जातीय समूहों के बीच असमानताएँ चरम पर - यूएन रिपोर्ट

संयुक्त राष्ट्र और उसकी साझीदार एजेंसियों की, गुरुवार को जारी एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि अनेक देशों में, तथाकथित बहुआयामी ग़रीबी से प्रभावित जातीय समूहों के बीच, ना केवल बहुत अधिक असमानताएँ व्याप्त हैं, बल्कि ये लम्बे समय से लगातार बनी हुई हैं.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय की निर्धनता व मानव विकास पहल (Oxford Poverty and Human Development Initiative) के इस वैश्विक बहुआयामी निर्धनता सूचकांक (एमपीआई) में यह निष्कर्ष भी सामने आया है कि जिन नौ विशिष्ट जातीय समूहों में ये सर्वेक्षण कराए गए, उनकी 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ग़रीबी के दलदल में फँसी है.
कुछ मामलों में, एक ही देश के भीतर जातीय और नस्लीय समूहों में असमानताएँ, विभिन्न क्षेत्रों में असमानताओं की तुलना में अधिक हैं. इनके अलावा, सभी 109 देशों में जातिगत सूचकांक में असमानता, अन्य सभी घटकों की तुलना में अधिक थी.
सूचकांक में विभिन्न संकेतकों का उपयोग करके निर्धनता मापन किया गया है, जिसमें आय के अलावा, ख़राब स्वास्थ्य, अपर्याप्त शिक्षा और निम्न जीवन स्तर शामिल हैं.
यह शोध 109 देशों में, पाँच अरब 90 करोड़ लोगों पर आधारित है, जो 41 देशों के जातीय/नस्लीय/जातिगत ख़ाका पेश करता है.
रिपोर्ट के मुताबिक़, एक देश के भीतर भी, विभिन्न जातीय समूहों के बीच बहुआयामी निर्धनता का स्वरूप बहुत भिन्न हो सकता है.
उदाहरण के लिये, लातिन अमेरिका में, आदिवासी लोग (Indigenous people) सबसे ज़्यादा निर्धन हैं.
बोलीविया में, आदिवासी समुदायों की आबादी लगभग 44 प्रतिशत है, लेकिन वो बहुआयामी ग़रीबी से प्रभावित लोगों का 75 प्रतिशत हिस्सा है.
यूएनडीपी के अनुसार, भारत के लिये भी ये आँकड़े चौंकाने वाले हैं, जहाँ ग़रीबी के शिकार, हर छह में से पाँच लोग कथित रूप से निम्न जातियों या जनजातियों से थे.
इस समस्या के समाधान के लिये रिपोर्ट में गाम्बिया में दो सबसे ग़रीब जातीय समूहों का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि हालाँकि सूचकांक में उनका लगभग समान स्थान है, लेकिन उनकी समस्याएँ व अभाव अलग-अलग हैं.
इसलिये उनके मामले में प्रभावी समाधान खोजने के लिये भिन्न-भिन्न नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता पड़ेगी.
रिपोर्ट में, लैंगिक असमानता पर ध्यान केन्द्रित करते हुए स्पष्ट किया गया है कि दुनिया भर में बहुआयामी ग़रीबी का शिकार लगभग दो-तिहाई लोग, यानि कुल 83 करोड़ 60 लाख लोगों के घरों की किसी भी महिला या लड़की ने, कम से कम छह साल की स्कूली शिक्षा हासिल नहीं की है.
इसके अलावा, इन हालात में रह रहे सभी लोगों का छठा हिस्सा, यानि लगभग 21 करोड़ 50 लाख लोगों के घरों में, कम से कम एक लड़के या पुरुष ने स्कूली शिक्षा के छह या अधिक वर्ष तो पूरे कर लिये हैं, लेकिन कोई लड़की या महिला ऐसा नहीं कर सकी है.
रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकलकर आया है कि इन महिलाओं और लड़कियों को अपने अंतरंग साथी द्वारा हिंसा का शिकार होने का ख़तरा अधिक होता है.
जिन 109 देशों में ये अध्ययन किया गया है, उनमें कुल एक अरब 30 करोड़ लोग बहुआयामी ग़रीबी का शिकार थे.
उनमें से लगभग आधे यानि 64 करोड़ 40 लाख, 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे हैं; और लगभग 85 प्रतिशत लोग सब - सहारा अफ़्रीका या दक्षिण एशिया में रहते हैं. वहीं, इनमें से 67 प्रतिशत से अधिक, मध्यम आय वाले देशों के निवासी हैं.
इन सभी के लिये, बहुआयामी ग़रीबी की स्थिति में रहने का मतलब बहुत भिन्न हो सकता है.
उदाहरण के लिये, लगभग एक अरब लोगों को खाना पकाने के ईंधन के कारण स्वास्थ्य जोखिम हैं, वहीं अन्य एक अरब लोग, अपर्याप्त स्वच्छता के बीच रहते हैं, और एक अरब अन्य लोगों के आवास स्थान घटिया स्तर के हैं.
इसके अलावा, 78 करोड़ 80 लाख लोगों के घरों में कम से कम एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है, और लगभग 56 करोड़ 80 लाख लोगों के पास, 30 मिनट तक की पैदल दूरी तक स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है.
यूएनडीपी के प्रशासक, एखिम श्टाइनर ने कहा कि "इसकी पूर्ण तस्वीर सामने आनी ज़रूरी है कि लोग ग़रीबी से कैसे प्रभावित हो रहे हैं, और वो कौन हैं व कहाँ रहते हैं."
एखिम श्टाइनर ने कोविड-19 महामारी के कारकों पर भी प्रकाश डालते हुए कहा कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय "इसके पूर्ण प्रभावों को समझने के लिये, अभी भी संघर्ष कर रहा है."
हालाँकि बहुआयामी ग़रीबी उच्च स्तर पर बनी हुई है, फिर भी महामारी की शुरुआत होने से पहले, कुछ देशों में प्रगति के संकेत थे.
जिन 80 देशों और पाँच अरब लोगों के बारे में आँकड़े उपलब्ध थे, उनमें से लगभग 70 देश, कम से कम एक अवधि के लिये अपने बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक में कमी लाए थे. सबसे तेज़ी से बदलाव सियेरा लियोन और टोगो में हुआ.
ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में ओपीएचआई की निदेशक, सबीना अलकिरे ने प्रगति के रास्ते में बाधा डालने वाली संरचनात्मक असमानताओं को ठीक करने की आवश्यकता पर बल दिया.
उनका मानना है कि जातीयता, नस्ल, जाति और लिंग के आधार पर बहुआयामी ग़रीबी के आँकड़े अलग करने से "असमानताएँ उजागर होती हैं और नीति निर्माताओं को 'कार्रवाई के अन्तिम दशक' में, ‘किसी को पीछे न छोड़ देने’ के लिये, कार्रवाई करने के लिये एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक मिलता है."