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पर्पल फेस्ट की थीम है - “सार्वभौमिक डिज़ाइन: सभी के लिए समावेशन का मार्ग.”

सबको गिने जाने व सबकी परवाह: समावेशी जनगणना क्यों ज़रूरी

© UN News/Rohit Upadhyay
पर्पल फेस्ट की थीम है - “सार्वभौमिक डिज़ाइन: सभी के लिए समावेशन का मार्ग.”

सबको गिने जाने व सबकी परवाह: समावेशी जनगणना क्यों ज़रूरी

अंशु शर्मा, रोहित उपाध्याय
मानवाधिकार

भारत के गोवा प्रदेश में बैंगनी रौशनी से दमकते एक भव्य हॉल में, लगभग 15 देशों के प्रतिनिधि  'International Purple Festival 2025' के लिए एकत्र हुए. यह कोई साधारण नीति बैठक नहीं थी. संगीत, हँसी के ठहाके और दीवारों पर लगी कलाकृतियाँ बता रही थीं कि समावेशन दान नहीं, एक उत्सव है. फिर भी तालियों के बीच एक सच्चाई बार-बार सामने आई. दुनिया को आज भी ठीक से मालूम नहीं है कि कितने लोग विकलांगता के साथ जी रहे हैं. जब गिनती सही नहीं होती, तो बहुत से लोग नज़र से ओझल रह जाते हैं. और जो नज़र नहीं आते, वे अक्सर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार से जुड़े फ़ैसलों में पीछे रह जाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया में हर छह में से एक व्यक्ति - यानि एक अरब से अधिक लोग - किसी न किसी रूप में विकलांगता के साथ जीते हैं. फिर भी कई देशों में उनकी सही गिनती नहीं हो पाती. 

भारत में आधिकारिक आँकड़े केवल 2.2% आबादी को विकलांग दिखाते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार लाखों लोग, सामाजिक कलंक, संकीर्ण परिभाषाएँ और सर्वेक्षण के पुराने तरीक़ों के कारण, इस गिनती से छूट जाते हैं.

भारत में WHO के विकलांगता और पुनर्वास के राष्ट्रीय अधिकारी डॉक्टर मोहम्मद अशील कहते हैं, “सटीक आँकड़ों के बिना सबसे अच्छे क़ानून भी खोखले वादे बन जाते हैं. हमारे पास नीतियाँ हैं, लेकिन हम यह जाने बिना कि लोग कौन हैं और कहाँ रहते हैं, पुनर्वास या स्वास्थ्य सेवाओं की प्रभावी योजना नहीं बना सकते.”

डॉक्टर मोहम्मद अशील ने केरल की 2016 की विकलांगता-विशेष जनगणना को याद किया, जिसने जियो-टैगिंग और व्यक्तिगत देखभाल योजनाएँ लागू की थीं. 

उन्होंने कहा, “हमने सीखा कि डेटा जीवन बचा सकता है. 2018 की बाढ़ के दौरान, विशेष प्रकार की विकलांगता वाले लोगों के स्थानों के बारे में जानकारी होना राहत और बचाव को कहीं अधिक प्रभावी बना गया. सोचिए, अगर हर देश अपनी अगली जनगणना में यह कर सके.”

विकलांगता अधिकारों पर आयोजित एक सत्र में, भारत में WHO के विकलांगता और पुनर्वास के राष्ट्रीय अधिकारी डॉक्टर मोहम्मद अशील, अंजली अग्रवाल (सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक, समन्यहम) और भूटान की विकलांग व्यक्तियों की संस्था के प्रतिनिधि योंतेन जामेशो ने अपने…
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यह सन्देश भारत से बहुत दूर तक पहुँचा. भूटान की विकलांग व्यक्तियों की संस्था के प्रतिनिधि योंतेन जामेशो ने कहा कि उनके यहाँ नीतियाँ सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता के सिद्धांत पर बनती हैं और समावेशन उसमें मूल नियम है. 

उन्होंने कहा, “गिनती केवल संख्या भर नहीं है. यह बताती है कि प्रसन्नता सभी तक बराबरी से पहुँच रही है या नहीं.” 

