परिवार और परम्परा ने दिखाई जलवायु कार्रवाई की राह

जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में जुटी भारत की अर्चना सोरेंग का मानना है कि आदिवासी जनजातियों को जलवायु कार्रवाई के केन्द्र में रखा जाना अहम है और पर्यावरण संरक्षण के उपायों के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही उनकी परम्पराओं और प्रथाओं से सीख ली जानी चाहिए. अर्चना उन सात युवाओं में से हैं जिन्हें दुनिया भर से महासचिव एंतोनियो गुटेरेश के पर्यावरण पर युवा सलाहकारों के समूह में शामिल किया गया है.
27 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने जलवायु परिवर्तन पर एक युवा सलाहकार समूह की घोषणा करते हुए कहा था कि, “हम एक जलवायु आपात स्थिति का सामना कर रहे हैं. हमारे पास अब समय नहीं बचा है. हमें कोविड -19 से बेहतर तरीक़े से उबरने, अन्याय और असमानता का सामना करने और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की ज़रूरत है."
जलवायु कार्रवाई पर महासचिव के इस युवा सलाहकार समूह में शामिल भारतीय जलवायु कार्यकर्ता अर्चना सोरेंग ओडिषा राज्य के सुंदरगढ़ जिले से हैं. खड़िया जनजाति की अर्चना सोरेंग क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर विभिन्न युवा संगठनों के साथ काम करते हुए आदिवासी समुदायों के पारम्परिक ज्ञान और प्रथाओं को संरक्षित कर उन्हें बढ़ावा देने में काफ़ी सक्रियता से भाग लेती रही हैं.
यूएन न्यूज़ के साथ एक ख़ास बातचीत में अर्चना ने बताया, “मेरे खड़िया आदिवासी समूह की जो भाषा है, उसमें मेरे उपनाम सोरेंग का अर्थ है: ‘पत्थर’. यह दिखाता है कि आदिवासियों की जीवनशैली प्रकृति से किस क़दर जुड़ी हुई है.”
“मैंने अपने परिवार में बचपन से यही देखा है. मेरे परिवार के जो बुज़ुर्ग हैं – मेरे नानाजी, मेरे पिताजी – उन्होंने बचपन से ही वनों का संरक्षण करने के लिये समिति बनाई थीं और इसी तरह वो पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों की सुरक्षा की प्रक्रिया चलाते आ रहे हैं.”
अर्चना ने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से रेगुलेटरी गवर्नेंस से एमए किया है और फिलहाल वो ओडिषा में अनुसंधान अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं.
कुछ साल पहले उनके पिता की मृत्यु हो गई. उनके पिता सीमित पढ़ाई-लिखाई के बावजूद पारम्परिक औषधि और वन संरक्षण का अटूट ज्ञान रखते थे. पिता की मौत के बाद उन्हें लगा कि उनके पिता के सथ ही उनकी विरासत, उनका पारम्परिक ज्ञान भी खो जाएगा जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं था.
“ये अहसास मुझे तब हुआ कि आज हमारे पूर्वज हमारे साथ हैं, जैसे नाना-नानी, माता-पिता – लेकिन कल ये नहीं रहेंगे. तो अगर आज हम अपने परिवार के इतिहास और प्रथाओं के बारे में नहीं लिख पाएंगे, तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को कैसे पता चलेगा कि हमारी संस्कृति और संरक्षण प्रथाएँ क्या थीं."
"अगर आज ये लुप्त हो जाती हैं तो आने वाली पीढ़ी के लिये कुछ होगा ही नहीं जलवायु समाधान देने के लिये.“
“तभी से मुझमें रुचि जगी कि आदिवासी समूह का हिस्सा होने के साथ-साथ ये मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने समुदाय के बारे में लिखूँ, रिसर्च करूँ कि किस तरह से हमारा आदिवासी समुदाय वन संरक्षण और पारिस्थितिक तंत्र की पुनर्बहाली में योगदान दे रहा है.”
अर्चना सोरेंग ने वर्ष 2018 से 2020 तकओडिषा के विभिन्न राज्यों में जा जाकर आदिवासियों के पारम्परिक ज्ञान पर रिसर्च की कि उनकी प्रथाएँ क्या हैं और वो किस तरह से वनों की सुरक्षा कर रहे हैं.
