'लिंगभेद और स्त्री-द्वेष' में वृद्धि; महिलाओं की आज़ादी का दमन

संयुक्त राष्ट्र की एक स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने यूएन महासभा को बताया है कि महिलाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन या उस पर नियंत्रण बढ़ाने के लिये लिंग आधारित हिंसा, अभद्र भाषा और दुष्प्रचार का व्यापक रूप से, ऑनलाइन व ऑफलाइन प्रयोग किया जा रहा है.
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये विशेष रैपोर्टेयेर (Special Rapporteur on protecting freedom of opinion and expression), इरीन ख़ान ने लैंगिक न्याय और स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर, सोमवार को अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि "महिलाओं की आवाज़ को इरादतन क़ानूनों, नीतियों एवं भेदभावपूर्ण प्रथाओं के ज़रिये, और छिपे हुए सामाजिक व्यवहार, सांस्कृतिक मानदण्डों व पितृसत्तात्मक मूल्यों के ज़रिये निहित रूप से दबाया, नियंत्रित या दण्डित किया जा रहा है.”
Gender equality in freedom of expression remains a distant goal, as gender-based violence, hate speech & disinformation are used to silence women online & offline, warns UN expert @Irenekhan. She calls on States to remove the gender digital divide: https://t.co/uerj5YBqdk#UNGA76 pic.twitter.com/J3roQAKh0H
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संयुक्त राष्ट्र की विशेषज्ञ के अनुसार, चूँकि देश महिलाओं के समान अधिकारों का सम्मान करने और उनकी रक्षा करने में विफल होते जा रहे हैं, लैंगिक पाबन्दियाँ और नियंत्रण इतने व्यापक हो गए हैं कि महिलाओं के लिये, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से सम्बन्धित समानता हासिल करना एक दूर का लक्ष्य बन गया है.
उन्होंने कहा, "लैंगिक पाबन्दियों में प्रमुख कारक 'लिंगभेद और स्त्री-द्वेष', दुनिया में लोकलुभावन, सत्तावादी और कट्टरपंथी ताक़तों के उदय से बढ़े हैं."
कुछ देशों में, युवा महिलाओं और भिन्न-लैंगिकता (non-conforming) वाले लोगों को कट्टरपंथियों के हाथों प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है और, सरकारों द्वारा 'सार्वजनिक नैतिकता' की रक्षा करने की आड़ में, उन पर तरह-तरह की पाबन्दियाँ लगाने के साथ-साथ, उनका अपराधीकरण किया जा रहा है.
इरीन ख़ान ने कहा, "ऐसी कार्रवाई न केवल पितृसत्तात्मक है, बल्कि स्त्री-द्वेष का घिनौना रूप है."
संयुक्त राष्ट्र की विशेष रैपोर्टेयेर ने कहा कि महिला पत्रकारों, राजनेत्रियों, मानवाधिकार पैरोकारों और नारीवादी कार्यकर्ताओं को नफ़रत भरे, समन्वित ऑनलाइन हमलों और धमकियों के ज़रिये निशाना बनाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य, उन्हें सोशल मीडिया मंचों और सार्वजनिक जीवन से बाहर करना है.
इससे मानव अधिकारों, मीडिया विविधता और समावेशी लोकतंत्र कमज़ोर होने के सन्दर्भ में, उन्होंने देशों व सोशल मीडिया कम्पनियों से डिजिटल परिदृश्य को, अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनी ढाँचे के भीतर, सभी महिलाओं और लिंग अ - परिभाषित लोगों के लिये, , तत्काल व निर्णायक रूप से सुरक्षित बनाने का आहवान किया.
इरीन ख़ान ने तर्क देते हुए कहा,"महिलाओं के हिंसा से मुक्त होने के अधिकार और विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता",
"देशों को, ऑनलाइन लिंग-आधारित हिंसा, अभद्र भाषा और दुष्प्रचार से निपटने के बहाने अन्तरराष्ट्रीय क़ानून के बाहर जाकर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबन्धित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये."
उन्होंने सरकारों से आग्रह किया कि वो महिलाओं के सूचना के अधिकार के लिये, लैंगिक व प्रजनन स्वास्थ्य एवं अधिकारों सहित, लैंगिक डिजिटल विभाजन, लिंग डेटा में अन्तर समेत सभी बाधाओं को दूर करें.
विशेष रैपोर्टेयेर ने कहा, "केवल एक विभाजन नहीं है, बल्कि अनेक विभाजन हैं, जिन्हें दूर करना होगा."
कोविड-19 महामारी ने, कार्रवाई तेज़ करने के लिये एक अतिरिक्त अनिवार्यता पैदा कर दी है.
उन्होंने कहा, "अगर महिलाओं को अपना खोया हुआ धरातल फिर से हासिल करना है, अगर देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करना है और अगर सरकारों को जनता का विश्वास हासिल करना है, तो महिलाओं की राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समान अधिकार, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय एजेण्डे में सबसे आगे व उसके केन्द्र में होना चाहिये."
उन्होंने कहा कि लैंगिक न्याय के लिये "न केवल महिलाओं की राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ग़ैरक़ानूनी हस्तक्षेप का अन्त" करने की आवश्यकता है, बल्कि एक सक्षम माहौल बनाना भी ज़रूरी है, जिसमें महिलाएँ "अपने साधनों का उपयोग कर सकें और राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक व आर्थिक जीवन में पूर्ण, समान व सुरक्षित रूप से भाग ले सके."
विशेष रैपोर्टेयर
इरीन ख़ान को, जिनीवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने, 17 जुलाई 2020 को विशेष रैपोर्टेयर नियुक्त किया था. इरीन ख़ान, 1993 में यह पद सृजित करने का शासनादेश जारी होने के बाद से, यह पद सम्भालने वाली पहली महिला हैं.
उन्हें और सभी विशेष रैपोर्टेयेरों को एक विशिष्ट मानवाधिकार विषय, या किसी देश की स्थिति की जाँच करके, उस पर रिपोर्ट सौंपनी होती है.
ये पद मानद हैं, और ये विशेषज्ञ न तो संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी हैं, न ही इस काम के लिये उन्हें संयुक्त राष्ट्र से कोई वेतन मिलता है.