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डॉक्टर पूर्णिमा बर्मन: पर्यावरणीय समझ और उद्यमी दूरदृष्टि

"हरगिला सेना" में 10,000 से अधिक महिलाएँ हैं. वे घोंसलों की रक्षा करते हैं, घोंसलों से गिरने वाले घायल सारसों का पुनर्वास करती हैं.
© UNEP/Diego Rotmistrovksy
"हरगिला सेना" में 10,000 से अधिक महिलाएँ हैं. वे घोंसलों की रक्षा करते हैं, घोंसलों से गिरने वाले घायल सारसों का पुनर्वास करती हैं.

डॉक्टर पूर्णिमा बर्मन: पर्यावरणीय समझ और उद्यमी दूरदृष्टि

जलवायु और पर्यावरण

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के 2022 के चैम्पियन्स ऑफ़ द अर्थपुरस्कारों की घोषणा हाल ही में की गई, जिनमें ‘व्यवसायिक दूरदृष्टिश्रेणी में भारत की डॉक्टर पूर्णिमा देवी बर्मन को भी सम्मानित किया गया है. डॉक्टर पूर्णिमा देवी बर्मन एक वन्यजीव जीवविज्ञानी हैं, जिन्होंने ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्कसारस पक्षी को विलुप्त होने से बचाने के लिये, संरक्षण आन्दोलन चलाया हुआ है. यहाँ महिलाएँ, वस्त्रों पर पक्षी के चित्र उकेरकर, उन्हें बेचती हैं, जिससे उन्हें वित्तीय स्वतंत्रता तो मिलती ही है, साथ ही प्रजाति के बारे में जागरूकता फैलाने में भी मदद मिलती है.

‘व्यवसायिक दूरदृष्टि’ के लिये 2022 के संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी चैम्पियन पुरस्कार से सम्मानित, डॉक्टर पूर्णिमा देवी बर्मन, बचपन से ही सारस पक्षी से आकर्षित थीं, जो आगे जाकर उनके जीवन की गहन रुचि बन गया.

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उन्हें केवल पाँच साल की उम्र में उन्हें भारत के असम राज्य में ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर अपनी दादी के साथ रहने के लिये भेज दिया गया. अपने माता-पिता और भाई-बहनों से बिछड़ कर वो बहुत उदास हो गईं. उनका ध्यान बँटाने के लिये, उनकी दादी, जोकि एक किसान थीं, उन्हें वहाँ के पक्षियों के बारे में जानकारी देने, पास के धान के खेतों व आर्द्रभूमि में ले जाने लगीं.

वो बताती हैं, "वहाँ मैंने सारस और कई अन्य प्रजातियाँ देखीं. उन्होंने मुझे पक्षी गीत सिखाए. उन्होंने ही मुझे बगुलों और सारस के लिये गाने को कहा. मुझे पक्षियों से प्यार हो गया."

आज वन्यजीव जीवविज्ञानी पूर्णिमा बर्मन, अपने जीवन का अहम हिस्सा, दुनिया की दूसरी सबसे दुर्लभ सारस प्रजाति, लुप्तप्राय ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क को बचाने के लिये समर्पित कर चुकी हैं.

लुप्त होती प्रजाति

वर्तमान में, 1200 से भी कम परिपक्व ग्रेटर एडजुटेंट सारस बचे हैं, यानि एक सदी पहले मौजूद उनकी संख्या का केवल 1 प्रतिशत.

उनकी आबादी में नाटकीय गिरावट, आंशिक रूप से उनके प्राकृतिक आवास के विनाश के कारण है. सारसों के पनपने का स्थान आर्द्रभूमि, सूख गए हैं, प्रदूषित और ख़राब हो गए हैं, व ग्रामीण क्षेत्रों के शहरीकरण के साथ ही, उनकी जगह, इमारतों, सड़कों व मोबाइल फोन टावरों ने ले ली है.

वैटलैंड्स, जानवरों और पौधों की विविधता के पनपने के लिये अहम होते हैं, लेकिन दुनिया भर में मानव गतिविधियों और वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण, वे वनों की तुलना में तीन गुना तेज़ी से ग़ायब हो रहे हैं.

