समुदायों की मदद के लिए आगे आए हैं. मेज़बान समुदाय भी अब पहले से अधिक एकजुटता के साथ उनके साथ खड़े हैं."
*सुरक्षा कारणों से नाम बदल दिया गया है.