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‘कुष्ठ रोग के प्रभावितों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण क़ानून तुरन्त ख़त्म हों’

इथियोपिया के अदिस अबाबा में, कुष्ट रोग से प्रभावित एक दुकानदार, ग्राहकों के इन्तज़ार में.
ILO/Fiorente A.
इथियोपिया के अदिस अबाबा में, कुष्ट रोग से प्रभावित एक दुकानदार, ग्राहकों के इन्तज़ार में.

‘कुष्ठ रोग के प्रभावितों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण क़ानून तुरन्त ख़त्म हों’

मानवाधिकार

संयुक्त राष्ट्र की एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ऐलिस क्रूज़ ने कहा है कि दुनिया भर में 100 से भी ज़्यादा ऐसे क़ानून लागू हैं जो कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के विरुद्ध भेदभाव करते हैं और उन क़ानूनों को तात्कालिक ज़रूरत के साथ ख़त्म किया जाना चाहिये.

कुष्ठ रोग से प्रभावित व्यक्तियों व उनके परिवारों के ख़िलाफ़ भेदभाव के उन्मूलन पर विशेष रैपोर्टेयर ऐलिस क्रूज़ ने रविवार 30 जनवरी को, विश्व कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर कहा कि ये देखना शर्मनाक है कि सरकारें ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ क़ानून बनाना जारी रखे हुए हैं, जो मानवता की सबसे पुरानी बीमारियों में से एक – कुष्ठ रोग से प्रभावित हैं.

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उन्होंने कहा, “सभी सम्बद्ध देशों के सामने एक विकल्प चुनने का समय है: या तो कुष्ठ रोग से प्रभावित व्यक्तियों के विरुद्ध ऐसे भेदभावपूर्ण क़ानूनों को, अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन करते हुए बनाए रखें, या फिर ऐसे भेदभावपूर्ण क़ानून, बिना कोई देर किये, तुरन्त ख़त्म कर दें.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के ताज़ा आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020 में, 139 देशों में कुष्ठ रोग से प्रभावित मामलों की संख्या एक लाख, 27 हज़ार 558 थी. उससे पिछले वर्ष की तुलना में ये संख्या 37 प्रतिशत कम थी.

कुछ देशों में तो ये गिरावट 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा थी.

अलबत्ता, कोविड-19 महामारी के कारण, चूँकि जाँच पड़ताल और रिकॉर्ड रखे जाने के मामले प्रभावित हुए हैं तो, असल संख्या कहीं ज़्यादा भी हो सकती है.

कुष्ठ रोग का वैसे तो इलाज सम्भव है मगर शुरुआती स्तर पर पता लगाने और इलाज के अभाव में, ये बीमारी ऐसी शारीरिक क्षति और विकलांगता का भी कारण बन सकती है जिसे सही नहीं किया जा सकता.

भेदभावपूर्ण क़ानूनों का वजूद

भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार, देश में इस समय कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के ख़िलाफ़ भेद करने वाले 97 क़ानूनी प्रावधान हैं.

वैसे तो भारत में कुष्ठ रोग के सबसे ज़्यादा मामले हैं मगर भारत ऐसा एकमात्र देश नहीं है जहाँ कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के ख़िलाफ़ भेद करने वाले क़ानून मौजूद हैं. कम से कम 30 अन्य देशों में भी ऐसे ही भेदभावपूर्ण क़ानून मौजूद हैं.

ऐलिस क्रूज़ ने कहा कि ऐसे भेदभावपूर्ण क़ानून चाहे सक्रियता से लागू किये जाएँ या नहीं, फिर भी उनसे कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के मानवाधिकार हनन को वैधता और सामान्य समझे जाने के माहौल को उकसावा और बढ़ावा मिलता है, विशेष रूप से महिलाओं के ख़िलाफ़.

यूएन विशेषज्ञ ने कहा कि कुष्ठ रोग को आधार बनाकर तलाक़ की इजाज़त देने वाले क़ानून की मौजूदगी ही, महिलाओं पर विनाशकारी प्रभाव छोड़ती है, जिससे उन्हें स्वास्थ्य देखभाल और न्याय हासिल करने में बाधा खड़ी होती है.

ग़लत तरीक़े से क़ानून निर्माण

विशेष रैपोर्टेयर का कहना है कि इस तरह के भेदभावपूर्ण क़ानून बनाए जाने के ढाँचे की जड़, दरअसल पुराने समय में कुष्ठ रोग की ग़लत जाँच-पड़ताल की जड़ में समाहित है, जिसमें इस बीमारी को उच्च संक्रामक या छुआछूत वाला रोग बताया जाता था. 

जबकि आज के ज़माने में अनेक दवाओं पर आधारित इलाज से ये बीमारी, पूरी तरह ठीक हो सकती है और पिछले क़रीब 20 वर्षों के दौरान, एक करोड़ 60 लाख से ज़्यादा मरीज़ों का इलाज भी किया गया है.

ऐलिस क्रूज़ ने कहा, “चौंकाने वाली बात तो ये है कि 1950 के समय में कुष्ठ रोग का इलाज खोज लिये जाने के काफ़ी समय बाद भी, बहुत से भेदभावपूर्ण क़ानून बनाए गए, जो आज भी मौजूद हैं.”

“इनमें से कुछ क़ानून तो 21वीं सदी के पहले दशक के दौरान बनाए गए हैं... और ये क़ानून वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण सभी क्षेत्रों में मौजूद हैं.”

यूएन विशेषज्ञ ने तमाम देशों से आग्रह किया कि वो तमाम भेदभावपूर्ण क़ानूनों, नीतियों और परम्पराओं को तात्कालिक महत्व का मामला समझते हुए, ख़त्म कर दें या उनमें संशोधन कर दें, और भेदभाव के ख़िलाफ़ व्यापक क़ानून बनाएँ.

विशेष रैपोर्टेयर और स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों की नियुक्ति, जिनीवा स्थित मानवाधिकार परिषद करती है. इनका काम किसी विशेष मानवाधिकार स्थिति की जाँच-पड़ताल करके रिपोर्ट सौंपना होता है. ये पद मानद होते हैं और उनके कामकाज के लिये, संयुक्त राष्ट्र से उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता है.