मानव-वन्यजीव संघर्ष

पूर्णिमा बर्मन ने ज़ूलॉजी में मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद, ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क पर पीएचडी शुरू की. लेकिन, यह देखते हुए कि जिन पक्षियों के साथ वह पली-बढ़ी थी, वो अब ख़त्म होने के कगार पर थे, उन्होंने इन प्रजातियों को जीवित रखने पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये अपनी थीसिस में देरी करने का फ़ैसला किया.

उन्होंने, 2007 में सारस की रक्षा के मक़सद से एक अभियान शुरू किया. इस अभियान का केन्द्र थे - असम के कामरूप ज़िले के गाँव, जहाँ यह पक्षी सबसे अधिक दिखाई देते थे, लेकिन उन्हें वहाँ हिकारत की नज़र से देखा जाता था.

इन गाँवों में, सारसों को, शवों को खाने, लोगों के बगीचों के पेड़ों पर लगे उनके घोंसलों में हड्डियाँ और मृत जानवर लाने, और दुर्गंधयुक्त मल जमा करने के कारण नफ़रत भरी निगाहों से देखा जाता था. यह पक्षी, 8 फीट (2.4 मीटर) तक के पँखों के फैलाव के साथ लगभग 5 फीट (1.5 मीटर) लम्बे होते हैं और ग्रामीण अक्सर, अपने घरों के पिछले हिस्सों में सारस को घोंसला बनाने देने से बेहतर उन पेड़ों को काटना पसन्द करते हैं.

इस उद्यमिता से न केवल पक्षी के बारे में जागरूकता फैलाने में मदद मिली, बल्कि इससे महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता भी हासिल हुई.
© UNEP/Diego Rotmistrovksy
इस उद्यमिता से न केवल पक्षी के बारे में जागरूकता फैलाने में मदद मिली, बल्कि इससे महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता भी हासिल हुई.

पूर्णिमा बताती हैं "इस पक्षी को पूरी तरह से ग़लत समझा गया था. उन्हें एक अपशकुन या रोग वाहक के रूप में जाना जाता था.”

यहाँ तक कि शुरुआत में, पूर्णिमा को भी इन पक्षियों के घोंसलों को बचाने के प्रयासों के लिये आलोचना का शिकार होना पड़ा था.

विश्व वन्यजीव कोष और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, लोगों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष, वन्यजीव प्रजातियों के लिये मुख्य ख़तरों में से एक है. पृथ्वी पर समस्त जीवन के लिये महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र पर, इस संघर्ष के अपरिवर्तनीय प्रभाव हो सकते हैं.

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली पर संयुक्त राष्ट्र का दशक, लोगों और प्रकृति के बीच सम्बन्धों को दोबारा सन्तुलित करने के लिये वैश्विक समुदाय को संगठित करने का अवसर प्रदान करता है.

'हरगिला सेना'

पूर्णिमा बर्मन जानती थीं कि सारस की रक्षा के लिये, उन्हें पक्षी के प्रति लोगों की धारणा बदलनी होगी, जिसे स्थानीय रूप से असमिया में "हर्गिला" के रूप में जाना जाता है (जिसका अर्थ है "हड्डी निगलने वाला").

‘व्यवसायिक दूरदृष्टि’ श्रेणी में सम्मानित, भारत की डॉक्टर पूर्णिमा देवी बर्मन, एक वन्यजीव जीवविज्ञानी हैं, जो "हरगिला आर्मी" संरक्षण संस्थान का नेतृत्व करती हैं.
© UNEP/Diego Rotmistrovksy
‘व्यवसायिक दूरदृष्टि’ श्रेणी में सम्मानित, भारत की डॉक्टर पूर्णिमा देवी बर्मन, एक वन्यजीव जीवविज्ञानी हैं, जो "हरगिला आर्मी" संरक्षण संस्थान का नेतृत्व करती हैं.

इसमें मदद के लिये उन्होंने गाँव की महिलाओं का एक समूह जुटाया.

आज "हरगिला सेना" में दस हज़ार से अधिक महिलाएँ हैं. वे घोंसलों की रक्षा करते हैं, घोंसलों से गिरने वाले घायल सारसों का पुनर्वास करते हैं और उनके नवजात बच्चों के आगमन का जश्न मनाने के लिये "गोद भराई" की रस्म तक मनाने की व्यवस्था करते हैं. लोक गीतों, कविताओं, त्यौहारों और नाटकों में नियमित रूप से, ग्रेटर एडजुटेंट सारस का ज़िक्र किया जाता है.

