
वन
हमारे वन्य जीव और जंगल, प्लास्टिक के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं. प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़ों में बैक्टीरिया, वायरस और प्रोटिस्ट हो सकते हैं, जो रोगवाहक का काम करते हैं. माइक्रोप्लास्टिक्स, जंगलों की मिट्टी में मौजूद जीवों से मिलकर, उनके स्वास्थ्य व कार्य प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं. गाढ़े माइक्रोप्लास्टिक्स और बिस्फेनॉल ए (BPA) से थैलेट्स जैसे तत्व पैदा होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हड़्डी वाले जानवरों और मेरूदंड विहीन जीवों की हार्मोन प्रणाली में असन्तुलन हो सकता है.

मीठे पानी की झीलें और नदियाँ
भारत की सभी प्रमुख नदी घाटियों में प्लास्टिक की मौजूदगी एक बड़ी समस्या बन चुकी है. मीठे पानी वाले क्षेत्रों - झीलों और नदियों में प्लास्टिक प्रदूषण, स्थानीय जैव विविधता के स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए ख़तरा बनता जा रहा है. इससे पक्षियों और अन्य वन्यजीवों पर होने वाले बुरे प्रभावों में, निर्माण सामग्री में प्लास्टिक का इस्तेमाल, अनजाने में सम्पर्क में आने पर पक्षियों का उलझना, और पक्षियों व उनके बच्चों द्वारा भोजन समझकर खाया जाना भी शामिल हैं.
मीठे पानी के आवासों में प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या बेहद जटिल है और इसके लिए पुनर्चक्रण कार्यक्रम, सही निपटान, कड़े क़ानून, नियमित निरीक्षण, व सिंथेटिक पॉलिमर के स्थान पर अन्य सामग्री इस्तेमाल करने जैसे समन्वित कार्यों की आवश्यकता होगी.

पहाड़
भारत के हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन से, बड़ी मात्रा में एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक और री-सायकिल न हो सकने वाला कचरा उत्पन्न होता है. माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण, दुनिया की सबसे ऊँची चोटी, माउंट एवरेस्ट के पास बर्फ़ में भी पाया गया है. पहाड़ों में प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या, दूर-दराज़ स्थित इलाक़ों, कठिन प्राकृतिक व जलवायु परिस्थितियों एवँ बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण और बढ़ जाती है.
इन नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों की जैव विविधता और पारिस्थितिक मूल्यों के संरक्षण के लिए,पर्वतों पर हो रहे प्रदूषण के बारे में जागरूकता बढ़ाना और पहाड़ों पर प्लास्टिक का प्रवाह रोकना बेहद आवश्यक है.

महासागरीय द्वीप
दूर-दराज़ के क्षेत्रों में स्थित द्वीप भी प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त नहीं हैं. प्लास्टिक उत्पादों के लिए हमारी बढ़ती लत का ही नतीजा है कि वे समुद्री वातावरण में चारों ओर पाए जाते हैं. तटीय भूमि क्षेत्रों से समुद्र की धाराओं के बहाव के साथ जाकर, प्लास्टिक कचरा दूरस्थ द्वीपों में जमा हो रहा है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि इन संवेदनशील द्वीपों में, प्लास्टिक प्रदूषण के कारण दिन के तापमान पर असर पड़ सकता है, जिसका समुद्री कछुए और स्थानीय पक्षी जीवन जैसे तटीय पारिस्थितिक तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव होने की आशंका है.

महासागर और समुद्री तट
सबसे अधिक प्लास्टिक, समुद्र में व्याप्त कूड़े में देखा जाता है. यह, सतह के पानी से लेकर गहरे समुद्र के तलछट तक पाए जाने वाले सभी समुद्री मलबे का 80% हिस्सा है. सूर्य की अल्ट्रावायलट किरणों, वायु, धाराओं और अन्य प्राकृतिक कारकों के प्रभाव से, प्लास्टिक टूटकर छोटे कणों का रूप ले लेता है, यानि माइक्रोप्लास्टिक्स (5 मिमी से छोटे कण) या नैनोप्लास्टिक्स (100 एनएम से छोटे प्लास्टिक कण).
जब मलबे से प्लास्टिक के इन कणों को समुद्री जीव निगल जाते हैं, तो ये उनके पाचन तंत्र में प्रवेश करके, समय के साथ परस्पर जुड़े खाद्य-जाल में प्रवेश करते हैं. समुद्री भोजन के ज़रिए, समुद्री प्रजातियों और मनुष्यों के बीच प्रदूषकों का स्थानान्तरण, एक प्रमुख स्वास्थ्य जोखिम के रूप में पहचाना गया है.

शहर और नगर
हमारे शहरों, क़स्बों और गाँवों में प्लास्टिक प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है – जिससे आवास और प्राकृतिक प्रक्रियाओं में बदलाव व जलवायु परिवर्तन के अनुसार पारिस्थितिकी तंत्र अनुकूल क्षमता कम हो रही है, और लाखों लोगों की आजीविका, खाद्य उत्पादन क्षमता एवं सामाजिक कल्याण पर सीधा असर पड़ रहा है.

प्लास्टिक प्रदूषण, वन्यजीवों और पक्षियों के लिए विनाशकारी है. प्लास्टिक ज़हरीला होता है और इससे वन्यजीवों की मौत हो सकती है या वो बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं. इसके अलावा जानवर, प्लास्टिक में फँसकर घायल भी हो सकते हैं. यह पक्षियों के प्राकृतिक आवासों को बाधित करता है, जिससे बहुत सी प्रजातियों का प्राकृतिक निवास व प्रजनन कठिन हो जाता है, और उनकी आबादी कम होने लगती है. प्लास्टिक, सभी को प्रभावित करता है, सूक्ष्म जीवों से लेकर खाद्य श्रृंखला, व शिकार पर निर्भर बड़े पशुओं से लेकर मनुष्यों तक.