म्याँमार: राख़ीन प्रान्त में हमलों में बच्चों की मौतों को रोकना होगा - मानवाधिकार विशेषज्ञ

म्याँमार में मानवाधिकारों की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र के स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ थॉमस एण्ड्रयूज़ ने मंगलवार को कहा है कि देश के राख़ीन प्रान्त में गाँवों पर सुरक्षा बलों के हमले तुरन्त रोकने होंगे, और तुरन्त संघर्षविराम घोषित होना चाहिये.
थॉमस एण्ड्रयूज़ ने हताहत होने वाले बच्चों की बढ़ती संख्या पर रोष व्यक्त करते हुए कहा, “इस बारे में गम्भीर सवाल उठाए गए हैं कि क्या ये बच्चे, और अन्य लोगों की बढ़ती संख्या क्या वाक़ई केवल युद्धक गोलीबारी में अनजाने में निशाना बन रही है, या फिर उन्हें जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है.”
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“एक पखवाड़ा पहले म्येबॉन नगर में गोलीबारी में पाँच वर्ष की उम्र के दो बच्चे मारे गए थे और एक अन्य बच्चा घायल हुआ था.”
स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने म्याँमार की सेना के दो पूर्व सैनिकों के एक वीडियो इक़बालिया बयान का हवाला देते हुए कहा, “दण्डमुक्ति के माहौल में मानवाधिकार नहीं फल-फूल सकते.”
उस इक़बालिया बयान में उन्होंने अगस्त 2017 में रोहिंज्या लोगों की हत्याओं, बलात्कार और अन्य अपराधों में हिस्सा लिया था. सेना के उस दमन के बाद लाखों रोहिंज्या, जिनमें बहुसंख्या मुसलमानों की थी, सुरक्षा के लिये पड़ोसी देश बांग्लादेश चले गए थे.
थॉमस एण्ड्रयूज़ ने म्याँमार की सरकार से अन्तरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) और देश के लिये निष्पक्ष जाँच प्रणाली के साथ सहयोग करने का आग्रह किया.
इस सन्दर्भ में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) का भी हवाला दिया जो जनसंहार के अपराधों की रोकथाम और उनके लिए दण्डित करने वाली सन्धि के लिये म्याँमार की प्रतिबद्धताओं व जवाबदेही की समीक्षा कर रहा है.
विशेष मानवाधिकार रैपोर्टैयर ने म्याँमार के सामने कथित मानवाधिकार उल्लंघन के साथ-साथ दरपेश अन्य चुनौतियों की तरफ़ भी ध्यान दिलाया, जिनमें चुनाव अभियान और कोविड-19 महामारी से निपटना भी शामिल हैं, इसलिये ज़्यादा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग का भी आहवान किया है.
संयुक्त राष्ट्र के स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने चिन्ता जताते हुए ये भी कहा कि म्याँमार सरकार राजनैतिक उम्मीदवारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबन्दियाँ लगाने के लिये अस्पष्ट व मनमाने नियम लागू कर रही है.
“ऐसा करना ना केवल बुनियादी अधिकारों का हनन है, बल्कि ये ख़तरनाक भी है.”
उन्होंने ये भी ध्यान दिलाया कि जातीय अल्पसंख्यकों के हितों का ख़याल रखने वाली वेबसाइटों को भी बन्द करने के आदेश जारी किये गए हैं. सूचना व जानकारी एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव की रीढ़ हैं, और सूचना व जानकारी महामारी के समय में लोगों की ज़िन्दगियाँ बचाने में बहुत अहम साबित हो सकती है.
थॉमस एण्ड्रयूज़ ने 8 नवम्बर 2020 को होने वाले चुनाव में मताधिकार को सीमित किये जाने पर भी चिन्ता जताई है, “अगर नस्ल, जातीयता या धर्म के आधार पर मतदान के अधिकार से किसी को वंचित किया जाता है तो, चुनाव के नतीजों में लोगों की इच्छा का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं होगा.”
स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ ने कहा, “ऐसे कोई सबूत देखने में नहीं आए हैं कि म्याँमार सरकार राख़ीन प्रान्त या बांग्लादेश में शरणार्थी शिविरों में रहने वाले मतदान की उम्र के लाखों रोहिंज्या लोगों के लिये मताधिकार सम्भव बनाने के लिये इच्छुक हो.”
थॉमस एण्ड्रयूज़ अमेरिकी काँग्रेस के एक पूर्व सदस्य और वॉशिंगटन में रहने वाले सलाहकार हैं. उन्होंने स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ की ज़िम्मेदारी साल 2020 के शुरू में संभाली थी.
उन्होंने एक रोहिंज्या गाँव – ख़ान दा पाड़ा उर्फ़ ‘कान क्या’ पर अगस्त 2017 में म्याँमार की सेना के हमले और उसमें तबाह किया जाने से पहले और बाद की कुछ सैटेलाइट तस्वीरें भी पेश कीं. जिस स्थान पर वो गाँव और लोगों के घर हुआ करते थे, अब वहाँ एक सैनिक स्स्थान है.
मानवाधिकार विशेषज्ञ ने यूएन मानवाधिकार परिषद में पिछले सप्ताह दिये गए वक्तव्य का सन्दर्भ भी दिया जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेश से रोहिंज्या लोगों की वापसी शुरू करना म्याँमार सरकार की प्राथमिकता है.
उन्होंने इस पर सवाल उठाते हुए कहा, “लेकिन उन लोगों के लिये वापसी का क्या अर्थ होगा जो किसी समय कान क्या गाँव में रहा करते थे? वहाँ रहने वाले वो लोग वापसी पर किस तरह सामान्य एकीकरण का हिस्सा बन सकते हैं, जबकि उनके रहने का मूल स्थान सैन्य ठिकाना बन चुका है.
“जो लोग बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में फँस कर रह गए हैं, उनके लिये न्याय कहाँ है, जबकि म्याँमार में उनके मूल निवास स्थानों पर उसी सेना के अड्डे व ठिकाने बनाए जा रहे हैं जिस पर उनके ख़िलाफ़ जनसंहारक कार्रवाई करने के आरोप आईसीजे में लगे हैं.”
विशेष रैपोर्टेयर
विशेष रैपोर्टेयर यूएन मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं. वो संयुक्त राष्ट्र के स्टाफ़ नहीं होते, उनका काम स्वैच्छिक होता है और उन्हें उनके काम के लिये संयुक्त राष्ट्र से कोई वेतन नहीं मिलता है.