भारत: अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को शिक्षा व कामकाज से जोड़ने का प्रयास
भारत में विश्व बैंक की मदद से ‘नई मंज़िल’ नामक एक कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत अल्पसंख्यक समुदाय के ऐसे युवाओं को, कौशल प्रशिक्षण के ज़रिये आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है जो शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. ‘नई मंज़िल’ योजना पर विश्व बैंक के शिक्षा विशेषज्ञ, मेघना शर्मा, प्रद्युम्न भट्टाचार्जी और मार्गुराइट क्लार्क का संयुक्त ब्लॉग...
समीना, भारत के पूर्वोत्तर प्रदेश मणिपुर में रहती हैं और वर्ष 2017 से एक सामुदायिक संगठक (Community mobilizer) के रूप में काम कर रही हैं.
अपने काम के लिये उन्हें अक्सर राज्य के पहाड़ी इलाक़ों के सुविधाहीन क्षेत्रों में जाना पड़ता है, ताकि स्कूल न जाने वाले अल्पसंख्यक युवाओं की, भारत सरकार के 'नई मंज़िल' कार्यक्रम (स्कूल न जा पाने वाले युवाओं के लिये शिक्षा व कौशल प्रशिक्षण) में भर्ती की जा सके.
एक कार्यकर्ता के रूप में, उनकी मुख्य भूमिका कार्यक्रम के लिये सही लाभार्थियों की पहचान करना और उन्हें इसकी उपयोगिता के बारे में समझाना एवं उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना है.
पंजाब प्रदेश में, युवा दिनेश, नवजोत और वन्दना, शिक्षा से वंचित सिख समुदाय के युवाओं को 'नई मंज़िल' कार्यक्रम में शामिल करने के लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं.
वो घरों में जाकर, उन्हें और उनके परिवारों को इस कार्यक्रम के फ़ायदों के बारे में बताते हैं, उनके माता-पिता को प्रेरित करते हैं और समुदाय के नेताओं को इससे जोड़ने की कोशिश करते हैं.
लेकिन यह सब आसान नहीं था. “अनेक बार ऐसा हुआ जब उनके परिवार हमसे बात तक नहीं करना चाहते थे. लेकिन हमने कभी हार नहीं मानी. समय के साथ, हमने उनका भरोसा जीता और वो योजना की अहमियत समझने लगे.”
दिनेश ने उन महिला लाभार्थियों की कहानियाँ गर्व से सुनाईं जो अब अपने आप धन कमा रही हैं और कार्यक्रम के माध्यम से रोज़गार पाने के बाद अपने माता-पिता की मदद कर पा रही हैं.
अब, उन्हें देखकर गांव के अन्य परिवार भी अपनी बच्चियों का नामांकन नई मंज़िल कार्यक्रम में करने के लिये प्रेरित होने लगे हैं. वह कहते हैं, ''नई मंज़िल से लड़कियाँ भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ रही हैं.'
'नई मंज़िल' (New Horizons) योजना, भारत सरकार का अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय चलाता है और विश्व बैंक ने इसके लिये पाँच करोड़ डॉलर का ऋण दिया है.
यह योजना स्कूल न जाने वाले युवाओं को एक प्रमाणित औपचारिक शिक्षा व कौशल प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती है.
नई मंज़िल कार्यक्रम, 26 प्रदेशों और 3 केन्द्र शासित प्रदेशों में चल रहा है और इसके ज़रिये अब तक 98 हज़ार से अधिक अल्पसंख्यक युवा, अपने शिक्षा और रोज़गार विकल्पों में बेहतरी का लाभ उठा चुके हैं.
सामुदायिक संगठकों की अहम भूमिका
इस कार्यक्रम की शुरुआत में ही महसूस किया गया था कि पारम्परिक संस्थानों के माध्यम से अल्पसंख्यक युवाओं को सीखने के अवसर प्रदान करना, उन्हें कार्यक्रम में शामिल करने के लिये पर्याप्त नहीं होगा.
