भारत: एक लाख लोगों को उनके घरों से जबरन बेदख़ल ना किये जाने का आग्रह

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भारत में, बरसात के मौसम के दौरान लगभग एक लाख लोगों को उनके घरों से बेदख़ल किये जाने की प्रक्रिया को रोकने का आग्रह किया है. बेघर होने का जोखिम झेल रहे इन लोगों में बीस हज़ार बच्चे भी हैं.
ख़बरों के अनुसार बुधवार, भारत के हरियाणा प्रदेश के फ़रीदाबाद ज़िले के खोरी गाँव में संरक्षित वन भूमि पर मौजूद अनेक घरों को ध्वस्त किये जाने का काम 14 जुलाई को शुरू किया गया.
🇮🇳 UN experts call on #India to halt evictions of some 100,000 people that began this week in midst of monsoon rains. India must urgently review its plans for razing #KhoriGaon & consider regularizing the settlement so as not to leave anyone homeless.👉 https://t.co/RvoBRrCiMZ pic.twitter.com/btHeAeE10Z
UN_SPExperts
यह वन 1992 से संरक्षित क्षेत्र है, मगर दशकों पहले भारी खनन की वजह से वन भूमि पहले ही बर्बाद हो चुकी है.
आवास के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर बालाकृष्ण राजागोपाल और चरम ग़रीबी पर विशेष रैपोर्टेयर ओलिविए डी शुटर सहित यूएन के अन्य स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने शुक्रवार को एक संयुक्त बयान जारी करके, उन लगभग एक लाख लोगों के घरों को ध्वस्त नहीं करने का अनुरोध किया है, जो मुख्यत: अल्पसंख्यक और हाशिये पर रह रहे समुदायों से हैं.
“हम भारत सरकार से अपने ही क़ानूनों और 2022 तक आवासहीनता के उन्मूलन के अपने लक्ष्य का सम्मान करने की अपील करते हैं.”
“यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि निवासियों को महामारी के दौरान सुरक्षित रखा जाए.”
विशेष रैपोर्टेयर ने आगाह किया कि कोविड-19 महामारी के दौरान, यहाँ के निवासियों को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है.
इस पृष्ठभूमि में, उन्हें उनके घरों से बेदख़ल किये जाने के कारण, जोखिम और बढ़ेगा; और 20 हज़ार बच्चों के लिये भी नई समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं, जिनमें से अधिकतर स्कूल के दायरे से बाहर हैं.
साथ ही प्रभावितों में, पाँच हज़ार गर्भवती व स्तनपान करा रही महिलाएँ भी हैं.
इससे पहले, सितम्बर 2020 और अप्रैल 2021 में दो बार इन घरों को ध्वस्त करने का अभियान चलाया जा चुका है, और तब दो हज़ार घर गिराए गए थे.
इस क्षेत्र के निवासियों ने बेदख़ल किये जाने से रोकने के लिये, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, मगर सर्वोच्च अदालत ने पिछले महीने दिये अपने निर्णय में, 19 जुलाई तक इस बस्ती के पूर्ण उन्मूलन के आदेश दिये हैं.
मानवाधिकार विशेषज्ञों ने कहा, “हमारे लिये यह बेहद चिन्ताजनक है कि अतीत में आवास अधिकारों की रक्षा की अगुवाई करने वाले भारत के उच्चतम न्यायालय, अब बेदख़ली की अगुवाई कर रहा है, जिससे लोगों पर आन्तरिक विस्थापन और यहाँ तक कि आवासहीनता का जोखिम है, जैसा कि खोरी गाँव में मामला है.”
यूएन विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क़ानूनों को सर्वोपरि रखना और अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त मानवाधिकार मानकों के प्रकाश में उनकी व्याख्या करना है, ना कि उन्हें कमज़ोर बनाना.
उनके मुताबिक़ इस मामले में, भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 की मूल भावना व उद्देश्य और अन्य क़ानूनी अहर्ताएँ पूरी नहीं की गई हैं.
इस इलाक़े में बिजली व जल आपूर्ति कई हफ़्ते पहले रोक दिये गए थे. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और निवासियों ने विरोध में प्रदर्शन किये हैं और उस दौरान लोगों की पिटाई व उन्हें मनमाने ढंग से हिरासत में लिये जाने के आरोप लगे हैं.
मानवाधिकार विशेषज्ञों ने ज़ोर देकर कहा है कि यह सुनिश्चित करना होगा कि वैश्विक महामारी के दौरान सामूहिक स्तर पर घरों से बेदख़ली की इस कार्रवाई को आगे ना बढ़ाया जाए.
“पर्याप्त व सामयिक मुआवज़े और निवारण के बिना किसी को भी जबरन घर से नहीं निकाला जाना चाहिये.”
उन्होंने कहा कि भारत, वर्तमान में मानवाधिकार परिषद का सदस्य देश है और उसे यह सुनिश्चित करना होका कि नीतियाँ व परिपाटियाँ, अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों पर खरी उतरती हों.
स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतन्त्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतन्त्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिये कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतन्त्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.