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गरिमामय और न्यायसंगत विश्व के लिये समान वेतन सुनिश्चित करने की पुकार

थाईलैण्ड की एक फ़ैक्ट्री में काम कर रही एक प्रवासी महिला जिन्हें 12 घण्टों तक काम करने के बावजूद न्यूनतम आय से भी कम मिलता है.
UN Women/Piyavit Thongsa-Ard
थाईलैण्ड की एक फ़ैक्ट्री में काम कर रही एक प्रवासी महिला जिन्हें 12 घण्टों तक काम करने के बावजूद न्यूनतम आय से भी कम मिलता है.

गरिमामय और न्यायसंगत विश्व के लिये समान वेतन सुनिश्चित करने की पुकार

महिलाएँ

महिलाओं और पुरुषों को समान कार्य के लिये मिलने वाले वेतनों में अन्तर और गहराई से समाई व्यवस्थागत विषमताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने के प्रयासों के तहत शुक्रवार, 18 सितम्बर, को ‘अन्तरराष्ट्रीय समान वेतन दिवस’ मनाया गया. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने पहली बार मनाए गए इस दिवस पर अपने सन्देश में कहा कि कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिये ग़ैर-बराबरी का दर्जा जीवन के अन्य क्षेत्रों में विषमता को पनपने का मौक़ा देता है.  

वैश्विक स्तर पर दशकों की मुहिम और समान वेतन के लिये अनेक क़ानून होने के बावजूद महिलाओं को अब भी समान काम के लिये पुरुषों की तुलना में कम धन मिलता है – पुरुषों को मिले हर एक डॉलर पर महिलाओं को 80 सैन्ट्स से भी कम धन मिलता है. 

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माँताओं, काली महिलाओं, महिला शरणार्थिय  व प्रवासियों और विकलाँग महिलाओं के लिये यह आँकड़ा और भी कम है.  

यूएन प्रमुख ने कहा, “महिलाओं की नौकरियों में स्वास्थ्य बीमा और सवैतनिक अवकाश जैसे फ़ायदों की सम्भावना कम होती है. जब महिलाएँ पेन्शन की हक़दार भी होती हैं, तब भी कम वेतन रहने के कारण उन्हें वृद्धावस्था में कम पेंशन मिलती है.”

उन्होंने कहा कि समान वेतन सम्बन्धी क़ानून इस समस्या को हल करने में नाकाम रहे हैं और इसलिये नए समाधानों के लिये ज़्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है. 

“हमें पूछना होगा कि महिलाओं को कम वेतन वाले कार्यों में क्यों धकेला जाता है; महिलाओं के दबदबे वाले पेशों जैसेकि स्वास्थ्य देखभाल सैक्टर में वेतन कम क्यों है; इतनी महिलाएँ अंशकालिक काम क्यों करती हैं; माँ बनने के बाद महिलाएँ अपनी आमदनी को कम होते क्यों देखती हैं जबकि बच्चों वाले पुरुषों का वेतन बढ़ता है; और ज़्यादा आमदनी वाले पेशों में महिलाएँ एक सीमा तक ही क्यों क़ैद हो जाती हैं.”

यूएन प्रमुख ने ज़ोर देकर कहा कि घिसी-पिटी लैंगिक मान्यताओं का अन्त किये जाने की आवश्यकता है और संस्थागत अवरोधों को हटाने के साथ-साथ पारिवारिक दायित्वों की ज़िम्मेदारियाँ समान रूप से उठानी होंगी.

उनके मुताबिक ये प्रयास इसलिये भी ज़रूरी हो गए हैं क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण मौजूदा समस्या के विकराल रूप लेने की आशंका गहरा रही है. 

ग़ौरतलब है कि कोरोनावायरस संकट से उन महिलाओं के रोज़गारों पर ज़्यादा असर पड़ा है जो सेवा, सत्कार और अनौपचारिक सैक्टरों में काम करती हैं. 

उन्होंने कहा कि कोविड-19 महामारी ने हर प्रकार की विषमताओं को उजागर और उन्हें और भी गहरा किया है जिनमें लैंगिक विषमता भी है. 

महासचिव ने ध्यान दिलाया कि पुनर्बहाली में निवेश करते समय हमें महिलाओं के ख़िलाफ़ वेतन सम्बन्धी भेदभाव का अन्त करने के अवसर का सदुपयोग करना होगा ताकि सभी के लिये गरिमामय और न्यायोचित विश्व का निर्माण हो सके. 

असमान वेतन: एक सार्वभौमिक समस्या

महिला सशक्तिकरण के लिये काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र संस्था (UN Women) के मुताबिक अनेक देशों में शिक्षा और श्रम बाज़ार में महिलाओं की हिस्सेदारी की दर बढ़ने के बावजूद वैतनिक खाई को पाटे जाने की गति धीमी रही है.

मौजूदा गति से आर्थिक स्तर पर लैंगिक बराबरी लाने में 257 वर्ष का समय लग सकता है. सभी देशों के सभी सैक्टरों में, हर आयु समूह में और शिक्षा के सभी स्तरों पर महिला कामगारों की औसत आय पुरुषों की तुलना में कम है. 

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लेकिन वेतन सम्बन्धी लैंगिक खाई के अनुमान हालात की पूर्ण तस्वीर पेश नहीं करते हैं, विशेषत: विकासशील देशों में जहाँ अनौपचारिक अर्थव्यवस्थाओं के बारे में जानकारी का अभाव है. 

अनौपचारिक सैक्टरों में कार्यरत महिलाओं की बड़ी संख्या है, इसलिये यूएन एजेंसी का मानना है कि वास्तविक हालात उपलब्ध आँकड़ों से कहीं ज़्यादा ख़राब हो सकते हैं. 

वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में प्रगति की धीमी रफ़्तार पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए, हर वर्ष 18 सितम्बर को अन्तरराष्ट्रीय समान वेतन दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी. 

यूएन महासभा ने समान कार्य के लिये सर्वजन को समान वेतन का लक्ष्य हासिल करने का आहवान किया है और सभी पक्षकारों को इस दिशा में कार्रवाई करने के लिये प्रोत्साहित किया है.