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भारत में 'नई मंज़िल' से महिला सशक्तिकरण

नाई मंज़िल की लाभार्थियों में से आधे से अधिक महिलाएँ हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएँ बहुसंख्यक हैं.
UNDP India/Deepak Malik
नाई मंज़िल की लाभार्थियों में से आधे से अधिक महिलाएँ हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएँ बहुसंख्यक हैं.

भारत में 'नई मंज़िल' से महिला सशक्तिकरण

महिलाएँ

विश्व बैंक की ऋण सहायता से भारत सरकार का अल्पसंख्यक कल्याण मन्त्रालय ‘नई मंज़िल’ नामक एक अनूठा महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम चला रहा है. इसके तहत उन महिलाओं को  शिक्षा पूरी करने का अवसर व कौशल प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बनने में मदद की जा रही है जो  किन्हीं कारणों से शिक्षा पूरी नहीं कर पाती हैं. विश्व बैंक की वरिष्ठ शिक्षा विशेषज्ञ मार्गेराइट क्लार्क और शिक्षा सलाहकार प्रद्युम्न भट्टाचार्जी का संयुक्त ब्लॉग.  

समीरा की उम्र केवल 14 थी, जब उसे स्कूल छोड़ना पड़ा. इसके तुरन्त बाद, उसके ग़रीब माता-पिता ने उसकी शादी कर दी. शादी के बाद वो केरल के मलप्पुरम ज़िले में अपने पति के घर पहुँच गई और उस मछुआरे समुदाय की अन्य महिलाओं की तरह, घर पर रहकर अपने पति के परिवार के लिये खाना पकाने और साफ़-सफ़ाई के काम में लग गई. 

फिर एक दिन उनके इलाक़े में भारत सरकार की ‘नई मंज़िल- नव क्षितिज’ नामक कार्यक्रम ने दस्तक दी. इस कार्यक्रम के तहत, अल्पसंख्यक समुदायों के उन लोगों को अपनी शिक्षा पूरी करने और एक कौशल सीखने का दूसरा मौका दिया जाता है जो किन्हीं कारणों से अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं.

जब समीरा के पति ने उसे इस कार्यक्रम में शामिल होने की इजाज़त दे दी, तो समीरा का ख़ुशी का ठिकाना ना रहा. 

समीरा ने इस कार्यक्रम की तीन अन्य महिलाओं के साथ एक-डेढ़ साल बाद ‘बिस्मिल टेलरिंग’ नामक दर्ज़ी की दुकान शुरू की और अपने समुदाय के लोगों के कपड़े सिलना शुरू किया.

समीरा बताती हैं, "हमारे ग्राहकों को हमारा काम पसन्द आया और हमारी अच्छी कमाई होने लगी."

लेकिन काम शुरू होने के कुछ ही महीनों बाद, कोविड-19 महामारी के कारण तालाबन्दीदी घोषित कर दी गई. इससे उनके नए उद्यम पर बुरा असर पड़ा और काम मिलना बन्द होने लगा. 

संकट में परिवारों को मदद मिलती है

जब चार महीने बाद हमने समीरा से बात की, तो दूसरे छोर से उनकी जोशभरी आवाज़ सुनकर हैरान रह गए.

उनके हर शब्द से विश्वास छलक रहा था. वैसे तो उनकी दुकान में हर व्यक्ति काम पर नहीं आ पा रहा था, लेकिन उन्हें मास्क बनाने के अनेक ऑर्डर मिले थे और उन्हें यक़ीन था कि तालाबन्दी हटते ही उनकी छोटी सी दुकान फिर से मुनाफ़ा देने लगेगी. 

शिक्षा और प्रशिक्षण, साथ ही बाहरी दुनिया से सम्पर्क ने, समीरा में एक नए आत्म-आश्वासन का संचार किया था कि इस अस्थायी झटके के बावजूद, वो दोबारा आगे बढ़ सकती हैं.

ये आत्मविश्वास इसलिये भी बढ़ा था क्योंकि उन्हें समझ आ गया था कि इस संकट के समय भले ही उनका मछुआरा पति समुद्र में न जा सके, लेकिन वो अपने छोटे परिवार के गुज़र-बसर के लायक कमा लेंगी. 

समीरा की कहानी की ही तरह - 32 वर्षीय कौसर जहाँ की कहानी भी है. कौसर तीन बच्चों की माँ है और भारत के पूर्वी शहर हैदराबाद में परिवार के नौ अन्य सदस्यों के साथ रहती हैं.

महज़ 17 साल की उम्र में कौसर की शादी हो गई थी, जिससे उनकी स्कूली पढ़ाई भी छूट गई थी. ‘नई मंज़िल’ कार्यक्रम की तालीम की बदौलत उन्हें एक सरकारी अस्पताल में रोज़गार मिला, जिसमें मरीज़ों की देखभाल की जाती थी.

आज, जबकि लाखों लोगों की जिन्दगियाँ और आजीविकाएँ महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, कौसर अस्पताल से मिलने वाले 4000 रुपए के बल पर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं.

