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योरोप में महिलाओं को, निर्धनता से निकालने के लिये, 'ज़्यादा आर्थिक स्वतन्त्रता' की दरकार

ब्रिटेन के लन्दन शहर के केन्द्रीय इलाक़े में एक बेघर महिला भीख माँगकर गुज़ारा कर रही है.
Unsplash/Tom Parsons
ब्रिटेन के लन्दन शहर के केन्द्रीय इलाक़े में एक बेघर महिला भीख माँगकर गुज़ारा कर रही है.

योरोप में महिलाओं को, निर्धनता से निकालने के लिये, 'ज़्यादा आर्थिक स्वतन्त्रता' की दरकार

महिलाएँ

चरम ग़रीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर ओलिवियर डे शटर ने कहा है कि योरोपीय संघ में महिलाओं को समान वेतन, बाल देखभाल सम्बन्धी सहायता और घरेलू कामकाज में हाथ बँटाने के ज़रिये ज़्यादा आर्थिक स्वतन्त्रता दी जानी चाहिये. महिलाओं को हरसम्भव सहायता प्रदान करके, उन्हें निर्धनता के गर्त में धँसने से बचाया जाना होगा. यूएन न्यूज़ ने, 8 मार्च को, अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर, ओलिवियर डे शटर से ख़ास बातचीत की...

स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ओलिवियर डे शटर ने हाल में ही योरोपीय संघ का दो महीने का दौरा पूरा किया है.

बताया गया है कि योरोप में पुरुषों की तुलना में, महिलाओ के निर्धनता का शिकार होने की आशंका अधिक है और कोविड-19 महामारी के दौरान हालात और भी ख़राब हुए हैं. 

योरोपीय संघ में पुरुषों की तुलना में, महिलाओं के निर्धनता से प्रभावित होने की सम्भावना अधिक क्यों है?

योरोपीय संघ में निर्धन पुरुषों की संख्या लगभग 20.4 प्रतिशत है और निर्धनता का सामना करने वाली महिलाओं की संख्या लगभग 22.3 प्रतिशत है. इस अन्तर से स्पष्ट नज़र आता है कि पुरुषों की तुलना में, महिलाओं के लिये, निर्धनता की चपेट में आने का जोखिम ज़्यादा है.

इससे भी अधिक हैरत की बात शायद ये है कि, बुज़ुर्ग महिलाओं के लिये, विशेष रूप से पेंशन पाने की उम्र पहुँचने के बाद, यह खाई और बढ़ रही है – योरोपीय संघ में औसतन 37 प्रतिशत. 

घरों में महिलाओं और पुरुषों के बीच भूमिकाओं का विभाजन है, जोकि महिलाओं के लिये दीर्घकालीन, पूर्णकालिक रोज़गार की तलाश कर पाना ज़्यादा मुश्किल बनाता है.

बच्चों की देखभाल सम्बन्धी ज़िम्मेदारियों के कारण महिलाओं के करियर में अक्सर व्यवधान आता है. 

बहुत सी महिलाएँ, आंशिक रूप से (Part-time) काम करती हैं, इसलिये उनके हिस्से में आने वाली पेंशन का स्तर भी कम है. 

एकल अभिभावक वाले अधिकांश घरों में महिलाएँ ही घर की मुखिया हैं, और ऐसे 40 फ़ीसदी परिवारों पर निर्धनता व सामाजिक बहिष्करण का जोखिम है. 

यह एक बड़ी संख्या है. सामाजिक संरक्षा प्रणालियाँ, परिवार से जुड़े रुझानों में आ रहे बदलावों के अनुरूप तैयार नहीं हैं और इन हालात में महिलाओं पर विषमतापूर्ण असर पड़ा है. 

कोविड-19 संकट का महिलाओं पर किस तरह असर पड़ा है?

दुर्भाग्यवश, मुझे डर है कि महामारी का अर्थ, लैंगिक समानता के मुद्दे पर एक क़दम पीछे हटना होगा. 

इस संकट के कारण पुरुषों की अपेक्षा, शायद ऐसी महिलाओं की संख्या ज़्यादा होगी, जिन्हें अपने पूर्णकालिक रोज़गार छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ेगा.

इसके अलावा, स्कूलों के बन्द होने से महिलाओं पर भार बढ़ा है, चूँकि वे पुरुषों की तुलना में बच्चों की ज़्यादा देखरेख करती हैं. 

मगर, यह जागरूकता भी बढ़ रही है कि अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य और देखभाल सम्बन्धी क्षेत्रों में अहम ज़िम्मेदारियों में महिलाओं के काम को कम करके आँका जाता है. 

