प्राकृतिक पर्यावरण को उठाना पड़ता है युद्ध का ख़ामियाज़ा

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तन्त्र का बेहतर प्रबन्धन किये जाने का आहवान करते हुए ध्यान दिलाया है कि ऐसा करने से युद्धग्रस्त समाजों में शान्ति स्थापना करने और संकट प्रभावित देशों में टिकाऊ विकास में जान फूँकने का रास्ता निकल सकता है.
महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने शुक्रवार, 6 नवम्बर को, युद्ध व सशस्त्र संघर्षों में पर्यावरण के शोषण की रोकथाम के लिये अन्तरराष्ट्रीय दिवस पर ये सन्देश दिया है.
Conflict and the environment are deeply interlinked.We need to act boldly & urgently to reduce the risks presented by environmental degradation & commit to protecting our planet from the debilitating effects of war. https://t.co/FKtJES9wHS pic.twitter.com/zKcv5jn8Gd
antonioguterres
इस सन्देश में उन्होंने कहा, “अगर हमें टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने हैं तो हमें पर्यावरण क्षय व जलवायु परिवर्तन से संघर्षों के लिये उत्पन्न होने वाले संघर्षों को कम करने और अपने ग्रह को युद्ध के विनाशकारी प्रभावों से बचाने के लिये तुरन्त और साहसिक कार्रवाई करनी होगी.”
ये दिवस यूएन महासभा ने वर्ष 2001 में शुरू किया था जो संघर्षों के दौर में पर्यावरण को होने वाली क्षति की तरफ़ ध्यान आकर्षित करता है.
इस अवसर पर ये भी ध्यान दिलाया जाता है कि ये नुक़सान अक्सर पीढ़ियों तक नज़र आता है और अक्सर जिसका दायरा राष्ट्रीय सीमाओं से भी परे भी फैल जाता है.
यूएन प्रमुख ने कहा कि वैसे तो जलवायु व्यवधान और पर्यावरण क्षरण, सीधे तौर पर संघर्षों के लिये ज़िम्मेदार नहीं है, मगर लेकिन उनके कारण संघर्षों का जोखिम बढ़ सकता है.
इन सभी मुद्दों के मिले-जुले असर से आजीविकाएँ, खाद्य सुरक्षा, सरकारों में भरोसा, स्वास्थ्य व शिक्षा और सामाजिक समानता, नकारात्मक रूप में प्रभावित होते हैं.
उन्होंने कहा, “प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी के क्षरण समुदायों की चुनौतियों में इज़ाफ़ा होता है जोकि पहले से ही लघु और दीर्घकालीन रूप में नाज़ुक हालात का सामना कर रहे हैं. महिलाएँ और लड़कियाँ असन्तुलित तरीक़े से प्रभावित होती हैं.”
“प्राकृतिक संसाधन ना केवल पानी और बिजली जैसी बहुत सी बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति को आसान बनाती हैं, बल्कि उन्हें विभाजित गुटों के बीच विश्वास सृजन और लाभ वितरण के लिये एक मंच के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है.”
ये तो सर्वविदित है कि बहुत से देशों में हिंसक संघर्षों के कारण आगे बढ़ने का रास्ता साफ़ नहीं हो रहा है, संघर्ष प्रभावित देशों के टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने की भी बहुत कम सम्भावना है.
इसके अतिरिक्त, ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वर्ष 2030 तक, विश्व की लगभग 80 प्रतिशत निर्धनतम आबादी ऐसे देशों में रह रही होगी जो अस्थिरता, संघर्ष और हिंसा से ग्रस्त हैं.
ये हालात जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और बढ़ते तापमानों के कारण और भी ज़्यादा जटिल हो सकते हैं.
यूएन प्रमुख एंतोनियो गुटेरेश ने कहा, “संघर्ष और पर्यावरण एक दूसरे के साथ घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं. दुनिया भर में, भीतरी संघर्षों का सामना करने वाले देशों में से लगभग 40 प्रतिशत में, महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों का मुद्दा भी एक पहलू है.”
उन्होंने कहा, “अक्सर यही देखा जाता है कि पर्यावरण को युद्ध का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है. कभी तो जानबूझकर पर्यावरणीय तबाही मचाई जाती है, कभी ग़ैर-इरादतरन पर्यावरण को नुक़सान होता है."
"इसके अलावा अक्सर ऐसा भी होता है कि सरकारें संघर्षों के दौरान प्राकृति संसाधनों का नियन्त्रण व प्रबन्धन करने में नाकाम रहती हैं.”