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सहकारिता दिवस: ‘एक बनकर काम करने की भावना’

दक्षिण सूडान में महिला किसानों की एक सहकारी समिति को FAO द्वारा बीज उत्पादन का प्रशिक्षण दिया गया है.
© FAO/Daniel Chaplin
दक्षिण सूडान में महिला किसानों की एक सहकारी समिति को FAO द्वारा बीज उत्पादन का प्रशिक्षण दिया गया है.

सहकारिता दिवस: ‘एक बनकर काम करने की भावना’

आर्थिक विकास

हर वर्ष 5 जुलाई को मनाया जाने वाला अन्तरराष्ट्रीय सहकारी दिवस इस ओर ध्यान आकर्षित करता है कि सहकारी समितियाँ उन परिस्थितियों में भी लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में किस तरह सहायक होती हैंजहाँ अकेले प्रयास करना पर्याप्त नहीं होता. दुनिया में इस समय लगभग 30 लाख सहकारी समितियाँ सक्रिय हैं जिनसे कुल मानव आबादी का लगभग 12 प्रतिशत हिस्सा जुड़ा हुआ है. भारत में भी सहकारिता आन्दोलन, कमज़ोर वर्ग के लोगों की आर्थिक प्रगति में काफ़ी सक्रिय रहा है.

सहकारी समितियों के प्राचीन रिकॉर्ड की जड़ें मार्च, 1761 में निकली नज़र आती हैं. 

उसके बाद 1844 में इंगलैंड के उत्तरी हिस्से में कपास मिलों के 28 कारीगरों ने, आधुनिक युग का प्रथम सहकारी कारोबार स्थापित किया था.

भारत में भी 20वीं सदी में ही सहकारी समितियाँ वजूद में आ गई थीं और 1904 में सहकारी समितियों को, 'सहकारी ऋण समितियाँ अधिनियम' के ज़रिए, क़ानूनी दर्जा दे दिया गया था.

भारत में स्वतंत्रता के बाद सहकारिता क्षेत्र को मज़बूत बनाने और इसका दायरा बढ़ाने के लिए अनेक क़ानून भी बनाए गए. इसी पृष्ठभूमि में, 6 जुलाई 2021 को सहकारिता मंत्रालय भी स्थापित किया गया.

दक्षिण सूडान में सहकारिता की मिसाल

दक्षिण सूडान के मध्य इक्वेटोरिया प्रदेश में मक्का और जौ से सम्बन्धित एक सहकारी समिति के सदस्यों की संख्या, एक वर्ष के भीतर, 20 से बढ़कर 150 से अधिक हो गई है. 

इस विस्तार से न केवल कई परिवारों की आय बढ़ी है, बल्कि अनेक सदस्य पहली बार अपने परिवारों की ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम हो पाए हैं.

दक्षिण सूडान में युवाओं को कृषि गतिविधियों में शामिल करना, उन्हें हथियार उठाने से रोक सकता है.
UN Photo/Gregorio Cunha

"दक्षिण सूडान में खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के सहकारी समिति परियोजना प्रबन्धक लुई बागारे का कहना है, “सहकारी समितियाँ न केवल लोगों को अपनी आजीविका सुधारने का साधन देती हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी सशक्त बनाती हैं. यही वह रास्ता है, जो दक्षिण सूडान को निर्धनता से बाहर निकालने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है."

उन्होंने यह बात अन्तरराष्ट्रीय सहकारी दिवस के अवसर पर कही, जो हर वर्ष 5 जुलाई को मनाया जाता है. यह दिवस इस ओर ध्यान आकर्षित करता है कि सहकारी समितियाँ उन परिस्थितियों में भी लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में किस तरह सहायक होती हैं, जहाँ अकेले प्रयास करना पर्याप्त नहीं होता.

अशान्ति से निकलता शान्ति का रास्ता

दक्षिण सूडान में सहकारी समितियाँ केवल आर्थिक सशक्तिकरण का माध्यम नहीं हैं - वे उससे कहीं अधिक सम्भावनाएँ समेटे हुए हैं.

लुई बागारे कहते हैं, "सहकारी समितियाँ दक्षिण सूडान में शान्ति और स्थिरता की एक प्रभावशाली सादन बनकर उभरी हैं."

दक्षिण सूडान ने, 2011 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से, गम्भीर आन्तरिक संघर्षों का सामना किया है. इनमें एक विनाशकारी गृह युद्ध भी शामिल है, जो 2018 में हुए शान्ति समझौते के साथ समाप्त हुआ. हालाँकि, यह शान्ति अब भी बेहद नाज़ुक बनी हुई है.

विशेषकर युवाओं द्वारा की गई लूटपाट और अन्तर-सामुदायिक हिंसा, आज भी कई समुदायों के लिए गहरी चिन्ता का विषय बनी हुई है, जो पहले से ही गहरी खाद्य असुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जनित झटकों से जूझ रहे हैं.

