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भारत में एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय: कुछ सफलताओं के बावजूद, स्वीकार्यता व समान अधिकारों का संघर्ष

सामाजिक पूर्वाग्रहों की वजह से मलैंगिक जोड़े आज भी अपनी पहचान छुपाने को मजूबर हैं.
UNAIDS
सामाजिक पूर्वाग्रहों की वजह से मलैंगिक जोड़े आज भी अपनी पहचान छुपाने को मजूबर हैं.

भारत में एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय: कुछ सफलताओं के बावजूद, स्वीकार्यता व समान अधिकारों का संघर्ष

मानवाधिकार

भारत में एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के लिए हाल के समय में कुछ प्रगति दर्ज की गई है, मगर सामाजिक पूर्वाग्रहों पर पार पाने के लिए अभी एक लम्बा रास्ता तय किया जाना बाक़ी है. साथ ही, यह सुनिश्चित करने के लिए भी कि देश में सभी लोगों को यह महसूस हो कि उनके अधिकारों की रक्षा की जाएगी, चाहे उनकी लैंगिक पहचान या यौन रुझान कुछ भी हो. एचआईवी/एड्स महामारी पर वैश्विक कार्रवाई के लिए यूएन संस्था (UNAIDS) और यूएन विकास कार्यक्रम (UNDP) में कार्यालय इस दिशा में प्रयासों के लिए बड़े साझेदार हैं.

भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम के छोटे से कस्बे की निवासी, नोयोनिका* और इषिता* एक उच्च शिक्षा प्राप्त समलैंगिक युगल हैं, जो अब LGBTQIA+ समुदाय से जुड़े मामलों की पैरवी करने वाली एक संस्था के साथ काम करती हैं. 

लेकिन इसके बावजूद, नोयोनिका अपने ही परिवार को अपने समलैंगिक होने का सच बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाई हैं. वो कहती हैं, “बहुत कम लोगों को पता है कि मेरा अभिविन्यास ऐसा है. मेरा परिवार बहुत रूढ़िवादी है और यह समझ पाना कि मैं समलैंगिक हूँ, मेरे परिवार के लिए यह सोच से बहुत परे है.”  

नोयोनिका की पार्टनर इषिता, अपनी पहचान Agender (कोई भी लैंगिक पहचान नहीं) श्रेणी में मानती हैं. वो बताती हैं कि उन्हें बचपन में इस बात का अहसास हो गया था कि वो बाकी लड़कियों से अलग हैं और लड़कों की बजाय लड़कियों की ओर आकर्षित होती हैं, लेकिन उनके पिता आज भी उनकी वास्तविकता से अनजान हैं, क्योंकि रूढ़िवादी होने के कारण वो उन्हें बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं. 

इसी से कुछ मिलती-जुलती कहानी है, पश्चिमोत्तर राज्य पंजाब के एक छोटे से गाँव की निवासी, समलैंगिक दम्पति 23 वर्षीय मीनल* व 27 वर्षीय संगीता* की. ये दोनों अब बड़े शहर में रहती हैं और अच्छी कम्पनी में कामकाज करती हैं. 

लेकिन जब मीनल के परिवार को उनके समलैंगिक सम्बन्ध की भनक लगी तो उनके जीवन में मानो तूफ़ान ही आ गया. संगीता बताती हैं कि हालाँकि उनके माता-पिता ने उनके ‘अलग’ होने से समझौता कर लिया, लेकिन मीनल के परिवार से उन्हें अत्यधिक विरोध व उत्पीड़न का सामना करना पड़ा.

“2019 में कोर्ट के ज़रिए हमें साथ रहने की अनुमिति मिली थी. लेकिन इसके बाद मीनल के घरवालों ने संगीता को फोन पर धमकियाँ देनी शुरू कर दीं. वो कहते थे कि वो मुझे जान से मार देंगे और मेरे परिवार को जेल में डाल देंगे. इससे मेरे घर वाले भी डर गए थे. उसके बाद वो 2-3 साल तक उनका पीछा करके परेशान करते रहे.”

संगीता और मीनल आज भी अपने रिश्ते को क़ानूनी मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

*पहचान गुप्त रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं.

