रंजीतसिंह डिसले - शिक्षा बाँटने वाले अदभुत अध्यापक
ब्रिटेन के वर्के फ़ाउण्डेशन और संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवँ सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने हाल ही में, भारत में महाराष्ट्र प्रदेश के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक, रंजीतसिंह डिसले को, ‘वैश्विक शिक्षक पुरस्कार’ (Global Teacher Prize) से सम्मानित किया है. यह सम्मान उन अध्यापकों को दिया जाता है जो शिक्षा प्रदान करने के दायित्व को पूरा करते हुए, सामान्य चलन से आगे बढ़कर कुछ अलग कर दिखाते हैं.
भारत के पश्चिमी प्रदेश महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले के एक छोटे से गाँव परीतेवाड़ी के सरकारी स्कूल में अध्यापक, रंजीतसिंह डिसले तब ख़ुशी से उछल पड़े, जब 140 देशों से मिले 12 हज़ार नामाँकनों में से, पुरस्कार के लिये उनके नाम की घोषणा हुई.
“मैंने तुरन्त अपनी माँ को गले से लगा लिया. वो मेरे जीवन का बहुत यादगार क्षण था.”
रंजीतसिंह डिसले ने 12 साल पहले इसी सरकारी स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू किया. आश्चर्य की बात यह है कि रंजीतसिंह कभी अध्यापक बनना ही नहीं चाहते थे.
उन्होंने कहा, “सच बताऊँ तो मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक अध्यापक बन जाऊँगा. मेरा तो बचपन से सपना था कि मैं एक आईटी इंजीनियर बन जाऊँ. बचपन से ही मुझे टैक्नॉलॉजी से बेहद लगाव था और मैं तकनीक से जुड़े छोटे-छोटे नवाचार करता रहता था.”
अपने इस सपने को पूरा करने के लिये उन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया भी, लेकिन किसी कारणवश, उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़कर घर वापिस आना पड़ा.
तब वो बहुत दुखी थे. उन्हें लगा उनका करियर ख़त्म हो चुका है.
लेकिन नियति ने उनके लिये कुछ और ही सोच रखा था.
रंजीतसिंह ने अपने पिता के कहने पर अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्र में दाख़िला लिया और अध्यापक बनने का प्रशिक्षण शुरू किया.
“वहाँ जो अध्यापक थे, वो मेरे अन्दर बहुत बदलाव लाए. आज मैं जिस तरह पूरे आत्मविश्वास के साथ बात करता हूँ, तब मैं ऐसा नहीं था. उस समय मैं बहुत शर्मीला होता था.”
“लेकिन जब मैंने देखा कि मेरे अन्दर कितने बदलाव आए, तो मेंने सोचा कि मैंने जो अनुभव किया है, क्यों नहीं मैं दूसरों को भी वह अनुभव कराऊँ, और उनकी ज़िन्दगी भी बदल दूँ.”
और इस तरह शुरू हुआ रंजीतसिंह का नया सफ़र.
संघर्ष भरी राह
रंजीतसिंह को 5 जनवरी 2009 का वो दिन, आज भी याद है, जब उन्होंने पहली बार इस स्कूल में क़दम रखा था. उनके प्रधानाध्यापक उन्हें उनकी कक्षा दिखाने ले गए तो वो चौंक उठे.
उस कक्षा को गाय-भैंस बाँधने के लिये इस्तेमाल किया जा रहा था.
“मैं एकदम आश्चर्यकित था. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 21वीं शताब्दी में कोई कक्षा ऐसी भी दिखती होगी.”
उन्होंने कहा, “सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि अभिभावकों को भी इसके बारे में कुछ नहीं कहना था. उनको मालूम ही नहीं था कि शिक्षा की क्या अहमियत है."
रंजीतसिंह उन दिनों के बारे में बात करते हुए भावुक हो जाते हैं.