अर्चना ने बताया, “जैसे जंगल में आग एक बड़ा मुद्दा रहा है – तो हमारा आदिवासी समुदाय, गर्मी का मौसम आने पर जंगल में रोज़ाना गश्त करते हैं और जो सूखी पत्ती रहती हैं, उसे हटाने के लिये पंक्तियाँ बनाते हैं ताकि अगर जंगल में आग लगे भी, तो वो चारों तरफ़ न फैले."
"साथ ही रोज़ जंगल में जाकर ये सुनिश्चित करते हैं कि कोई जंगल से पेड़ ना चुरा ले, काट ना ले. साथ ही उन्होंने ये नियम-क़ानून भी बनाए हैं कि वन उत्पादन के सतत इस्तेमाल के लिये किस तरह जंगलों की सुरक्षा करनी है.”
संयुक्त राष्ट्र महासचिव की युवा सलाहकार समिति का काम छह जलवायु लक्ष्यों को लागू करने के रास्तों पर उन्हें सुझाव देना है.
अर्चना सोरेंग मानती हैं कि ये उनके लिये बहुत बड़ा सम्मान है व साथ ही एक अवसर भी है, “चूँकि मैं आदिवासी समूह से आती हूँ तो मुझे ये मौका मिला है कि मैं आदिवासी समुदाय के युवाओं की बात उन तक रख पाउँगी.”
जलवायु कर्रवाई में युवाओं की भागेदारी को वो बहुत अहम मानती हैं.
“युवाओं को भविष्य की जलवायु कार्रवाई का हिस्सा होना बहुत ज़रूरी है. क्योंकि जो भी आगे नीतियाँ बनेंगीं वो हम युवाओं पर ही लागू होंगी. तो इसलिये बहुत ज़रूरी है कि संयुक्त राष्ट्र युवाओं की बात सुने."
"इसलिये इस समिति का जो गठन हुआ है वो युवाओं को योगदान देने के लिये सक्षम बनाने के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है. इसके ज़रिये हम युवाओं की आवाज़ वहाँ तक पहुँचा पाएँगे.”
संयुक्त राष्ट्र के सभी जलवायु लक्ष्यों को समग्र मानते हुए उनका कहना है, “मुझे लगता है कि इसमें केवल एक राष्ट्र या दो राष्ट्रों के काम करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि सभी को एक-साथ, एक वैशिविक समुदाय के रूप में काम करना होगा और लागू करने के लिये आगे बढ़ना होगा."
"कहीं न कहीं हमें ये समझना बहुत ज़रूरी है कि ये जो जलवायु संकट है वो किसी एक व्यक्ति या देश पर असर नहीं डाल रहा, बल्कि इससे पूरी दुनिया पर ख़तरा है.”
अपनी इस नई भूमिका में भविष्य में जलवायु कार्रवाई कोआगे बढ़ाने की रणनीति साझा करते हुए अर्चना ने बताया कि युवाओं के पास अलग-अलग कला है – कोई लिखने में अच्छा है, कोई गाने में अच्छा है – और इसी के अनुरूप हमें कलात्मक तरीक़े से जलवायु कार्रवाई की माँग को आगे बढ़ाना होगा.
“दूसरा, सिर्फ़ एक स्तर पर हमें इसकी चर्चा नहीं करनी है बल्कि एकदम ज़मीनी स्तर से ऊपर के स्तर तक चर्चा करनी है. मेरी इच्छा है कि हम अगर जलवायु कार्रवाई गुट बना रहे हैं, तो हम गाँवों के स्तर से शुरू करें और फिर प्राँतीय, ज़िला, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचें, ताकि हर एक युवा इसमें शामिल हो.”
“तीसरा, हमें अपने पूर्वजों के पास वापस जाना पड़ेगा, उनसे संस्कृति सीखनी पड़ेगी कि किस तरह से हम फ्रंटलाइनर बन पायें इस जलवायु कार्रवाई में – ये देखना पड़ेगा.”
“और आख़िर में, हम युवा फैसला करेंगे कि जलवायु कार्रवाई कैसे होगी क्योंकि आगे की पीढ़ी में हम लोग ही रहने वाले हैं. इसलिये बहुत ज़रूरी है कि सभी हितधारक हमारी बात सुनें और उसे स्वीकार करें.”