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भारत: कठिन घड़ी में मेज़बान समुदाय की मदद का जज़्बा

ग़फ़्फ़ार दाराबियान के ग्राहक, उनके लिये उनके परिवार के सदस्यों की तरह हैं.
©UNHCR/Anurag Banerjee
ग़फ़्फ़ार दाराबियान के ग्राहक, उनके लिये उनके परिवार के सदस्यों की तरह हैं.

भारत: कठिन घड़ी में मेज़बान समुदाय की मदद का जज़्बा

प्रवासी और शरणार्थी

ग़फ़्फ़ार दाराबियान मूलत: ईरान से हैं, मगर वर्ष 1994 में उन्हें देश छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ा जिसके बाद उन्होंने भारत के पुणे शहर में शरण ली. भारत में कोरोनावायरस संकट के दौरान, ग़फ़्फ़ार आगे बढ़कर ज़रूरतमन्दों को सहारा दे रहे हैं.

उनका मानना है कि अगर लोग ये समझ जाएँ कि शरणार्थी भी मेज़बान समाज में अहम योगदान दे सकते हैं, तो वे उन्हें खुले दिल से स्वीकार कर सकेंगे. ग़फ़्फ़ार ने भारत में अपने अब तक के सफ़र को साझा किया है...

“मैं एक कार मैकेनिक हूँ. इस काम में एक दिन आपकी कमाई अच्छी होती है, और अगले दिन कुछ भी नहीं. यहाँ भारत में, कोविड-19 महामारी हमें बुरी तरह प्रभावित कर रही है. मेरा गैराज हफ़्तों से बन्द है, इसलिये फ़िलहाल मेरी आमदनी कुछ भी नहीं है.

लेकिन कुछ लोग मुझसे भी कहीं अधिक कठिन स्थिति में रह रहे हैं. बहुत से लोगों ने अपने प्रियजनों और अपनी आजीविका को खो दिया है.

पिछले एक साल में तालाबन्दी और पाबन्दियों के बावजूद, मैं कभी-कभी घर से ही, छोटे-मोटे कार-मरम्मत के काम कर लेता हूँ. ग्राहक मेरे घर ही आ जाते हैं और मैं पार्किंग में ही उनके वाहनों की मरम्मत कर देता हूँ.

मैं 1994 में पुणे आया था. जब मैं ईरान से भागकर यहाँ आया, तो मुझे बहुत आज़ादी का एहसास हुआ और बड़े मिलनसार लोग मिले.

कई लोगों ने, विशेषकर पारसी समुदाय ने, घर बसाने और नौकरी पाने में मेरी बहुत मदद की. यही कारण है कि मेरा विश्वास पुख़्ता हुआ कि हमें हमेशा ज़रूरत के समय दूसरों की मदद करनी चाहिए.

एक शरणार्थी के रूप में, मेरा मानना है कि जब आप कहीं जाते हैं और वहाँ समाज के लिये उपयोगी योगदान दे सकते हैं, तो आपको वो करना चाहिए. हमें महज़ लेना ही नहीं, देना भी आना चाहिए.

ग़फ़्फ़ार दाराबियान, भारत के पुणे शहर में कार गैराज सम्भालते हैं.
©UNHCR/Anurag Banerjee

मेरे भाग्य ने यहाँ मेरा साथ दिया है, इसलिये जहाँ तक सम्भव हो, मैं दूसरों की मदद करने की कोशिश करता हूँ. मैं अपने दोस्तों और परिचितों से पूछता हूँ कि क्या वे ऐसे किसी व्यक्ति को जानते हैं, जिसके घर में भोजन नहीं है.

ये वो लोग हैं जो कुछ भी नहीं कमा पा रहे हैं. फिर मैं उनसे सीधे सम्पर्क करता हूँ, क्योंकि बहुत से लोग मदद माँगना पसन्द नहीं करते.

मैं उनके घर जाता हूँ और उन्हें चावल, चीनी, तेल, गेहूँ और चाय जैसे खाद्य सामग्री देता हूँ, ताकि वो गुज़ारा चला सकें. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे कौन हैं, या उनकी राष्ट्रीयता क्या है - हमें मानवता के नाते उनकी मदद करनी होगी.

