भारत: व्यावसायिक ताना-बाना बुनती एक शिक्षिका

भारत के पूर्वी प्रदेश मेघालय की एक मातृसत्तात्मक जनजाति, खासी की महिलाएँ, सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर पारम्परिक कला को पुनर्जीवित करके, सफल उद्यम स्थापित कर रही हैं. उनकी उत्थान व आर्थिक स्वतंत्रता की कहानी, महिला अधिकारों एवं सशक्तिकरण के लिए प्रयासरत यूएन संस्था, यूएनवीमेन के एक प्रकाशन से.
आइशा रिंबाई का जन्म खासी जनजाति के प्रभुत्व वाले गाँव, कडोंगहुलु में हुआ था. खासी जनजाति, मेघालय राज्य का सबसे बड़ा जातीय समुदाय है और दुनिया के आख़िरी बचे मातृसत्तात्मक समाजों में से एक माना जाता है.
खासी समुदाय मातृसत्तात्मक है और अक्सर इसे लैंगिक समानता वाले समाज के उदाहरण के रूप में देखा जाता है. लेकिन 45 वर्षीय आइशा बताती हैं, "यह सच है कि हम खासी महिलाएँ शक्तिशाली हैं, लेकिन उतनी नहीं जितना लोग सोचते हैं."
आइशा की शादी 20 साल की उम्र में हुई और उन्होंने, अपने पति के दमनकारी व्यवहार से परेशान होकर, 32 साल की उम्र तक तलाक़ ले लिया. आइशा ऐसी महिला है, जो जानती हैं कि वो क्या चाहती है.
आइशा वर्तमान में, 19 वर्षों से अधिक समय से अपने ही गाँव के एक सरकारी सहायता प्राप्त उच्च प्राथमिक विद्यालय में पूर्णकालिक शिक्षिका के रूप में काम कर रही हैं.
आइशा ने भी, अपनी पीढ़ी की अधिकांश खासी लड़कियों की ही तरह, करघे पर उत्कृष्ट एरी रेशम कपड़े की कताई सीखी थी. एक दिन उन्हें अहसास हुआ कि वो अपनी उंगलियों से जादू कर सकती हैं. तब उन्होंने अपने गाँव की अन्य महिलाओं को कच्चे एरी रेशम से सूत कातकर, एक सभ्य कामकाज व उद्यमशीलता की राह दिखाई.
वह कहती हैं, ''मैं, एक विफल विवाह में इतने साल बर्बाद करने के बाद, असल आज़ादी चाहती थी.''
उन्होंने भारत सरकार की योजना - प्रधानमंत्री रोज़गार गारंटी कार्यक्रम के तहत, एक लाख 80 हज़ार लाख रुपए का ऋण लेकर, व्यवसाय में पहला क़दम रखा. लेकिन एक स्पष्ट व्यवसायिक योजना के अभाव में, यह कारोबार सफल नहीं हुआ.
फिर 2018 में उनकी उद्यमशीलता पुनर्जीवित हुई, जब उन्हें भारत स्काउट्स व गाइड संगठन से, 50 एरी रेशम स्कार्फ़ों की आपूर्ति करने का ऑर्डर मिला. लेकिन जब उन्होंने स्कार्फ़ बुनने के लिए सूत की तलाश शुरू की, तो निराशा हाथ लगी, क्योंकि गाँववाले ज़्यादातर कच्चा रेशम, पूर्वोत्तर राज्यों के ख़रीदारों को बेच रहे थे.
उन्होंने बताया, “मुझे दुख के साथ-साथ यह भी अहसास हुआ कि अब पारम्परिक शिल्प का अन्त दूर नहीं है. तब मैंने अपने गाँव में एरी कताई को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया और इस तरह ‘एरी वीव’ संस्था का जन्म हुआ.”
उन्होंने अन्य महिला बुनकरों से सम्पर्क किया और ब्लॉक अधिकारियों की मदद से, कच्चा रेशम बेचने के ख़िलाफ़ जागरूकता फैलाई.
आइशा ने, 20 लाख रुपए का अनुदान लेकर, 20 बुनकरों के कार्य-हेतु एक आश्रय बनवाया, जहाँ वो कच्चे रेशम (कोकून) पर काम कर सकते थे.
उन्होंने 10 मशीनीकृत सौर ऊर्जा संचालित कताई मशीनों में भी निवेश किया. इन मशीनों से, वर्तमान में महिलाएँ, हाथ से रेशम धागे का उत्पादन करने की तुलना में, कहीं अधिक मात्रा में उत्पादन कर सकती हैं.
आइशा, राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के हिस्से के रूप में महिला बुनकरों को रियायती ऋण तक पहुँच प्रदान करने के लिए, अधिकारियों के साथ बातचीत भी कर रहीं हैं. हाल ही में, भारत सरकार के केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह और ज़िलाधिकारी, ‘एरी वीव्स’ का काम देखने आए.
आइशा कहती हैं, "इन गणमान्य व्यक्तियों के आने के बाद हमें उम्मीद है कि सरकार हमारा हाथ थामने और खासी समुदाय के बीच, एरी व्यवसाय को पुनर्जीवित करने में मदद करेगी."