उन्होंने कहा कि भूटान वॉशिंगटन ग्रुप के अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न-श्रृंखला अपनाता है, ताकि उसका डेटा दुनिया भर से तुलना-योग्य रहे. “अगर भारत अब 21 तरह की विकलांगताओं की गिनती करता है, तो यह हमारे लिए अपनाने लायक एक मज़बूत मॉडल है.”

मालदीव में विकलांगता परिषद की अध्यक्ष और से दो बार की पैरालम्पियन, फ़ातिमा इब्राहीम ने मज़बूत और जुड़े हुए विकलांगता डेटाबेस की मांग की. 

उन्होंने कहा, “हमारे द्वीप बिखरे हुए हैं. भरोसेमंद आँकड़ों के बिना लोग व्यवस्था की दरारों में खो जाते हैं. जब आपको यह ही नहीं मालूम कि किसे क्या चाहिए, तो आप विश्वविद्यालय, रोज़गार या खेल कार्यक्रम किस तरह तैयार करेंगे? एक अच्छी जनगणना ही न्यायपूर्ण भविष्य की नींव है.”

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने कई सत्रों में एक ही सन्देश दोहराया - समावेशन के लिए डेटा क्रान्ति की ज़रूरत है.

बच्चों के अधिकारों पर यूनीसेफ़ के सत्र ने इस चर्चा को एक नई दिशा दी. भारत में यूनीसेफ़ की बाल सुरक्षा विशेषज्ञ वन्दना खंडारी ने विकलांग बच्चों की अदृश्यता पर चिन्ता जताई. 

उन्होंने कहा, “दुनिया भर में विकलांग बच्चों को हिंसा और उपेक्षा का ख]तरा सामान्य बच्चों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा होता है. दक्षिण एशिया में तो कई बच्चों की गिनती तक नहीं होती. जो बच्चे आँकड़ों में नहीं दिखते, वे ज़िन्दगी में भी नज़र नहीं आते.”

उन्होंने उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चल रही पायलट परियोजनाओं के उदाहरण पेश किए, जहाँ स्वयंसेवक जन, बच्चों की शुरुआती पहचान करते हैं, उन्हें सेवाओं से जोड़ते हैं और जानकारी ज़िला योजना तक पहुँचाते हैं. 

उन्होंने कहा, “यही है समावेशी जनगणना का असली रूप,” “जब गिनती की जाती है, तो वह देखभाल में बदल जाती है.”

भारत सरकार के साथ 2027 की जनगणना पर काम करते हुए, यूएनएफ़पीए (UNFPA) के जनसंख्या और अनुसंधान विशेषज्ञ डॉक्टर संजय कुमार ने तकनीकी चुनौतियों पर प्रकाश डाला. 

उन्होंने कहा, “हम रजिस्ट्रार जनरल के साथ मिलकर 2027 की जनगणना को वास्तव में समावेशी बनाने पर काम कर रहे हैं. पिछली जनगणना में एक से अधिक तरह की विकलांगता (Multiple Disability) की श्रेणी ने कई वास्तविकताओं को छिपा दिया था. अब हम गणनाकर्ताओं (Enumerators) के लिए डिजिटल साधन और मोबाइल ऐप विकसित कर रहे हैं, ताकि हर घर तक पहुँचा जा सके और हर व्यक्ति को सही तरीक़े से शामिल किया जा सके.”

पर्पल फेस्टिवल एक राष्ट्रीय मंच के रूप में कार्य करता है, जहाँ विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों, नेतृत्व और रचनात्मकता का उत्सव मनाया जाता है.
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समावेशी स्वास्थ्य प्रणाली बेहद अहम

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की टीम ने चर्चा को स्वास्थ्य समानता के नज़रिए से आगे बढ़ाया. WHO दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्रीय कार्यालय में क्षेत्रीय सलाहकार डॉक्टर ताशी तोबग्ये याशी ने याद दिलाया कि समावेशी डेटा और समावेशी स्वास्थ्य प्रणाली एक-दूसरे के सहारे चलती हैं.