उन्हें तालाबन्दी के बाद स्थिति बेहतर होने तक अस्पताल नहीं आने को कहा गया है, लेकिन उन्हें अब भी उनका आधा वेतन मिल रहा है. हालाँकि यह उनके पहले के वेतन का आधा है, मगर उनके 9 सदस्यों वाले परिवार के लिये एक जीवन रेखा साबित हुआ है. विशेषकर इसलिये कि फिलहाल उनके बिजली मैकेनिक पति काम पाने में असमर्थ हैं.

दोनों ही महिलाएँ अपने समुदाय के अन्य परिवारों की दुर्दशा देखकर काँप उठती हैं और यह सोचने के लिये मजबूर हो जाती हैं कि अगर उन्हें 'नई मंज़िल' से शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं मिलता, तो उनके परिवारों का क्या हाल होता.  

दरअसल, 'नई मंज़िल' से केवल उनके परिवार ही लाभान्वित नहीं हुए हैं. कौसर अब अपने प्रशिक्षण का उपयोग करते हुए, हैदराबाद के पुराने इलाक़ों में अपने समुदाय के लोगों में इंजेक्शन लगाने, टेस्ट रिपोर्ट समझाने, रक्तचाप की जाँच करने व बीमार लोगों को डॉक्टर से सलाह लेने जैसी मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर रही हैं.  

समीरा भी केरल में अपने छोटे से मछुआरे समुदाय की भलाई में लगी हैं. इसके अलावा वो महामारी से प्रभावित प्रवासियों और अन्य ग़रीब लोगों को खाना खिलाने के लिये स्थापित की गई रसोई में भी मदद करती हैं. 

सशक्तिकरण सम्भव है

समीरा ने पहले घर से बाहर न निकलने वाली अपनी सहेलियों को बदलते देखा है, अपनी सिलाई दुकान स्थापित करने में सहयोग करते देखा है – इनमें से अनेक महिलाएँ पहले घरेलू हिंसा की भी शिकार थीं.

समीरा का मानना है कि शिक्षा, कौशल और बाहरी दुनिया से सम्पर्क से जीवन-परिवर्तन योग्य सशक्तिकरण सम्भव है, जिससे महिलाओं को फलने-फूलने व उनकी पूर्ण क्षमता बाहर लाने में मदद होती है.  

अब समीरा आगे पढ़ाई करने और एक बेहतर उद्यमी बनने की योजना बना रही हैं.  वो चाहती हैं कि अन्य महिलाएँ भी उनके साथ आगे बढ़ें. हालाँकि उन्हें मालूम है कि उनके सभी सहकर्मियों को उनकी तरह परिवार का समर्थन नहीं मिलता है.

समीरा का मानना है कि उनके समुदाय के प्रभावशाली धार्मिक नेता इस परिवर्तन में बहुत अहम भूमिका निभा सकते हैं. असल में,  इन धार्मिक नेताओं ने ही उन कक्षाओं का उद्घाटन किया था जिनमें उन्होंने प्रशिक्षण लिया था. 

‘नई मंज़िल’ के लाभार्थियों में आधे से अधिक महिलाएँ हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएँ ज़्यादा हैं.

लाभार्थियों के पहले समूह ने 2017 में अपना प्रशिक्षण पूरा किया, जिसके बाद अनेक लोग नौकरियों या स्वरोज़गार की ओर बढ़ गए. अब तक, 50 हज़ार 700 से अधिक अल्पसंख्यक महिलाओं को कार्यक्रम द्वारा प्रदान की गई शिक्षा और कौशल का लाभ मिला है.

भारत में अल्पसंख्यक मामलों का मन्त्रालय, शिक्षा और रोज़गार के अवसरों का विस्तार करके, देश भर में अल्पसंख्यक समुदायों पर महामारी के प्रभाव को कम करने के लिये काम कर रहा है. 

हमने पिछले पाँच वर्षों में बार-बार ‘नई मंज़िल’ कार्यक्रम की बदौलत हुआ बदलाव नज़दीक से देखा है. शिक्षा और कौशल को एकीकृत करने वाले माध्यमों की भारी माँग को देखते हुए, इस कार्यक्रम को देश भर में अल्पसंख्यक समुदायों के लिये असली परिवर्तन की शुरुआत कहा जा सकता है.

भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे ‘नई मंज़िल’ कार्यक्रम को विश्व बैंक ने 5 करोड़ डॉलर के ऋण के ज़रिये समर्थन दिया है.

ये कार्यक्रम, 26 राज्यों और 3 केन्द्र शासित प्रदेशों में अल्पसंख्यक समुदाय के उन लोगों को छह महीने की शिक्षा और तीन महीने के कौशल प्रशिक्षण प्रदान करता है, जिन्हें किसी कारण से शिक्षा बीच में छोड़नी पड़ी हो. इसके ज़रिये, प्रशिक्षण के बाद छह महीने तक उन्हें आत्मनिर्भर बनने में भी मदद की जाती है.