“सबसे बड़ी चुनौतियाँ थीं, अभिभावकों में जागरूकता की कमी और शिक्षा के प्रति उदासीन रवैया, कक्षा में बच्चों की ना के बराबर उपस्थिति, और परीक्षाओं में उनका ख़राब प्रदर्शन.”
“मैंने लोगों के रौष का सामना किया, उनका ग़ुस्सा बर्दाश्त किया, लोगों ने मुझपर पत्थर फेंके, मेरी मोटरसाइकिल के पहिये की हवा निकाल दी.”
“लेकिन चुनौतियाँ अपने साथ समाधान भी लेकर आती हैं. मैंने समस्याओं पर नहीं, समाधान पर ध्यान केन्द्रित किया.”
रंजीतसिंह ने पहले 6 महीने में, घर-घर जाकर परिवारों के आर्थिक हालात, उनके धर्म, शिक्षा, संस्कृति और उनकी सोच के बारे में जानकारी एकत्र करनी शुरू की.
वो इस नतीजे पर पहुँचे कि गाँव की महिलाएँ कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद ज़्यादा समझदार थीं. तब उन्होंने बच्चों की शिक्षा के लिये माताओं की मदद लेनी शुरू की.
रूढ़िवादिता से लड़ाई
सबसे मुश्किल था, लड़कियों को पढ़ाई के लिये स्कूल में भेजने के लिये लोगों को मनाना. पारम्परिक रूप से उस इलाक़े में लड़कियों को ज़्यादातर खेत में या घर के कामकाज में लगाया जाता था, शिक्षा लड़कों तक ही सीमित थी. बाल-विवाह की प्रथा भी आम थी.
वर्ष 2010 में, एक गाँववाले ने रंजीतसिंह को बताया कि उनके विद्यालय की एक लड़की की शादी हो रही है. “मैं चकित रह गया कि एक 13 साल की लड़की का विवाह कैसे हो सकता है?”
रंजीतसिंह आनन-फ़ानन में वहाँ पहुँच गए और पुलिस के हस्तक्षेप से आख़िरकार उस लड़की का बाल-विवाह रोका गया.
इसके बाद, रंजीतसिंह ने नियमित तौर पर स्थानीय समुदाय के साथ बातचीत करके, उन्हें बाल-विवाह के नुक़सान समझाने की कोशिशें शुरू कीं.
उन्होंने बताया कि कम उम्र में शादी करने से बच्चियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा व आर्थिक स्थिति पर किस तरह असर पड़ता है.
उन्होंने दूसरे इलाक़ों की शिक्षित लड़कियों, डॉक्टरों, पुलिस में काम करने वाली युवतियों को समुदाय से मिलने के लिये आमन्त्रित करना शुरू किया. जब इन लड़कियों ने अभिभावकों के साथ अपने अनुभव बाँटने शुरू किये, तो वे उनके लिये प्रेरणास्रोत बनने लगीं.
रंजीतसिंह ने लोगों को समझाया कि “अगर ये लड़की इतना कुछ कर सकती हैं, तो आपकी बेटी क्यों नहीं कर सकती है? जो उसके माता-पिता ने उसे दिया है वो आप क्यों नहीं दे सकते हैं. तो यह विचार मैंने उनके दिमाग़ में डालना शुरू किया और धीरे-धीरे उनको समझ में आने लगा.”
उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि आज परीतेवाड़ी में बाल-विवाह की कुरीति एकदम ख़त्म हो चुकी है, और विद्यालय में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति 100 प्रतिशत है.
टैक्नॉलॉजी का इस्तेमाल
धीरे-धीरे बच्चे स्कूल में आने लगे, लेकिन शिक्षा में उनकी उत्सुकता बरक़रार रखना भी ज़रूरी था.
बचपन से ही इंजीनियर बनने का सपना देखने वाले रंजीतसिंह का कम्प्यूटर व नई-नई तकनीकों से खेलने का शौक अब काम आया. "मुझे पूरा विश्वास था कि टैक्नॉलॉजी की मदद से, मैं ग्रामीण और शहरी भारत के बीच का अन्तर पाट सकता हूँ.”
