वैश्विक संकट से उबरने के लिये ज़्यादा समानता बहुत ज़रूरी
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार प्रमुख मिशेल बाशेलेट ने कहा है कि पार-अटलाण्टिक दास व्यापार के प्रभावों की स्वीकार्यता, लोगों को दास बनाए जाने के चलन व उपनिवेशवाद की समीक्षा और मूल्याँकन के सन्दर्भ में बात करें तो नस्लवाद, पूर्वाग्रह व नफ़रत और असहिष्णुता के ख़िलाफ़ लड़ाई में वर्ष 2001 में हुआ डर्बन विश्व सम्मेलन एक मील का पत्थर साबित हुआ है.
यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाशेलेट ने सोमवार को डर्बन घोषणा-पत्र के कार्रवाई कार्यक्रम (Programme of Action) पर अन्तर-सरकारी कार्यकारी दल को याद दिलाते हुए कहा कि मानव इतिहास के कुछ बहुत भयावह अध्यायों की विरासत की पड़ताल करते समय, ये ध्यान आता है कि दक्षिण अफ्रीका में हुए ऐतिहासिक सम्मेलन और, रंगभेद के ख़िलाफ़ उस देश के संघर्ष से प्रेरित घोषणा-पत्र का वजूद में आना, अब भी अधूरा काम है.
UN expert @DubravkaSRVAW expresses alarm at increase in domestic violence during #COVID19 with “gender-blind” lockdown measures. She urges States at #UNGA to take immediate steps to stop violence against women.Read more 👉 https://t.co/us4auHHX3S pic.twitter.com/ax78dNhv3X
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आधुनिक युग में नस्लवाद की ऐतिहासिक जड़ों के मुद्दे को उठाने, और दासता व दास व्यापार को मानवता के ख़िलाफ़ अपराध मानने की दिशा में डर्बन घोषणा-पत्र संयुक्त राष्ट्र का पहला सम्मेलन था.
रास्ता अभी लम्बा है
यूएन मानवाधिकार प्रमुख ने कहा कि हाल के महीनों ने याद दिलाया है कि अभी ऐसे विश्व का मुक़ाम हासिल करने में लम्बा रास्ता बाक़ी है जहाँ सभी इनसान समान रूप से मानवाधिकारों का आनन्द उठा सकें. उन्होंने कोविड-19 को ये मुक़ाम हासिल करने के रास्ते में हाल के समय में पैदा हुई एक बड़ी बाधा क़रार दिया.
मिशेल बाशेलेट ने ध्यान दिलाते हुए कहा कि महामारी ने 10 लाख से भी ज़्यादा लोगों की ज़िन्दगी ख़त्म कर दी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भीषण आर्थिक मन्दी को हवा दे दी है.
दस करोड़ से ज़्यादा लोगों के अत्यन्त ग़रीबी के गर्त में धकेल दिये जाने की आशँका है, जोकि 1998 के बाद से पहली बार इस संख्या में इतनी बढ़ोत्तरी है.
उन्होंने कहा, ” जैसाकि हमने ये संकट शुरू होने के समय से देखा है, वायरस ख़ुद तो इनसानों के बीच कोई भेद नहीं करता, मगर इसके प्रभाव ने ज़रूर भेद उत्पन्न कर दिया है.”
मानवाधिकार उच्चायुक्त ने उन लोगों की तकलीफ़देह तस्वीर पेश करने की कोशिश की जिनकी आवाज़ें ख़ामोश हैं और उनके हितों का मुश्किल से ही ध्यान रखा जाता है, और जिन पर कोविड-19 महामारी की तबाही सबसे ज़्यादा पड़ी है क्योंकि उन लोगों पर महामारी के स्वास्थ्य और सामाजिक व आर्थिक परिणाम बहुत भीषण रहे हैं.
व्यवस्थागत भेदभाव
ऐसे ही भेदभाव का सामना करने वालों में अफ्रीकी मूल के आदिवासी और राष्ट्रीय व नस्लीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक हैं जिनके अधिकारों का व्यवस्थागत नस्लीय भेदभाव के ज़रिये उल्लंघन किया गया है.
