
कॉप26: आदिवासी जन, प्रदर्शन और 'प्रकृति पर युद्ध समाप्ति' की पुकार
दुनिया भर के अनेक शहरों में लाखों लोगों ने ज़्यादा बड़ी व त्वरित जलवायु कार्रवाई की मांग करते हुए, प्रदर्शन किये हैं, तो वहीं, यूएन जलवायु सम्मेलन कॉप26 में शिरकत करने वाले कुछ देशों ने, प्रकृति पर आधारित समाधानों में और ज़्यादा संसाधन निवेश करने, व कृषि के ज़्यादा हरित तरीक़े अपनाए जाने की प्रतिज्ञाएँ व्यक्त की हैं.
शनिवार को कॉप26 ने अपना आधा सफ़र तय कर लिया और इस दिन, लातीन अमेरिकी शब्द - “पंचामामा” यानि माँ-प्रकृति के मुद्दे पर ख़ास ध्यान रहा.
इसमें कोई शक नहीं है कि प्रकृति, हमारे वजूद व जीवन के लिये बहुत महत्वपूर्ण है: प्रकृति हमें ऑक्सीजन मुहैया कराती है जिसकी हमें, साँस लेने यानि जीवित रहने के लिये ज़रूरत होती है, मौसम के मिज़ाज को सन्तुलित रखती है, सारी जीवित चीज़ों को भोजन व पानी की आपूर्ति करती है, और अनगिनत जीवों को पर्यावास मुहैया कराती है.
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार, मानवीय गतिविधियों ने, पृथ्वी की सतह के लगभग 75 प्रतिशत हिस्से में बाधाएँ उत्पन्न की हैं और लगभग 10 लाख पशुओं व पौधों की प्रजातियों को जोखिम की सूची में डाल दिया है.
यूएन पर्यावरण एजेंसी के अनुसार, इनसानों ने प्राकृतिक संसाधनों का ज़रूरत से ज़्यादा दोहन किया है, खेतीबाड़ी व मवेशी उद्योग के लिये, जंगल और वन काटकर ज़मीन हासिल की है. अब चूँकि जलवायु परिवर्तन उस प्रक्रिया को अभूतपूर्व तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है, जिससे भूक्षरण और वनों का अभाव बढ़ रहा है.

संयुक्त राष्ट्र के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन – यूनेस्को के अनुसार, समुद्र व सागर प्रदूषित हो गए हैं, जोकि इनसानी गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाले कार्बन उत्सर्जनों का लगभग एक तिहाई हिस्सा जज़्ब करते हैं. इसका मतलब ये है कि अब समुद्र व सागर भी, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की स्थिति में, राहत देने वाले स्थान होने की योग्यता खोते जा रहे है.
जैसाकि यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेश हाल के महीनों में, अनेक बार कह चुके हैं कि ये स्पष्ट है कि मानवता ने “प्रकृति पर युद्ध छेड़ रखा है”, और उन्होंने कहीं ज़्यादा व व्यापक कार्रवाई का आग्रह किया है.
यूनेप की कार्यकारी निदेशक इन्गेर एण्डर्सन ने शनिवार को, कॉप26 के दौरान, यूएन न्यूज़ से कहा, “हम प्रकृति को एक कोने में धकेलना जारी नहीं रख सकते और इससे अच्छा बने रहने की उम्मीद नहीं कर सकते. हम चाहते हैं कि प्रकृति, हमारी बेहतरी की ख़ातिर, कार्बन उत्सर्जन को सोख़ती रहे, भीषण तूफ़ानों की स्थिति में हमारे लिये सहारा बने, और दुनिया के लिये फेफड़ों का काम करती रहे.”
“मगर जब हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हैं तो प्रकृति हमसे उसकी लागत या क़ीमत वसूलने के लिये, ज़्यादा घातकता वाले तूफ़ान, ज़्यादा अग्नियाँ, ज़्यादा गर्मी और लू व सूखे के रूप में अपने बिल पेश करती है.”
प्रकृति आधारित समाधानों की पुकार
इन्गेर एण्डर्सन ने एक उच्च स्तरीय बैठक में कहा कि जैव विविधता व पारिस्थितिक तंत्रों को हो रहे नुक़सानों की चुनौती का सामना किये बिना, जलवायु परिवर्तन के समाधान नहीं तलाश किये जा सकते हैं.
उन्होंने प्रकृति को बहाल करने और जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिये समाधान तलाश करने की ख़ातिर, एकजुटता व सहयोग की पुकार लगाई.