पूर्णिमा बर्मन ने महिलाओं को बुनाई, करघे और सूत भी प्रदान किए हैं, ताकि वे हरगिला की छवि से सजाए गए वस्त्र बनाकर बेच सकें. इस उद्यमिता से न केवल पक्षी के बारे में जागरूकता फैलाने में मदद मिली, बल्कि इससे महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता भी हासिल हुई. साथ ही, उनकी आजीविका को बढ़ावा मिला और सारस को बचाने के उनके काम में गर्व और स्वामित्व की भावना का संचार हुआ.

जब से पूर्णिमा ने अपना संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया है, तब से कामरूप ज़िले के दादरा, पचरिया और सिंगीमारी के गाँवों में घोंसलों की संख्या, 28 से बढ़कर 250 से अधिक हो गई है, जिससे यह दुनिया में ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क की सबसे बड़ी प्रजनन कॉलोनी बन गई है.

2017 में, बर्मन ने लुप्तप्राय पक्षियों को अपने अंडे सेने की ख़ातिर घोंसला बनाने के लिये, लम्बे बाँस के मंच का निर्माण शुरू किया. उन्हें मानों इन प्रयासों का पुरस्कार कुछ सालों बाद तब मिला, जब इन प्रायोगिक मंचों पर पहले ग्रेटर एडजुटेंट सारस चूज़ों ने जन्म लिया.

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली

हरगिला सेना ने समुदायों को सारस के घोंसले के पेड़ों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों के आस-पास 45,000 पौधे लगाने में मदद की है, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में इनमें सारस की आबादी पनपेगी.
© UNEP/Diego Rotmistrovksy
हरगिला सेना ने समुदायों को सारस के घोंसले के पेड़ों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों के आस-पास 45,000 पौधे लगाने में मदद की है, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में इनमें सारस की आबादी पनपेगी.

पूर्णिमा बर्मन के लिये, ग्रेटर एजडुटेंट सारस की सुरक्षा का अर्थ है, उनके आवासों की रक्षा करना और उन्हें पुनर्स्थापित करना. हरगिला सेना ने समुदायों को सारस के घोंसले के पेड़ों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों के आस-पास पैंतालिस पौधे लगाने में मदद की है, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में इनमें सारस की आबादी पनपेगी. अगले साल 60 हजार अतिरिक्त पौधे लगाने की योजना है.

इसके अलावा महिलाएँ, पानी से प्लास्टिक हटाने और प्रदूषण को कम करने के लिये, नदियों के किनारे व आर्द्रभूमि में, सफ़ाई अभियान भी चलाती हैं.

संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान मिलने पर यूनेप की कार्यकारी निदेशक, इन्गेर ऐंडरसन ने पूर्णिमा के काम की सराहना करते हुए कहा, "पूर्णिमा देवी बर्मन के अग्रणी संरक्षण कार्य ने हज़ारों महिलाओं को सशक्त किया, उद्यमी बनाए और आजीविका में सुधार किया. डॉक्टर बर्मन के काम ने दिखाया है कि मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष को सभी के लाभ के लिये सुलझाया जा सकता है. आर्द्रभूमियों के नुक़सान का, उन प्रजातियों पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभाव को उजागर करके, जो उन पर भोजन व प्रजनन के लिये निर्भर हैं. वो हमें याद दिलाती हैं कि पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा एवं पुनर्स्थापना कितनी महत्वपूर्ण है.”

पूर्णिमा बर्मन का कहना है कि उनका सबसे बड़ा पुरस्कार है हरगिला सेना में पैदा हुई गर्व की भावना. उन्हें उम्मीद है कि उनकी सफलता, संरक्षणवादियों की अगली पीढ़ी को अपने सपनों को आगे बढ़ाने के लिये प्रेरित करेगी.

उन्होंने कहा, "एक पुरुष प्रधान समाज में संरक्षण कार्य में काम करने वाली महिला के लिये राह चुनौतीपूर्ण होती है. लेकिन हरगिला सेना ने दिखाया है कि किस तरह महिलाएँ बदलाव लाने में मदद दे सकती हैं."