उन्होंने कहा, “हम हमेशा तीन बातों पर ज़ोर देते हैं - सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage), किसी को पीछे नहीं छोड़ना (Leave No One Behind), और हमारे बिना हमारे बारे में कुछ नहीं (Nothing About Us Without Us)."

"अब ज़रूरत है कि इन सिद्धांतों को स्पष्ट मानकों में बदला जाए. ऐसे अस्पताल हों जो सभी के लिए सुलभ हों. ऐसी जाँच-प्रणालियाँ हों जो हर व्यक्ति को शामिल करें. और ऐसा डेटा हो जो नीति-निर्माताओं को समझाए कि विकलांगता समावेशन सार्वजनिक स्वास्थ्य की प्राथमिकता है.”

कई देशों में स्वास्थ्य व्यवस्था अब भी बुनियादी रूप से असमान और असुलभ बनी हुई है. बहुत कम क्लीनिकों में रैंप या दृष्टिबाधित लोगों के लिए टैक्टाइल पथ जैसी सुविधाएँ हैं. ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले लोगों को उन जाँचों के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है, जो वास्तव में निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिए.

सहायक उपकरणों और दवाओं पर अत्यधिक निजी धन ख़र्च, कई परिवारों को क़र्ज़ में धकेल देता है. वहीं, निजी बीमा कम्पनियाँ अब भी पहले से मौजूद विकलांगताओं के लिए कवरेज देने से इनकार करती हैं, जबकि अन्तरराष्ट्रीय समझौते इस तरह के भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करते हैं.

अन्तरराष्ट्रीय पर्पल फेस्ट 2025 का आयोजन, गोवा सरकार द्वारा विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण विभाग (DEPwD), सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, तथा भारत में संयुक्त राष्ट्र (UN India) के सहयोग से किया जा रहा है.
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संरचना की यह असमानता दिखाती है कि स्वास्थ्य प्रणाली में समावेशन केवल नीति नहीं, बल्कि ज़रूरत है - ताकि कोई भी व्यक्ति, उसकी स्थिति चाहे जो हो, इलाज और देखभाल के अधिकार से वंचित न रहे.

रूस से आए ऑल-रशिया एसोसिएशन ऑफ़ ब्लाइंड (VOS) के अध्यक्ष, व्लादिमिर सिपकिन ने एक अहम चुनौती रखी. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र से आग्रह किया कि विकलांगता के आकलन और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एक वैश्विक मानक तय किया जाए. 

उन्होंने कहा, “हर देश अलग तरह से गिनती करता है, वर्गीकरण अलग है और उपचार के तरीक़े भी अलग हैं. हमें एक एकीकृत ढाँचे की ज़रूरत है - एक ऐसी सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्रणाली, जहाँ देखभाल, व्यक्ति के साथ चले, पासपोर्ट के साथ नहीं.”

आर्मीनिया की सांसद ज़ारुही बाटोयान ने बताया, “हमने 2021 में अपना विकलांगता अधिकार क़ानून पारित किया, जो संयुक्त राष्ट्र के विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन पर आधारित है. लेकिन सिर्फ़ क़ानून बनने से ज़िन्दगी नहीं बदलती. हमें शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसे हर क्षेत्र के क़ानूनों को भी, विकलांगता के प्रति संवेदनशील बनाना होगा. यही असली समावेशन है.”

भारत में संयुक्त राष्ट्र के रेज़िडेंट कोऑर्डिनेटर शॉम्बी ने कहा, “पर्पल महोत्सव ख़ुशी भी देता है और दिशा भी. समावेशन समस्या नहीं, एक सुन्दर नवाचार है. माहौल सुलभ बनता है तो विकलांग लोग...कमाल करते हैं. वे हमें बताते हैं कि असली प्रगति का अर्थ क्या होता है.”

संदेश स्पष्ट है: सम्मान के लिए डेटा ज़रूरी है, ताक़त के लिए दिखना ज़रूरी है, और समावेशन की शुरुआत सबको गिने जाने से होती है.

अगर अगली विश्व-जनगणनाएँ यह बात मानें, तो “अदृश्य” एक अरब लोग भी नीतियों और स्वास्थ्य सेवाओं में साफ़-साफ़ दिखेंगे.