बल्कि, पहले समुदाय का विश्वास हासिल करने की ज़रूरत है. यहीं पर सामुदायिक संगठकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई.
असम में, एक 'नई मंज़िल' प्रशिक्षण एजेंसी ने मुस्लिम समुदाय के युवाओं को इसमें शामिल करने के लिये बहुत संघर्ष किया, लेकिन फिर, दो स्थानीय सामुदायिक संगठकों - मुस्तफ़िसुल और हबीबुल्लाह - ने हालात बदल दिये.
दोनों युवक अपनी बाइक पर सवार होकर घर-घर जाते, परिवारों से मिलते और योग्य उम्मीदवारों की पहचान करते.
उन्होंने स्कूली शिक्षा छोड़ने वालों को खोजने और 'नई मंज़िल' योजना समझाने के लिये खेल के मैदानों और रिक्शा स्टैण्ड जैसे सार्वजनिक स्थानों का इस्तेमाल किया.
फ़ुटबॉल खेलते हुए, साथ चाय पीते हुए, बात-बात में ही युवाओं की सहजता से योजना के प्रति उत्सुकता बढ़ाकर, उन्हें कार्यक्रम से जोड़ा.
सही सामुदायिक संगठक ढूँढना भी महत्वपूर्ण था. सीखने की इच्छा, सकारात्मक दृष्टिकोण, स्थानीय भाषा का ज्ञान और समुदाय के साथ सम्बन्ध सबसे अधिक अहम थे.
इसके लिये थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने का कौशल भी ज़रूरी होता है ताकि संयोजक, कार्यक्रम से सम्बन्धित जानकारी को पढ़ कर समझा सकें.
सामुदायिक संगठकों ने विशेष रूप से छात्राओं के लिये पारिवारिक मानसिकता और परम्पराओं को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
एक बड़ी चुनौती
असम में हबीबुल्लाह की मुख्य चुनौती उन मुस्लिम परिवारों की महिला लाभार्थियों को जुटाना था जो लड़कियों को घर से बाहर जाने की अनुमति देने के मामले में, रूढ़िवादी विचारधारा रखते थे और केवल उनकी शादी करवाना चाहते थे.
कभी-कभी, वह माता-पिता को केन्द्र में बुलाते और प्रशिक्षकों से उनकी बात करवाते थे. उनका कहना है कि इस तरीक़े से कार्यक्रम में उनका विश्वास पैदा करने में मदद मिली.'
आज 'नई मंज़िल' की सफलता के पीछे 300 से ज्यादा संगठकों का योगदान है. बहुत से लोग संगठक की भूमिका से आगे निकल गए हैं, और अब छात्रों और अभिभावकों को सलाह देने का काम कर रहे हैं.
अगर प्रशिक्षण के दौरान या रोज़गार के शुरुआती चरणों में उन्हें कठिनाइयाँ पेश आती हैं तो वो उनकी मदद करते हैं. संगठकों ने उन लाभार्थियों को भी सहायता प्रदान की, जिनका कोविड-19 महामारी के दौरान रोज़गार ख़त्म हो गया था. इससे उन्हें वैकल्पिक अवसर खोजने में मदद मिली.
मुस्तफ़िसुल का कहना है कि जब वह स्वयं पर, समुदाय के विश्वास को देखते हैं और जब उनकी माँ उनके काम पर गर्व महसूस करती हैं, तो उन्हें लगता है कि मानो "उनके सपने पूरे हो गए हैं."
कार्यक्रम की सफलता पर समीना कहती हैं, ''नई मंज़िल ने अल्पसंख्यक युवाओं की आँखें खोल दी हैं. अनेक छात्र अब कॉलेज में हैं, कई अब दिल्ली में नर्सिंग की पढ़ाई कर रहे हैं, कुछ मैनेजमेंट की ट्रेनिंग ले रहे हैं, वहीं कई का अपना कढ़ाई का कारोबार है."
"मेरे पास व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं हैं! मैं आज लोगों से इतनी सराहना पाकर अभिभूत हूँ."
यह लेख पहले यहाँ प्रकाशित हुआ.