ऐसे संवेदनशील परिदृश्य में, सहकारी समितियाँ एक नई आशा की किरण बनकर सामने आई हैं.

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सहकारी समितियाँ स्थाई शान्ति सुनिश्चित करने में वास्तव में सहायक होती हैं? और हाँ, तो कैसे?

सहकारिता: स्वैच्छिक व लोकतांत्रिक समूह

सहकारी समितियाँ ऐसे स्वैच्छिक आर्थिक संगठन होते हैं जहाँ सदस्य मिलकर कोई कामकाज करते हैं जिसमें आर्थिक नुक़सान या अस्थिरता का कुछ जोखिम भी हो सकता है, और उसके ज़रिए आय अर्जित करते हैं. ये संस्थाएँ न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक रूप से भी लोगों को सशक्त बनाती हैं.

FAO के लुई बागारे का मानना है कि स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों में अपनाया गया यह लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, अन्ततः राष्ट्रीय स्तर पर भी सकारात्मक प्रभाव डालेगा - और पूरे देश में लोकतांत्रिक शासन को मज़बूत करने की दिशा में एक प्रेरक शक्ति बनेगा.

दक्षिण सूडान की एक किसान अपने खेत की जुताई करते हुए.
© FAO/Daniel Chaplin

बन्दूकें नहीं, आय

सहकारी समितियाँ न केवल लोकतांत्रिक शासन का एक मॉडल प्रस्तुत करती हैं, बल्कि आर्थिक विकास का सशक्त माध्यम भी बनती हैं. ये समितियाँ विशेष रूप से युवाओं को हिंसा या लूटपाट जैसे रास्ते अपनाने के बजाय आजीविका का एक व्यावहारिक व टिकाऊ विकल्प प्रदान करती हैं.

FAO के लुई बागारे ने कहा, "जब युवजन उत्पादक और आय-सृजन करने वाली गतिविधियों में संलग्न होते हैं, तो वे हथियार उठाने की ओर आकर्षित नहीं होते."

दक्षिण सूडान में जिन समुदायों ने सहकारी समितियों का गठन किया है, वहाँ अक्सर व्यक्तिगत रूप से आजीविका बनाए रखने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होते. यह अभाव ही युवाओं को हिंसक गतिविधियों की ओर धकेलता है. ऐसे में सहकारी समितियाँ एक सामूहिक समाधान के रूप में उभरती हैं.

लुई बागारे ने समझाया, "जब समुदाय के सदस्य मिलकर काम करते हैं, विचार और संसाधन साझा करते हैं, तो वे अपनी आजीविका से जुड़ी चुनौतियों को कहीं अधिक प्रभावी ढंग से हल कर पाते हैं."

उन्होंने कहा कि बैंक और संस्थागत निवेशक, ऐसे सहकारी समूहों में निवेश करने के लिए अधिक इच्छुक रहते हैं, और FAO जैसे संगठनों से इन्हें समर्थन मिलने की सम्भावना भी अधिक होती है.

हालाँकि, दीर्घकालिक निर्भरता उद्देश्य नहीं है. लुई बागारे ने बताया, "हमारा ध्यान उनकी क्षमता निर्माण पर है - ताकि वे भविष्य में अपने दम पर एक बेहतर जीवन का निर्माण कर सकें."

दक्षिण सूडान में, FAO, किसानों और युवाओं को सहकारी भावना के साथ खेतीबाड़ी में काम करने के लिए मदद कर रहा है ताकि वो टिकाऊ शान्ति की ओर बढ़ सकें.
© FAO/Daniel Chaplin

भारत में सहकारिता आन्दोलन

भारत में भी मुख्य रूप से कृषि और वित्त क्षेत्र में सहकारी आन्दोलन बहुत सक्रिय और सफल रहा है जिनमें सहकारी बैंक भी शामिल हैं.

भारत में इस समय लगभग 8 लाख सहकारी संस्थाएँ हैं जिनके ज़रिए आर्थिक विकास और लोगों के सशक्तिकरण में सहयोग मिल रहा है.

कोई सहकारी संस्था एक ऐसा स्वैच्छिक संगठन होता है जिसमें अपनी साझा ज़रूरतों वाले लोग, साझा आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इकट्ठे होते हैं. ये सहकारी संस्थाएँ स्वयं की सहायता और परस्पर सहायता व विश्वास के सिद्धान्त पर गठित होती हैं. इनका मुख्य उद्देश्य, लाभ अर्जित करने के बजाय, समाज के वंचित वर्गों का कुछ कल्याण करना होता है.

सहकारी समितियों के सदस्य, अपने संसाधन इसमें लगाते हैं और उनके साथ सामूहिक रूप में, साझा लाभों के लिए काम करते हैं, जिससे इन समितियों का मुख्य चरित्र सामुदायिक कल्याण यानि फ़ायदा होता है.