उन्होंने कहा, “जिस सामाजिक-आर्थिक बदलाव की हमें ज़रूरत है, वो तभी हो सकेगा जब हम प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों की समीक्षा करें, ये समझें कि हम ऐसी किसी भी गतिविधि में और ज़्यादा संसाधन निवेश नहीं कर सकते, जिनसे हमारे ग्रह को नुक़सान पहुँचता हो.”
यूएन पर्यावरण एजेंसी की मुखिया ने यूएन न्यूज़ के साथ बातचीत में कहा कि अब जबकि देश, कोविड-19 महामारी से उबरने के प्रयासों में व्यस्त हैं, तो जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़, प्रकृति आधारित समाधानों के लिये काफ़ी ज़्यादा दिलचस्पी और ज़ोर देखे गए हैं.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “प्रकृति किस तरह हमारी मदद कर सकती है, और हम किस तरह प्रकृति की मदद कर सकते हैं... दो अरब हैक्टेयर भूमि बेकार पड़ी हुई है और हम सभी को अपना पेट भरने के लिये खाद्य सामग्री की ज़रूरत है. तो सवाल ये है कि क्या हम जंगलों व वनों की कटाई करके उनका दायरा कम करते रहेंगे, या फिर बेकार बड़ी भूमि को बहाल करके कारगर बनाएंगे.”
प्रकृति के मूल रक्षकों की हिफ़ाज़त
प्रकृति को किस तरह सहेजकर रखा जाए और किस तरह उसका संरक्षण किया जाए, ये दुनिया भर के आदिवासी जन, शायद सबसे बेहतर जानते हैं. ये आदिवासी जन, इस सप्ताह ग्लासगो में कॉप सम्मेलन स्थल पर भी बहुत सक्रिय रहे हैं – हर सम्भव तरीक़े से, जलवायु वार्ताओं में अपनी बात पहुँचाने और उन्हें प्रभावित करने के लिये. इनमें उनके सड़क प्रदर्शन भी शामिल हैं.
एक कार्यकर्ता, एलॉय तेरेना ने यूएन न्यूज़ से कहा, “आदिवासी संस्कृति हमें, नदियों, झीलों, पेड़-पौधों, जानवरों और वहाँ रहने वाले सभी जीवों का सम्मान करना सिखाती है. आप आदिवासी लोगों को शामिल किये बिना और उनके इलाक़ों का संरक्षण किये बिना, जलवायु संकट का समाधान तलाश नहीं कर सकते.”
यूएन न्यूज़ ने कॉप26 में ही, आदिवासी लोगों के लिये संयुक्त राष्ट्र की पूर्व रैपोर्टेयर विक्टोरिया ताउली-कॉर्पूज़ से भी सम्पर्क किया तो उन्होंने ध्यान दिलाया कि आदिवासी जन, दरअसल, प्रकृति के साथ सदभाव के साथ जीवन जीने में माहिर और विशेषज्ञ हैं. यही बुनियादी कारण है कि आदिवासियों के इलाक़ों में अब भी विश्व की 80 प्रतिशत जैव विविधता क़ायम है.
उन्होंने कहा, “हम, खाद्य सुरक्षा, जल, जलवायु परिवर्तन और अन्य तरह की ज़रूरतों व सेवाओं सम्बन्धी समस्याएँ सुलझाने के लिये, प्रकृति का प्रयोग करते हैं. और हमने ये इस तरह किया है जिससे प्रकृति को कोई नुक़सान ना पहुँचे.”

“इसलिये, हम, अपना दबदबा क़ायम करने वाली दुनिया के साथ, बहुत सी जानकारी और ज्ञान साझा कर सकते हैं, और सरकारों द्वारा, हमें अपने इलाक़ों की रक्षा व संरक्षण करने के लिये, हमारा आपराधिकरण किये जाने को रोकने में, हमें मदद की ज़रूरत है.”
अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरणीय कार्यकर्ता विक्टोरिया ताउली-कॉर्पूज़ ने कहा कि आदिवासी समुदायों के पास, प्रकृति के संरक्षण के लिये, कड़े क़ानून व परम्पराएँ हैं, जबकि देशों की सरकारों के पास विरोधाभासी क़ानून हैं.
उन्होंने कहा, “उदाहरण के लिये, फ़िलीपीन्स में एक आदिवासी अधिकार क़ानून प्रचलित है , मगर साथ ही, एक खदान क़ानून व एक निवेश समझौता है जो, हमारे संसाधनों का दोहन करने की अनुमति देते हैं.”
इस बीच, कॉप26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने शनिवार को बताया कि इस सप्ताह के आरम्भ में प्रस्तुत किये गए ग्लासगो वन घोषणा-पत्र पर अभी तक 130 देश दस्तख़त कर चुके हैं.
उन्होंने कॉप26 में जारी चर्चाओं और वार्ताओं के बारे में पत्रकारों को जानकारी देते हुए बताया कि अभी तक लिंग, कृषि, और राष्ट्रीय अनुकूलन जैसे मुद्दों पर अनेक समझौते हुए हैं.