स्वीकार्यता के लिए संघर्ष

यह कहानी केवल कुछ शहरी या कुछ ग्रामीण समलैंगिक युगलों की नहीं है, बल्कि LGBTQIA+ से जुड़े उन अनेक व्यक्तियों की हैं, जिन्हें सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.

ओडिषा की ट्रान्सजैंडर कार्यकर्ता, साधना मिश्रा ‘सखा’ नामक एक समुदायिक संस्था चलाती हैं. सामाजिक लैंगिक मानदन्डों के अनुरूप अभिविन्यास न होने के कारण उन्हें बचपन में उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. 2015 में, उन्होंने लैगिक पुष्टिकरण सर्जरी (gender confirming surgery) करवाई और फिर उनके नए व्यक्तित्व की यात्रा शुरू हुई.

ओडिशा की एक ट्रांसजैंडर कार्यकर्ता, साधना मिश्रा ट्रांसजैंडर समुदाय के अधिकारों की पैरवी में सक्रियता से जुड़ी हुई हैं.
UN News

बचपन के उन कष्टदायक दिनों को याद करते हुए वो कहती हैं, “बचपन में अपनी स्त्रीयोचित ख़ूबसूरती की वजह से मेरे मुझे बार-बार बलात्कार का शिकार होना पड़ा. जब भी मैं रोती थी तभी मेरी माँ पूछती थी कि क्यों रो रही है और मैं कुछ नहीं बोल पाती. मैं उनसे पूछती थी कि लोग मुझे क्यों छक्का और किन्नर बुलाते हैं? तब मेरी माँ मुस्कुराकर बोलती थी कि क्योंकि तू सबसे अलग, अद्वितीय है.”

उनकी माँ के विश्वास का ही परिणाम है कि आज साधना अन्य ट्रान्सजैंडर व्यक्तियों के अधिकारों की लड़ाई में सक्रिय हैं. लेकिन उन्हें संस्था के वो शुरूआती दिन अभी भी अच्छी तरह याद हैं, जब ‘सखा’ के कार्यालय के लिए कोई जगह मिलनी भी मुश्किल हो गई थी. लोग उन्हें जगह किराये पर देने से हिचकते थे, और उन्हें सार्वजनिक जगहों व पार्कों से काम शुरू करना पड़ा.

सामाजिक पूर्वाग्रह

परिवेश शहरी हो या ग्रामीण, एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय से जुड़े मुद्दों पर समझ का अभाव व असहिष्णुता समान ही है.

नोयोनिका बताती हैं कि उनकी संस्था के सामने ऐसे कई मामले आते रहते हैं जहाँ किसी पुरुष की लैंगिक पहचान समझे बिना ही, समाज के दबाव में उसकी किसी औरत के साथ शादी करवा दी जाती है. गाँवो, क़स्बों में ऐसे कई शादीशुदा जोड़े मिल जाएँगे जिनके बच्चे हो चुके हैं और वो एक नक़ली जीवन जीने को मजबूर हैं.” 

वहीं इषिता ने बताया कि उनकी संस्था असम के जिन ग्रामीण इलाक़ों में काम करती है, जहाँ ‘नामघर’ यानि प्रार्थना के स्थानों पर सांस्कृतिक उत्सव ‘भावना’ मनाया जाता है, जिसमें पौराणिक कथाओं पर आधारित नाट्यकला प्रस्तुत की जाती है. 

इसमें महिलाओं के किरदार ज़्यादातर, जनाना अभिलक्षणों वाले पुरुष निभाते हैं. तो उत्सव के दौरान तो उनकी ख़ूब वाह-वाही होती है, उनके इन्हीं जनाना अभिलक्षणों (feminine characteristics) को पसन्द किया जाता है, लेकिन बाद में यही लोग उत्पीड़न का शिकार होते हैं. उन्हें डराया-धमकाया जाता है, उनका यौन शोषण होता है, उनसे छेड़छाड़ की जाती है.”  

प्रगति की राह

हाल के वर्षों में, भारत में एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के पक्ष में कई सकारात्मक क़ानूनी और नीतिगत निर्णय हुए हैं. इसमें 2014 में, राष्ट्रीय क़ानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) का निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने सर्वजन को स्वयं अपनी लैंगिक पहचान करने का अधिकार बरक़रार रखा और हिजड़ों एवं किन्नरों को क़ानूनी तौर पर "तीसरे लिंग" के रूप में पहचान दी. 

