भारत: आजीविका निर्माण के साथ, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष
भारत के महाराष्ट्र राज्य की ग्रामीण महिलाएँ, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एक नए आन्दोलन का हिस्सा बनकर, विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूहों के ज़रिए, आर्थिक उन्नति के पथ पर आगे बढ़ रही हैं. महिला सशक्तिकरण एवं अधिकारों के लिए प्रयासरत यूएन संस्था - यूएन वीमैन के नए प्रकाशन में बदलाव की इस बयार को सराहना मिली है.
वर्ष 2011 में एक दुर्घटना में अपने डॉक्टर पति को खोने के बाद संजीवनी शिंदे की दुनिया, ज़्यादातर घर के अन्दर ही सिमटकर रह गई थी.
वह शोकाकुल तो थी हीं, साथ ही विधवा महिलाओं के विरुद्ध प्रचलित सामाजिक मानदंडों के कारण उन्हें विवाह जैसे शुभ सामाजिक समारोहों में हिस्सा लेने की मनाही थी. विधवाओं के साथ इन भेदभावपूर्ण तौर-तरीक़ों ने उन्हें घर की चाहरदीवारी के अन्दर ही बन्द कर दिया था.
लेकिन समय बदला – और इस प्रकार के भेदभाव की समाप्ति के लिए पश्चिमी और उत्तरी महाराष्ट्र में रूपान्तरकारी बदलावों की बयार ने संजीवनी को भी उनके घर से बाहर निकलने की प्रेरणा दी.
संजीवनी ने नवोदय विद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने के लिए, उस्मानाबाद के सूखाग्रस्त भूम तहसील स्थित अपने पैतृक गाँव सोनेवाड़ी में बच्चों को निजी कोचिंग देने की शुरुआत की. इस प्रकार ट्यूशन कक्षाओं के उनके छोटे से उद्यम की शुरूआत हुई.
पिछले कुछ वर्षों में, संजीवनी की कक्षाओं में पढ़ने वाले गाँव के कई छात्रों को उच्च शिक्षा संस्थानों में दाख़िला मिला है.वर्तमान में, संजीवनी सोनेवाड़ी और इस हिस्से के अन्य गाँवों में स्वयं सहायता समूहों के बढ़ते नैटवर्क का हिस्सा हैं, जो व्यक्तिगत और सामूहिक आय-सृजन उद्यम चलाता है.
कुछ समय पहले ग्राम पंचायत ने, एकल महिलाओं, ख़ासतौर पर संजीवनी जैसी विधवाओं को उत्सव आयोजनों से दूर रखने के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया.

विभिन्न उद्यम
जहाँ संजीवनी ट्यूशन का एक व्यक्तिगत उद्यम चला रही हैं, तो इस और पड़ोसी गाँवों की कई महिलाएँ दूसरी गतिविधियों में लगी हुई हैं. इनमें डेयरी से लेकर पोल्ट्री तक, स्थानीय फार्मेसी कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों के लिए होम स्टे और टिफ़िन सेवाओं से लेकर दूध, सब्जियाँ और अन्य कृषि वस्तुओं का प्रसंस्करण शामिल है.
सोनेवाडी में हाथों के दस्ताने बनाने की एक इकाई भी है - जो पूर्णत: महिलाओं के समूह द्वारा संचालित है.
एक अन्य समूह, विभिन्न देवताओं की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर, स्थानीय व दूर-दराज़ के मन्दिरों में बेचता है. कई समूह खानपान और विवाह 'बिछायत' सेवाएँ चलाते हैं. इनमें से कई स्वयं सहायता समूह मवेशी पालते हैं और भारतीय मिठाई के लिए दूध का 'खोया' बनाते हैं, जिससे विशेषकर स्थानीय मिठाई 'पेढ़ा' बनाया जाता है.
स्वयं की सहायता से, दूसरों की मदद तक
उस्मानाबाद ज़िले के सूखाग्रस्त भूम ब्लॉक में भी एक व्यापक आन्दोलन आकार ले रहा है, जहाँ महिला सदस्यों के स्वयं सहायता समूहों को, उत्पादक छोटे उद्यमों में बदलने के प्रयास चल रहे हैं – यानि स्वयं की सहायता से दूसरों की मदद करने तक.
इस क्षेत्र के 285 गाँवों में फैले 35 हज़ार महिला सदस्यों वाले लगभग साढ़े तीन हज़ार से अधिक स्वयं सहायता समूह, महिलाओं के लिए आजीविका के नए स्रोतों पर काम कर रहे हैं. साथ ही, दहेज, लैंगिक भेदभाव, अंतरंग साथी हिंसा और पुरुषों में शराब की लत जैसी सामाजिक बुराइयों के बारे में भी जागरूकता फैला रहे हैं.

भूम के सर्कल कृषि अधिकारी, नीलेश रायकर कहते हैं, "इन समूहों के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि वो भिन्न-भिन्न प्रकार की गतिविधियों में संलग्न हैं और एक-दूसरे से उनकी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. हर किसी के पास अपना अलग स्थान है."
एक दशक पहले तक, इनमें से अधिकतर महिलाएँ पश्चिमी महाराष्ट्र के समीपवर्ती ज़िलों के चीनी कारख़ानों में गन्ना काटने जैसे कम वेतन व श्रम गहन काम करने के लिए मजबूर थीं. आज वे अपने और दूसरों के लिए काम कर रहे हैं. वे इस क्षेत्र में बदलाव का चेहरा बन गई हैं.”