भारत: महिला स्वास्थ्यकर्मियों के बुलन्द हौसले
भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के सहयोग से, देश के दूर-दराज़ के इलाक़ों में कोविड टीकाकरण कार्यक्रम को सफलता से अंजाम दिया है. लेकिन इस अभियान की ख़ामोश नायक हैं, वो कर्मठ महिला स्वास्थ्य कर्मी, जो अक्सर व्यक्तिगत परेशानियों को दरकिनार करके, बीहड़ इलाक़ों में लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में लगी हैं.
दीपा के काम पर देर से आने का सबसे आम कारण होता है, एक जंगली जानवर. इस युवा स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रास्ते में कोबरा, बाइसन जैसे ख़तरनाक प्राणी अक्सर सर उठाकर उनकी यात्रा को बाधित कर देते हैं. जब भी ऐसा होता है वो तब तक एकदम स्थिर खड़ी रहती हैं, जब तक वो उनके रास्ते से हट न जाएँ.
दीपा, सप्ताह में एक बार, अपने कन्धे पर वैक्सीन से भरा बक्सा रखकर, कर्नाटक में अरब सागर और पश्चिमी घाट के बीच स्थित हरे-भरे ज़िले, शिमोगा के श्रावथी बैकवाटर के किनारे के गाँवों के पथरीले, कीचड़ भरे इलाक़ों से गुज़रती हैं.
महिलाओं और बच्चों को रोकथाम योग्य बीमारियों के ख़िलाफ़ टीका लगाने के लिए वह इस सुदूर ग्रामीण बस्ती के 12 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले घरों में जाती हैं. पिछले दो वर्षों से, कोविड-19 टीके लगाने के लिए उनका इलाक़े में जाना जारी है.
दीपा एक सहायक नर्स मिडवाइफ़ (एएनएम) हैं, जो सरकार द्वारा नियुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जिनका काम महिलाओं और बच्चों का टीकाकरण करना है. वह तुमुरी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में काम करती है, जो क्षेत्र के सैकड़ों लोगों के लिए स्वास्थ्य देखभाल केन्द्र है.
दीपा बताती हैं, “निकटतम अस्पताल 48 किमी दूर है और इन घुमावदार सड़कों पर गाड़ी चलाकर पहुँचने में लगभग दो घंटे लगते हैं. मुझ जैसी स्वास्थ्य कार्यकर्ता, इन ग्रामीणों में से अनेक के लिए, सम्पर्क का पहला बिन्दु है.” दीपा घुमावदार सड़क से एक संकरे, फिसलन भरे रास्ते पर उतरती हैं, जो पत्थरों के सीढ़ीदार रास्ते से खेतों तक जाता है, जहाँ से वो एक छोटे से घर का रुख़ करती हैं.
हालाँकि आज धूप निकली है, लेकिन यहाँ का मौसम मनमौजी है. फिर भी, दीपा तसल्ली से परिवार के साथ बातें करने का समय निकाल ही लेती हैं. परिवार में एक किसान, उनकी पत्नी, एक किशोरी बेटी और उनके बुज़ुर्ग माता-पिता हैं.
दीपा, वैक्सीन का बक्सा खोलते हुए उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेती हैं, महामारी के बारे में बात करती हैं और सावधानी से उन्हें कोविड-19 की बूस्टर ख़ुराक देती हैं.
वैक्सीन प्रबन्धन प्रणाली
भारत का टीकाकरण कार्यक्रम ऐसी ही 2 लाख 50 हज़ार नर्सों के मज़बूत कन्धों पर टिका है, जो हर साल 2 करोड़ 90 लाख गर्भवती महिलाओं और 2 करोड़ 67 लाख नवजात शिशुओं का टीकाकरण करती हैं.
महामारी के दौरान, इन नर्सों ने, देश भर में कोविड-19 के टीके लगाने के लिए अथक प्रयास किए.
ये नर्सें, भारत के टीकाकरण कार्यक्रम का एक अभिन्न हिस्सा हैं, जो eVIN (इलेक्ट्रॉनिक वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क - स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित व यूएनडीपी द्वारा समर्थित) - एक वैक्सीन प्रबिन्धन प्रणाली है.
दीपा कहती हैं, "मैं हमेशा स्वास्थ्य क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहती थी, लेकिन मेरी जैसी महिलाओं के लिए यह आसान नहीं है." तुमुरी पहुँचने में उन्हें दो घंटे से अधिक का समय लगता है. सबसे पहले, वो एक साझा जीप से नदी के किनारे जाती हैं. फिर वह, लोगों और वाहनों को नदी के पार ले जाने वाली एक बड़ी नौका पर सवार होती हैं. अन्त में, 30 मिनट दूर स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पहुँचने के लिए उन्हें दोबारा जीप में बैठना पड़ता है.
eVIN का स्मार्ट इंटरफ़ेस, वैक्सीन भंडार की निगरानी, कोल्ड-चेन स्टोरेज बिन्दुओं पर तापमान की निगरानी व प्रबन्धन करता है, जिसने दूरस्थ इलाक़ों तक टीकाकरण पहुँचाने के तरीक़े में क्रान्ति ला दी है. 2020 में, भारत के कोविड-19 टीकाकरण अभियान के लिए इसे, CoWIN ऐप का हिस्सा बनाया गया.
व्यक्तिगत बलिदानों से भरी गाथा
दीपा ने 2019 में काम करना शुरू किया और इसके लिए तुमुरी में सरकारी आवास में रहने गईं. सप्ताहान्त में, वो निकटवर्ती शहर सागर में स्थित अपने माता-पिता के घर चली जाती थीं.
फिर उनकी शादी एक कपड़ा व्यापारी के साथ हुई. वह बताती हैं, "विवाह के बाद, परिवार के सदस्यों ने मुझे मेरा काम छोड़ने और घर संभालने के लिए बहुत दबाव डाला."
विश्व बैंक के अनुसार, भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या 2010 में 26% से घटकर 2020 में 19% हो गई.
वो कहती हैं, “मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं यही करना चाहती हूँ.” लेकिन इसके मायने थे, भारी बलिदान देना. इसके लिए पूरे सप्ताह उन्हें तुमुरी में रहना पड़ता है – यह आसान निर्णय नहीं था, ख़ासतौर पर इसलिए क्योंकि उन्हें अपने दो साल के बच्चे को सागर छोड़ना पड़ता है.
उनका पति कभी-कभी उनसे मिलने आता है लेकिन उनके बेटे को उनकी माँ पाल रही हैं और वो बेटे से केवल सप्ताहान्त में ही मिल पाती हैं. उनका मानना है कि उनके यह प्रयास सार्थक रहे हैं.
वह कहती हैं, "परिवार से दूर रहना मुश्किल है, ख़ासतौर पर अपने बच्चे से," लेकिन, "समुदाय की स्वास्थ्य ज़रूरतों का ख़याल रखना, शिशुओं के जीवन की रक्षा करने में मदद करना एक बेहद प्रेरक कार्य है."
बून्दाबान्दी शुरू हो चुकी है. दीपा बेहिचक एक छाता निकालकर, अपनी दो साथी नर्सों एएनएम के साथ, पोखर की ओर, लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित अगले घर का रुख़ करती हैं.