मुझे उम्मीद है कि इन अहम कामगारों को भविष्य में बेहतर वेतन और रोज़गार अनुबन्ध हासिल होंगे, जिनमे से अधिकांश महिलाएँ हैं.

चरम ग़रीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर ओलिवियर डे शटर.
© Brolywood Studio
चरम ग़रीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टेयर ओलिवियर डे शटर.

हर किसी के लिये निर्धनता से निपटने हेतु क्या किया जाना चाहिये?

कोविड-19 संकट, अपनी तमाम पीड़ाओं के बावजूद, यह चर्चा फिर शुरू करने का अवसर है कि हम किस तरह का समाज चाहते हैं. 

हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसकी एक समावेशी अर्थव्यवस्था हो, जहाँ हर व्यक्ति के पास अच्छे ढंग से जीवन जीने का न्यायसंगत अवसर हो.

इसका अर्थ, निर्धनता में रह रहे लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव से लड़ाई, कम योग्यता वाले लोगों के लिये ज़्यादा रोज़गारों का सृजन, और लोगों की शिक्षा व जीवन-पर्यन्त ट्रेनिंग में निवेश करने से है. 

इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेने के लिये लोगों के पास एक अवसर है.

यह उस आम विचार से कहीं बढ़कर है कि हमें केवल सम्पदा का सृजन करना है और फिर उसका पुनर्वितरण.  

क्या आप उन महिलाओं की आपबीती साझा कर सकते हैं, जिनसे आपने मिशन के तहत बातचीत की?

आँकड़ों के पीछे वास्तविक लोग हैं, जिनके पास कहने के लिये असाधारण बातें हैं. मेरी मुलाक़ात एक ऐसी महिला से हुई, जिसे भोजन सामग्री तो मिल रही थी लेकिन उसे पकाने के लिये रसोई नहीं थी.

मैं ऐसी महिलाओं से मिला, जिन्होंने पाया कि घरेलू हिंसा से बचकर आने वाली महिलाओं के लिये बनाई गई शरणगाह में उनके रहने के लिये पर्याप्त स्थान नहीं है.
कोविड-19 संकट शुरू होने के बाद से ही, इन शरण स्थलों पर भीड़ है, चूँकि घरेलू हिंसा के मामलों में तेज़ी आई है.

योरोपीय संघ में महिलाओं के हालात सुधारने के लिये क्या किये जाने की आवश्यकता है?

अन्तत:, इसके लिये घरों में भूमिकाओं के एक नए वितरण की दरकार होगी, और उसे बदले बिना, इन मौजूदा ख़ामियों को पाट पाना बेहद मुश्किल होगा. 

योरोपीय संघ के सदस्य देशों को, शुरुआती बचपन में शिक्षा व देखभाल पर ज़्यादा निवेश करना चाहिये, ताकिल महिलाएँ पूर्णकालिक रोज़गार अपना सकें. 

ऐसा करने से उन्हें ज़्यादा आर्थिक स्वतन्त्रता हासिल होगी और वे जीवन में अपने निर्णय ख़ुद लेने में सक्षम होंगी. 

साथ ही, कम्पनियों में वेतन सम्बन्धी नीतियों में ज़्यादा पारदर्शिता की आवश्यकता है ताकि समान मूल्य के काम के लिये समान वेतन का सिद्धान्त सुनिश्चित किया जा सके. 

हमें पगार में 14 प्रतिशत की लैंगिक खाई को, बिना किसी देरी के, पाटना होगा.

आपको अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिये ऊर्जा कहाँ से मिलती है?

मैंने विशेष अधिकारों से भरा जीवन जिया है, और इसके परिणामस्वरूप क़र्ज़दार महसूस करता हूँ. 

मैं, इसलिये मानता हूँ कि सबसे स्वाभाविक बात उन लोगों को आवाज़ देना है, जिन्हें अब तक चुप कराया गया है.

निर्धनता में घिरे लोगों को एक ऐसी समस्या के रूप में देखा गया है, जिसका हमें ख़याल रखना है, लेकिन ऐसे लोगों की तरह नहीं, जिनके अनुभवों से हम सबक़ सीख सकते हैं.

मेरी भूमिका इन लोगों को आवाज़ देने की है, और इसके फलस्वरूप ऐसी नीतियों का होना, जोकि उनके जीवित अनुभवों की मदद से बेहतर ढंग से तैयार की जाएँ. 

मेरा सोचना है कि निर्धनता से निपटने और विषमताओं को घटाने में हमारी योग्यता में सुधार लाने का सर्वोत्तम तरीक़ा यही है.

स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतन्त्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतन्त्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.