उन्होंने अपने पिता की मदद से एक लैपटॉप ख़रीदा, और फिर वो, रोज़ाना अपने विद्यालय के बच्चों को इस लैपटॉप पर मनोरंजन फ़िल्में दिखाने लगे.
इसके पीछे सोच यह थी कि “ये बच्चे घर जाकर दूसरों को बताते थे कि आज हमने ये फ़िल्म देखी, कल हम ये देखने वाले हैं. हम इतने मज़े कर रहे हैं. स्कूल में बहुत मज़ा आता है. तो स्कूल ना जाने वाले बच्चे सोचते कि मेरे दोस्त स्कूल में इतने मज़े कर रहे हैं तो क्यों ना मैं भी स्कूल जाऊँ.”
“अब जब बच्चे और लड़कियाँ स्कूल में आने लगे तो मैंने इसी मनोरंजन को मनोरंजक शिक्षा में बदल दिया.”
इसके लिये, उन्होंने वीडियो बनाकर, पावर प्वाइन्ट प्रेज़ेन्टेशन या फिर यूट्यूब के वीडियो दिखाकर छात्रों को पढ़ाना शुरू किया.
वो अभिभावकों को शिक्षा से जोड़ने के लिये, ये वीडियो को, अभिभावकों के फ़ोन पर भी भेजने लगे.
इसके अलावा, उन्होंने शाम सात बजे के अलार्म का तरीक़ा भी शुरू किया. स्कूल में शाम सात बजे का ‘अलार्म ऑन, टीवी ऑफ़” माता-पिता के लिये संकेत होता है कि अब वो अन्य काम छोड़कर, बच्चों को पढ़ाई में, उनके गृह-कार्य में मदद करें.
रंजीतसिंह कहते हैं, “मेरा मानना है कि माता-पिता, अध्यापक और बच्चे शिक्षा के तीन स्तम्भ होते हैं. अगर ये तीनों हाथ मिला लें तो चमत्कार हो सकता है."
क्यूआर कोड्स
लेकिन कई बार ऐसा होता कि ये वीडियो सामग्री फोन पर चलने में कठिनाई होती थी, फ़ाइल ख़राब हो जाती थी.
एक दिन दुकान से सामान ख़रीदते समय उनकी नज़र क्यूआर कोड (QR Code) के ज़रिये भुगतान लेने के तरीक़े पर अटक गई.
उन्होंने पाठन सामग्री को क्यूआर कोड के ज़रिये अभिभावकों के फ़ोन में भेजने की शुरुआत कर दी और 27 क्यूआर कोडों के माध्यम से पाठन सामग्री के वीडियो उपलब्ध करवाने शुरू किये.
इन क्यूआर कोड के स्टिकर पाठ्य-पुस्तकों पर चिपका दिये जाते, जिससे दोबारा पाठ समझने या घर पर अध्ययन करने के लिये उन्हें फ़ोन पर आसानी से स्कैन करके वीडियो देखे जा सकते थे.
“अब बच्चे घर बैठे भी अपनी शिक्षा जारी रख सकते थे. लेकिन ये केवल वीडियो देखने या ऑडियो सुनने तक ही सीमित नहीं था, बाद में वो पाठ उन्हें समझ में आया या नहीं, यह जाँचने के लिये, मैं अन्त में उन्हें एक ऑनलाइन टेस्ट भी देता था, और उसमें उनके अंक देखकर उनकी प्रगति का आकलन करता था.”
इससे ख़ासतौर पर लड़कियों के लिये घर बैठे शिक्षा हासिल करना भी आसान हो गया.
महामारी से व्यवधान के लिये तैयार
रंजीतसिंह ने बताया कि तकनीक के ज़रिये शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उस पिछड़े इलाक़े में, हर एक घर में कम से कम एक फ़ोन अवश्य हो.