मिशेल बाशेलेट ने ज़ोर देकर कहा कि नस्लीय भेदभाव का सामना करने वाले ज़्यादातर लोग अनौपचारिक क्षेत्र में कामकाज करते हैं, ज़्यादातर लोग ग़रीबी में जीवन जीते हैं और अपना कामकाज व रोज़गार को देने के कगार पर जीते हैं, और उन्हें कोई सामाजिक संरक्षण भी हासिल नहीं है.
”इस सबके बावजूद, इस तरह का नस्लीय भेदभाव करने वाले है बेचारे ऐसे लोग हैं जिन्हें घर पर रहकर ही बहुत सीमित साधनों अपनी शिक्षा के इन्तज़ाम करने पड़ते हैं, उन्हें डिजिटल कौशल सीखने व इण्टरनेट उपलब्धता के भी बहुत कम अवसर मिलते हैं. कुछ तो ऐसे होते हैं जिन्हें स्कूल वापिस जाकर अपनी शिक्षा जारी करने का मौक़ा ही नहीं मिल पाता.”
प्रवासियों पर ठीकरा फोड़ना
यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त ने ध्यान दिलाते हुए कहा कि महामारी ने प्रवासियों, शरणार्थियों, सुरक्षा के लिये पनाह माँगने वालों और देश विहीन लोगों के हालात की सम्वेदनशीलता को भी सामने ला दिया है.
इन लोगों को किसी देश की सुरक्षा व संरक्षा हासिल नहीं होती है और उनके अधिकारों पर गम्भीर प्रतिबन्ध लगने के कारण, ऐसे बहुत से लोगों को बहुत परेशान किया जाता है, उन्हें मनमाने तरीक़े से गिरफ़्तार किया जाता है और उनके बड़े समूहों को जबरन उनके रहने के स्थानों से निकाल दिया जाता है.
मिशेल बाशेलेट ने ध्यान दिलाया, “हमने एशियाई और एशियाई मूल के लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव व नफ़रत का चलन बढ़ते देखा है, जिसमें अक्सर हिंसा का भी इस्तेमाल किया जाता है.”
“महामारी से पहले भी हमने, दुनिया भर में कुछ ख़ास समूह के लोगों के ख़िलाफ़ नकारात्मक नज़रिये में बढ़ोत्तरी देखी थी.”
मानवाधिकार उच्चायुक्त के अनुसार प्रवासी व नस्लीय आधार पर भेदभाव का निशाना बनाए जाने वाले अन्य समूहों को बलि का बकरा बनाते हुए समस्याओं के ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, ख़ासतौर से जहाँ आवास और रोज़गार व आमदनी की क़िल्लत है.
महिलाओं पर अत्यधिक बोझ
ये संकट महिलाओं को ग़ैर-आनुपातिक रूप में प्रभावित कर रहा है, ख़ासतौर से, उन्हें जो पहले से ही लिंग, नस्ल और जातीय भेदभाव का सामना कर रही थीं.
यूएन मानवाधिकार प्रमुख ने कहा, “महिलाओं को ऐसा अत्यधिक कामकाज करना पड़ता है जिनका उन्हें कोई वित्तीय या आर्थिक फ़ायदा नहीं होता है. इससे उनकी ग़रीबी बढ़ती है, उनके आमदनी वाले कामकाज को लेकर असुरक्षा बढ़ती है और सार्वजनिक सेवाओं तक उनकी पहुँच सीमित होती है.”
“महिलाएँ स्वास्थ्य संकट का मुक़ाबला करने के प्रयासों में अग्रिम मोर्चों पर तैनात रही हैं, और संक्रमित होने वालों में भी उनकी बहुत बड़ी संख्या है.”
उन्होंने कहा कि और ज़्यादा समानता का माहौल बनाया जाना एक नैतिक ज़िम्मेदारी है... और इस तरह के संकटों व कोविड-19 का मुक़ाबला करने, बेहतर पुनर्बहाली व बेहतर पुनर्निर्माण करने के लिये एक आवश्यकता भी.