भारत: किशोरवय लड़कियों के सशक्तिकरण से बदलाव की बयार
भारत में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA), अपने साझीदारों के साथ मिलकर, विभिन्न प्रदेशों में महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों के माध्यम से, युवाओं को शिक्षा के ज़रिये अपनी क्षमता का ऐहसास कराने और रूढ़िवादी सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध आवाज़ उठाकर, स्थानीय ग्रामीण समुदायों में बदलाव लाने के लिये प्रयास कर रहा है.
"मैं अपने परिवार और अपने पूरे गाँव में पहली छात्रा हूँ, जिसने स्नातकोत्तर तक शिक्षा हासिल की है.", गर्व से यह बताते हुए 22-वर्षीय बिनती की आँखों में चमक सी आ जाती है.
बिनती, ओडिशा के रायगढ़ ज़िले के पिण्डा गाँव की रहने वाली हैं. यहाँ के परिवारों के पास वित्तीय संसाधनों की कमी है और खेती ही उनके जीवन का मुख्य आधार है.
सीमित साधनों के बावजूद, शिक्षा के प्रबल समर्थक बिनती के पिता ने अपने बच्चों की शिक्षा पाने की आकांक्षाओं को पूरा किया.
अपने पिता से प्रेरित होकर, बिनती ने स्नातक की शिक्षा पूरी की, और कलिंग सामाजिक विज्ञान संस्थान से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री भी हासिल की.
वहीं उन्हें ‘मिशन उदय’ कार्यक्रम के बारे में मालूम हुआ, जोकि भारत में यूएनएफ़पीए और ‘रूरल इलैक्ट्रिफ़िकेशन कॉरपोरेशन’ (ग्रामीण विद्युतीकरम) पर केन्द्रित कार्यक्रम है.
इसके तहत, क्षमता निर्माण और परामर्श के ज़रिये, युवाओं को समुदाय में परिवर्तन लाने का साधन बनाकर, विकास पहल के केन्द्र में रखने की कोशिशें की जा रही हैं. इसमें स्थानीय युवाओं को नेतृत्व, सक्रिय नागरिकता और जीवन कौशल के गुर भी सिखाए जाते हैं.
बिनती बताती हैं, “मेरे पास सीखने के लिये बहुत कुछ था … मैंने सरकारी योजनाओं, ई-गवर्नेंस के बारे में समझा और संचार व सार्वजनिक मंच पर बोलने का कौशल भी सीखा. इसके अलावा, मेरे प्रशिक्षण ने मुझे बाल विवाह, लड़कियों के बीच में ही स्कूल छोड़ने और महिला निरक्षरता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान करने में मदद की.
नेतृत्व की सीढ़ियाँ
‘मिशन उदय’ के माध्यम से उन्हें जो प्रशिक्षण मिला, वह उनके नेतृत्व के सफ़र का आधार बन गया.
इस परियोजना के तहत, बिनती ने सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने के लिये ख़ुद को प्रेरित किया, जिससे वह लोगों के साथ सीधे सम्बन्ध स्थापित करने, समुदाय के साथ तालमेल बनाने और उनके साथ जुड़ने में सक्षम हुई.
उनके काम और समर्पण को पहचान मिली.
बिनती गर्व से बताती हैं, “मुझे आगामी पंचायत चुनावों में, सरपंच (पंचायत या ग्राम परिषद के प्रमुख) के पद के लिये चुनाव लड़ने हेतु नामित किया गया है. सेवा करने की मेरी यात्रा अभी शुरू ही हुई है.”
बिनती ने कहा, "मैं मिशन उदय टीम की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे ये कौशल सिखाया, मेरा ज्ञान बढ़ाया और सबसे महत्वपूर्ण, मुझे एक सामुदायिक नेतृत्वकर्ता के रूप में अपने करियर की कल्पना करने और उसे बनाने में मदद की."
नकारात्मक मानदण्डों के विरुद्ध आवाज़
ओडिशा की एक स्थानीय युवा कार्यकर्ता, 22-वर्षीय रीना अदकटिया बताती हैं, “लड़कियाँ और युवतियाँ अपनी माहवारी के समय अपने घरों के अन्धेरे कोनों में छिप जाती हैं… कभी-कभी, उन्हें परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बैठने और भोजन करने या स्वतन्त्र रूप से घूमने की भी अनुमति नहीं होती है.”
रीना अपने गाँव... और उसके बाहर किशोरियों व युवतियों के सामने आने वाली एक आम चुनौती के बारे में बताती हैं. माहवारी से जुड़ा कथित कलंक, उन्हें अपने समुदायों और स्कूलों में पूरी तरह से भाग लेने से रोकता है, यहाँ तक कि बहुत सी लड़कियाँ, माहवारी शुरु होने पर शिक्षा ही छोड़ देती हैं.
हालाँकि माहवारी की शुरुआत और स्कूल छोड़ने वालों के बीच सम्बन्ध होने को लेकर आँकड़े सीमित हैं, लेकिन ओडिशा के ग्रामीण इलाक़ों में केवल 37% महिलाएँ और लड़कियाँ ही प्राथमिक स्तर से ऊपर शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं.
यूएनएफ़पीए, कलिंग सामाजिक विज्ञान संस्थान और आरईसी फाउण्डेशन के साथ साझेदारी में ‘मिशन उदय’ के ज़रिये, समुदायों में व्याप्त हानिकारक सामाजिक रीतियों का सामना करने के लिये युवाओं के साथ काम कर रहा है.
रीना ने इस कार्यक्रम के आवासीय प्रशिक्षण में दाख़िला लिया जहाँ उन्हें यौन व प्रजनन स्वास्थ्य और माहवारी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता प्रबन्धन सहित अधिकारों पर शिक्षित किया गया.