इसके लिये, उन्होंने निजी क्षेत्र की कई कम्पनियों की कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) निधि से वित्तपोषण हासिल किया.
वर्ष 2020 में, जब कोविड महामारी के कारण दुनियाभर में छात्रों की शिक्षा प्रभावित हुई, उनके गाँव के बच्चों, ख़ासतौर पर लड़कियों पर इसका कोई ज़्यादा असर नहीं पड़ा और वो आसानी से फ़ोन व क्यूआर कोड के ज़रिये अपनी शिक्षा जारी रख सके.
वो गर्व से कहते हैं, “आप कह सकते हैं कि हम इसके लिये पहले से तैयार थे.”
मेरी कक्षा - पूरी दुनिया
ग्लोबल टीचर पुरस्कार के रूप में रंजीतसिंह को 10 लाख डॉलर की पुरस्कार राशि मिलेगी. रंजीतसिंह ने इसका आधा हिस्सा, अन्तिम 10 की सूची में स्थान बनाने वाले बाक़ी नौ प्रतिभागियों के साथ बाँटने की घोषणा पहले ही कर दी है.
वो कहते हैं, “अध्यापक एक-दूसरे के साथ बाँटने में विश्वास रखते हैं. अपना ज्ञान बाँटते हैं, अपना कौशल, अपनी जानकारी, यह सब साझा करते रहते हैं. तो फिर पुरस्कार की यह धनराशि भी क्यों ना आपस में बाँट लें.”
“इस पुरस्कार की राशि को अपने देश के बच्चों के कल्याण के लिये उपयोग करेंगे. तो इसका लाभ पूरी दुनिया को होगा. पूरी दुनिया ही मेरा क्लासरूम है. दुनिया के बच्चे, मेरे भी बच्चे हैं.”
अपने हिस्से की पुरस्कार राशि के बारे में अपनी योजना बताते हुए वो कहते हैं कि उन्हें मिलने वाली बाक़ी 50 प्रतिशत राशि का 20 फ़ीसदी हिस्सा ‘Let’s cross the borders’ नामक एक प्रोजेक्ट के लिये इस्तेमाल किये जाने की योजना है, जोकि अशान्त देशों में बच्चों की पढ़ाई के लिये इस्तेमाल किया जाएगा.
इसका लक्ष्य, बच्चों को अहिंसा का पाठ पढ़ाना और एक-दूसरे के साथ सम्वाद स्थापित करना है
बाक़ी 30 प्रतिशत पुरस्कार राशि, अध्यापकों के नवाचार में सहयोग करने के लिये इस्तेमाल की जाएगी.
भारत में यूनेस्को के निदेशक, एरिक फॉल्ट ने, किसी भारतीय अध्यापक को पहली बार ‘ग्लोबल टीचर अवॉर्ड’ मिलने पर बधाई देते हुए कहा, “दुनियाभर में कोविड महामारी से लगभग 6 करोड़ 30 लाख शिक्षक प्रभावित हुए हैं.”
ऐसे में, हमें समावेशी शिक्षा में सहयोग देने के लिये, अध्यापकों में, पहले से कहीं ज़्यादा निवेश करने की ज़रूरत है. अध्यापक ही एक समान, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्ति में, सबसे अधिक प्रभावी शक्ति होते हैं, और सतत विकास लक्ष्यों की असल कुँजी होते हैं.”
जैसाकि रंजीतसिंह कहते हैं, “इस दुनिया को 21वीं सदी के अध्यापकों की ज़रूरत है. क्योंकि 21वीं सदी के छात्रों को 20वीं सदी के शिक्षक पढ़ा रहे हैं, वो भी 19 वीं शताब्दी के पाठ्यक्रम को 18वीं सदी की तकनीकों का इस्तेमाल करके.”
“भविष्य टैक्नॉलॉजी के हाथ में है. तो अध्यापकों को शिक्षा में तकनीक का इस्तेमाल करने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा प्रयास करने होंगे. तभी हम 21वीं सदी के शिक्षक बन सकते हैं.”