भारत: जम्मू कश्मीर में बदलावों से 'अल्पसंख्यकों के अधिकार कमज़ोर होने का जोखिम'

संयुक्त राष्ट्र के स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने चिन्ता जताई है कि भारत के जम्मू कश्मीर राज्य की स्वायत्तता समाप्त किये जाने और नए क़ानून लागू किये जाने से मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों की राजनैतिक भागीदारी का स्तर घटने की आशंका है. मानवाधिकार विशेषज्ञों ने गुरूवार को जारी अपने वक्तव्य में, भारत सरकार से राज्य की जनता के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया है.
जम्मू कश्मीर राज्य की स्थापना विशिष्ट स्वायत्तता के दर्जे के साथ की गई थी, जिसका उद्देश्य, स्थानीय जनता की जातीय, भाषाई और धार्मिक पहचान का सम्मान व उसकी गारण्टी सुनिश्चित करना था.
जम्मू कश्मीर, भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य है और संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत, इसे विशेष दर्जा प्राप्त था.
UN experts are concerned that #India’s decision to end #JammuKashmir’s autonomy and enact new laws could curtail previous level of political participation of Muslim & other minorities, as well as potentially discriminate against them in important matters: https://t.co/VnHoNwhXFL pic.twitter.com/gD81dtsaN8
UN_SPExperts
अल्पसंख्यक मामलों पर विशेष रैपोर्टेयर फ़रनाँड डे वैरेनेस, और धर्म या आस्था की आज़ादी पर विशेष रैपोर्टेयर अहमद शहीद ने कहा कि भारत सरकार ने, 5 अगस्त 2019, को इकतरफ़ा निर्णय लेते हुए, विचार-विमर्श किये बिना, जम्मू और कश्मीर का विशेष संवैधानिक दर्जा ख़त्म कर दिया.
यूएन विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि नए हालात में रोज़गार, भूमि स्वामित्व सहित अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो सकता है.
“स्वायत्तता का ख़त्म होना और नई दिल्ली स्थित संघीय सरकार का सीधा शासन थोपा जाना दर्शाता है कि जम्मू कश्मीर के लोगों की अब अपनी सरकार नहीं है, और उन्होंने इस क्षेत्र में ऐसे क़ानून तैयार करने या उनमें संशोधन करने की शक्ति खो दी है, जिनसे अल्पसंख्यकों के रूप में उनके अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होती हो.”
यूएन विशेषज्ञों ने बताया कि विशेष, संवैधानिक दर्जे के तहत उस क्षेत्र के लोगों को दिये गए संरक्षण को, मई 2020 में, तथाकथित निवास-स्थान सम्बन्धी (Domicile) नियमों को मंज़ूरी देकर, वापिस ले लिया गया.
उन्होंने कहा कि भूमि क़ानूनों में हुए बदलाव, इन संरक्षणों को और भी कमज़ोर बना रहे हैं.
मानवाधिकार विशेषज्ञों के अनुसार, क्षेत्र में डोमिसाइल प्रमाणपत्रों के लिये सफल आवेदकों की संख्या से यह चिन्ता गहरा गई है कि भाषाई, धार्मिक और जातीय आधार पर, जनसांख्यिकी (Demographic) बदलाव लाने की प्रक्रिया चल रही है.
ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू कश्मीर से बाहर के आवेदकों को भी ये प्रमाणपत्र मिले हैं.
विशेष रैपोर्टेयरों के अनुसार नए क़ानूनों से, वे पुराने क़ानून निरस्त हो गए हैं जिनमें कश्मीरी मुस्लिम, डोगरी, गुज्जर, पहाड़ी, सिख, लद्दाखी और अन्य अल्पसंख्यकों को सम्पत्ति ख़रीदने, भूमि स्वामित्व और राज्य में रोज़गार के लिये अधिकार हासिल थे.
स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने चिन्ता जताई है कि पूर्ववर्ती जम्मू कश्मीर राज्य से बाहर के स्थाई निवासियों के लिये इन क़ानूनी बदलावों से, क्षेत्र में आकर बसने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा. इससे क्षेत्र की जनसांख्यिकी पर असर पड़ने और अल्पसंख्यकों द्वारा प्रभावी ढँग से अपने मानवाधिकारों का इस्तेमाल करने की क्षमता कमज़ोर होगी.
स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भारत सरकार से जम्मू कश्मीर की जनता के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया है.
साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना होगा कि वे अपने राजनैतिक विचारों को अभिव्यक्त कर पाने, और उनकी ज़िन्दगी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर अर्थपूर्ण भागीदारी करने में सक्षम हों.
यूएन विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में भारत सरकार के साथ सम्पर्क में हैं.
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