इससे मुझे मेरे काम में भी प्रेरणा मिलती है. मैंने ईरान में विश्वविद्यालय से ऑटोमोबाइल इन्जीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की है.

मैं एक मैकेनिक हूँ, मगर पहले मैं एक इनसान हूँ. जब मैं अपने ग्राहकों से बात करता हूँ और उनकी कारों को ठीक करता हूँ, तो अपनी पूरी क्षमता के अनुसार - उनके दोस्त की तरह, उनके परिवार के सदस्य की तरह.

मैं उनसे कहता हूँ: “मैं आपके और आपके परिवार के बारे में सोचता हूँ - अगर कार ख़राब होकर क्षतिग्रस्त हो जाती है, और आपके परिवार को चोट लगती है, तो हम उसे कैसे ठीक कर सकते हैं?”

और वे मुझसे कहते हैं: "कोई भी दूसरा मैकेनिक हमसे इस तरह बात नहीं करता." मुझे गर्व है कि मेरे 95 फ़ीसदी ग्राहक आख़िरकार मेरे मित्र बन जाते हैं.

व्यक्तिगत नज़रिये से, मैं भी भारत में पूरी तरह रच-बस चुका हूँ. यहाँ आने के तुरन्त बाद मैं अपनी पत्नी से मिला.

उसका परिवार यहीं से है और मैं जहाँ आने के बाद रह रहा था, वहाँ से सिर्फ़ 300 मीटर की दूरी पर उनकी एक दुकान थी. वे दूध और पानी से लेकर जैम तक, सब कुछ बेचते थे, और वो भी कभी-कभी दुकान पर मदद करती थी.

ग़फ़्फ़ार दाराबियान को ख़ुशी है कि उनके पास आने वाले ग्राहक उनके दोस्त बन जाते हैं.
©UNHCR/Anurag Banerjee
ग़फ़्फ़ार दाराबियान को ख़ुशी है कि उनके पास आने वाले ग्राहक उनके दोस्त बन जाते हैं.

एक दिन, मैं उनसे दूध ख़रीदने गया तो उसके पास मुझे वापस देने के लिये छु्ट्टा नहीं था. उसने कहा कि अगली बार जब मैं आऊँ, तो पैसे दे दूँ. लेकिन इसके बजाय, मैंने तुरन्त पास के टैक्सी स्टैण्ड पर जाकर पैसे छुट्टे करवाए.

कुछ ही मिनटों बाद जब मैं वो देने के लिये वापस गया तो वो बोली, “तुम कितने पागल हो? इतनी कम राशि देने के लिये, आप फिर वापस आए हो?"

और मैंने कहा, "देखो, अगर कल, मेरे साथ कुछ हो जाए तो तुम कहोगी कि रक़म अदा करने वापस नहीं आया. लेकिन वास्तव में, मुझे छुट्टे नहीं चाहिए. कृपया अपना एक रुपया रख लें.”

ऐसे ही ये सिलसिला शुरू हुआ! अब हमारी दो बेटियाँ हैं, एक 26 साल की और एक 23 साल की. मैं हमेशा यहीं रहना चाहता हूँ: अब मेरी एक पत्नी है, परिवार है और ज़िम्मेदारियाँ हैं.

मैं समझता हूँ कि कुछ देशों में लोग सोचते हैं कि शरणार्थी और आश्रय चाहने वाले लोग परेशानी ही देते हैं और समाज के लिये बोझ होते हैं.

मैं इन लोगों से कहना चाहता हूँ कि शरणार्थी आपके समाज को नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे - इसके विपरीत, हम काम कर सकते हैं, मदद कर सकते हैं.

मुझे उम्मीद है कि यदि लोग ये देख सकें कि शरणार्थी किस तरह मेज़बान समुदायों के लिये लाभप्रद हो सकते हैं, तो वो भी आसानी से उन्हें स्वीकार कर सकेंगे.”

ये, पहले यहाँ प्रकाशित हो चुके लेख का सम्पादित रूप है.