अपने गाँव लौटने पर, रीना ने महसूस किया कि माहवारी से जुड़ी ये गहरी जड़ें, महिलाओं और लड़कियों के बीच प्रजनन स्वास्थ्य मुद्दों के लिये जिम्मेदार थीं, जिसमें उचित स्वच्छता प्रथाओं की कमी के कारण गम्भीर संक्रमण भी शामिल था.
सबसे पहले, उन्होंने बड़ी उम्र की उन महिलाओं को समझाया,जो अपने समुदाय में नियम निर्धारित करती हैं, और फिर अपने साथियों के बीच जागरूकता पैदा करके, माहवारी के दौरान उनके अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में उनकी मदद की.
लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं था...वह एक क़दम और आगे बढ़ीं.
उन्होंने सुगम, समझने में आसान सन्देश बनाने के लिये, शैक्षिक और चित्रमय संचार सामग्री विकसित की. सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की मदद से उन्होंने लड़कियों व महिलाओं के लिये अपनी यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सम्बन्धी चिन्ताओं के बारे में सलाह लेने के लिये सुरक्षित स्थान बनाए.
उन्हें जो प्रशिक्षण मिला है, उससे वह न केवल अपने समुदाय के लोगों की मानसिकता, बल्कि उनकी प्रथाओं को भी धीरे-धीरे बदल रही हैं.
क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव के संकेत साफ़ दिखाई देते हैं - लड़कियों और युवा महिलाओं को उनकी माहवारी के दौरान अलग-थलग करने की प्रथा कम हो गई है; लड़कियाँ माहवारी के समय कपड़े का इस्तेमाल छोड़कर, एकल प्रयोग के बाद फेंक दिये जाने वाले यानि डिस्पोज़ेबल सैनिटरी नैपकिन अपना रही हैं; बड़ी संख्या में भागीदारी से, यौन, प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों, व माहवारी स्वच्छता प्रबन्धन के विषयों पर चर्चा बढ़ रही है.
लैंगिक समानता की नींव
"मैंने किशोरवय लड़कियों के क्लब की जिन बैठकों में भाग लिया, उन्होंने मुझे शिक्षा के लिये अपना मार्ग तय करने और करियर को आकार देने में मदद की. मैं अब काम कर रही हूँ और अपने पैरों पर खड़ी हूँ."
19-वर्षीय प्रियंका, राजस्थान के सवाई माधोपुर ज़िले के देकवा गाँव के एक ग़रीब किसान परिवार से सम्बन्ध रखती हैं. यहाँ की 85.56 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय से है.
उनके माता-पिता खेतों पर मज़दूरी करते थे, इसलिये 2016 में प्रियंका को घर के काम व ज़िम्मेदारियाँ सम्भालने के लिये अचानक मिडिल स्कूल छोड़ना पड़ा था.
दुखी मन से प्रियंका बताती हैं, "मेरे सपने बिखर गए और मैं घर पर ही बंध कर रह गई."
लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी और वह अपनी शिक्षा आगे बढ़ाने के लिये दृढ़ रही.
फिर उन्हें किशोरियो के क्लब के बारे में पता चला, जो यूएनएफ़पीए के एकीकृत विकास कार्यक्रम के तहत एक अनूठा कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य लड़कियों के लिये अनुकूल ग्राम पंचायतें (जीएफजीपी) विकसित करना और लैंगिक भेदभाव का मुक़ाबला करने के लिये अनुकूल स्थान बनाना है.
उन्होंने सामाजिक, स्वास्थ्य और आर्थिक सम्पत्तियों के निर्माण के सत्रों में भाग लिया, जिसने उनकी आँखें खोल दीं और शिक्षा के लिये उनकी चाह और ख़ुद कमाने की राह पर चलने की इच्छा को बढ़ावा दिया.
अपनी शिक्षा जारी रखने के लिये, अपने माता-पिता को मनाने के लिये, उन्होंने क्लब की एक साथी (ग्राम पंचायत स्तर के कार्यकर्ता) की मदद ली और जल्द ही वापिस स्कूल में दाख़िला लिया. फिर लगन से पढ़ाई की और 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की.
लेकिन प्रियंका का सफ़र यहीं ख़त्म नहीं हुआ.
वह रोज़गारपरक काम करना चाहती थी, इसलिये रिटेल की शिक्षा पर एक सरकारी कौशल विकास पाठ्यक्रम में शामिल हो गई.
देकवा के स्कूल प्रधानाचार्य, कालूराम बैरवा कहते हैं, “महिलाओं और लड़कियों के सशक्तिकरण के लिये, CECOEDECON के साथ साझेदारी में UNFPA द्वारा किये जा रहे कार्यों का प्रभाव आज हमारे स्कूल में दिखाई दे रहा है… लड़कियों की नामांकन संख्या जो सिर्फ़ दो अंकों में थी, अब 360 पर पहुँच चुकी है! इसके अलावा, 29 लड़कियों को कौशल विकास पाठ्यक्रमों से भी जोड़ा गया है.”
आज प्रियंका राजस्थान की राजधानी जयपुर शहर में, एक बड़े स्टोर में काम करती हैं. वह आर्थिक रूप से स्वतन्त्र है, और अपने परिवार की मदद भी कर रही है. साथ ही, उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा भी जारी रखी है.
प्रियंका के पिता, कैलचन्द मीना कहते हैं, “ मेरी बेटी बड़े शहर में काम करती है...हमें उसकी सफलता पर बहुत गर्व महसूस होता है.”
प्रियंका अपने गाँव की युवतियों के लिये प्रेरणा का स्रोत बन गई हैं. वो भी अब कौशल विकास पाठ्यक्रम में भाग ले, अपना करियर बनाने में लगी हैं.