2018 में वयस्कों के बीच समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाली भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 377 को आंशिक रूप से रद्द कर दिया. फिर 2021 में मद्रास उच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक फ़ैसले में राज्य को एलजीबीटीक्यूआई समुदायों को समग्र रूप से समस्त कल्याणकारी सेवाएँ प्रदान करने का निर्देश दिया. 

संचार और भाषा, किसी भी मुद्दे पर सम्वाद शुरू करने और किसी भी व्यक्ति के लिए अधिक सहिष्णु एवं समावेशी समाज बनाने, तथा धीरे-धीरे मानसिकता बदलने में मदद करने का महत्वपूर्ण तरीक़ा है. 

इसी के मद्देनज़र हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र महिला संस्था, UN Women ने भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के साथ मिलकर, लिंग समावेशी संचार मार्गदर्शिका बनाने में योगदान दिया.

LGBTQA+ समुदाय के साथ भेदभाव को रोकने के लिए शिक्षा प्रसार व जागरूकता बढ़ाना अहम है.
Credit: Benson Kua

संयुक्त राष्ट्र का साथ

भारत में संयुक्त राष्ट्र की UNAIDS और UNDP संस्थाएँ, LGBTQIA+ समुदाय की मदद के लिए जागरूकता व सशक्तिकरण अभियान चलाने के साथ-साथ उन्हें बेहतर स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा सेवाएँ प्रदान करने की कोशिश में लगी है. 

भारत में यूएनएड्स के देश निदेशक, डेविड ब्रिजर ने बताया, “यूएनएड्स, एचआईवी रोकथाम व बचाव कार्रवाई और मानवाधिकारों की पैरोकारी में, एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों का समर्थन करता है, और भेदभाव से निपटने व समावेशी समाज बनाने में मदद करने की दिशा में उनका साथ दे रहा है, जहाँ हर किसी को सुरक्षा और सम्मान मिल सके. एचआईवी पर प्रतिक्रियात्मक क़दमों ने हम सभी को स्पष्ट रूप से सिखाया है कि हर किसी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, हमें सभी के अधिकारों की रक्षा करनी होगी.”

वहीं 2030 एजेंडा और किसी को भी पीछे न छोड़ने के वादे के तहत, यूएनडीपी, सरकारों और भागीदारों के साथ मिलकर, एलजीबीटीआई लोगों के प्रति व्याप्त असमानताओं, उनके मानवाधिकारों का सम्मान करने वाले क़ानूनों, नीतियों और कार्यक्रमों को मज़बूत करने के प्रयासों में लगा है. "Being LGBTI in the Asia and the Pacific” नामक कार्यक्रम के ज़रिए, यूएनडीपी ने विभिन्न क्षेत्रीय कार्यक्रम भी लागू किए हैं. 

यूएनडीपी की स्वास्थ्य प्रणाली सुदृढ़ीकरण इकाई में राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रबंधक, डॉक्टर चिरंजीव भट्टाचार्य ने बताया, “हाल ही में हुए कई प्रगतिशील क़ानूनी फ़ैसलों के कारण हमारे पास समुदाय के विकास के कई अवसर उत्पन्न हुए हैं. हालाँकि, कार्यान्वयन की चुनौतियाँ हैं, जिसके लिए बहु-हितधारक सहयोग की आवश्यकता होगी. लेकिन हम उन्हें सम्बोधित करने के लिए समुदाय के साथ काम करते रहेंगे, ताकि कोई भी पीछे न छूट जाए.”

अनुच्छेद 377 को निरस्त करने से भारतीय क़ानूनी परिदृश्य, समावेशन की ओर बढ़ रहा है, लेकिन फिर भी, चाहे वो अस्पताल में दाख़िला लेने पर 'परिजन' के रूप में मान्यता का प्रश्न हो, जीवन बीमा पॉलिसी में पार्टनर के रूप में पहचान मिलने का या फिर समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने का - ट्रांस व समलैंगिक व्यक्तियों के दैनिक संघर्षों की फ़ेरहिस्त अभी भी न्याय का इंतजार कर रही हैं.