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कोविड-19: वर्तमान स्थिति पर चिन्तन और भविष्य के आकलन का समय

भारत में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की प्रतिनिधि अर्जेंटीना मातावेल पिक्किन.
UNFPA
भारत में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की प्रतिनिधि अर्जेंटीना मातावेल पिक्किन.

कोविड-19: वर्तमान स्थिति पर चिन्तन और भविष्य के आकलन का समय

एसडीजी

जनसंख्या के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश भारत भी कोविड संकट से जूझ रहा है. अपनी विशिष्ट संस्कृति और जनसंख्या समूहों के कारण यहाँ की चुनौतियाँ भी अभूतपूर्व हैं. एक अरब 37 करोड़ की आबादी वाला ये देश दुनिया की सबसे युवा आबादी का भी प्रतिनिधित्व करता है. ऐसे में, कोविड-19 के ख़त्म होने के बाद देश के सकारात्मक पहलुओं को समन्वित करके, किस तरह चुनौतियों से निपटा जाए – 11 जुलाई को 'विश्व जनसंख्या दिवस' पर इन्हीं मुद्दों पर प्रकाश डालता भारत में यूएनएफ़पीए की प्रतिनिधि, अर्जेंटीना मातावेल का ब्लॉग.

इस समय समस्त वैश्विक समुदाय कोविड-19 के रूप में एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है, जिसका लोगों, समुदायों और देशों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है. हालाँकि इससे सभी लोग व वर्ग प्रभावित हुए हैं,

लेकिन कुछ जनसंख्या समूहों पर अधिक प्रतिकूल असर पड़ा है - ख़ासतौर पर महिलाओं और लड़कियों, जातिगत व आदिवासी अल्पसंख्यकों, प्रवासियों, शरणार्थियों, विकलाँग व्यक्तियों व अनौपचारिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर. 

इस वर्ष विश्व जनसंख्या दिवस की थीम है 'कोविड-19 की रोकथाम: अब महिलाओं और लड़कियों के स्वास्थ्य और अधिकारों की सुरक्षा कैसे की जाए.'

इसी थीम के अनुरूप - महिलाओं और लड़कियों के सामने आने वाली विशेष चुनौतियों को सामने लाकर, उनके उत्पीड़न की रोकथाम के लिए विकल्पों की पेशकश पर भी ध्यान है.

बाल विवाह की रोकथाम को लेकर हुई प्रगति कोविड संकट के कारण बेकार होने का ख़तरा बढ़ गया है.
UNFPA India/Arvind Jodna
बाल विवाह की रोकथाम को लेकर हुई प्रगति कोविड संकट के कारण बेकार होने का ख़तरा बढ़ गया है.

कोविड-19 का भारत में महिलाओं पर असर

यह ध्यान देना ज़रूरी है कि ये चुनौतियाँ कोविड-19 के कारण अचानक प्रकट नहीं हुईं. हालाँकि कोविड से मौजूदा प्रणालीगत सामाजिक लैंगिक असमानताएँ अधिक प्रत्यक्ष और विशाल रूप में सामने ज़रूर आई हैं. 

महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव जन्म से पहले ही शुरू हो जाता है, जैसा कि लैंगिक पक्षपातपूर्ण यानि लड़का व लड़की में भेद के ख़तरनाक स्तर से स्पष्ट है. महिलाओं के अधिकारों का ये दमन उनके पूरे जीवन में जारी रहता है.

इसके परिणामस्वरूप सबसे पहले ईश्वर प्रदत्त सम्पूर्ण विकास से वंचित होने के कारण ख़ुद उनका अपना नुक़सान होता है; और फिर पूरे समाज का, जो अपनी 50% आबादी के योगदान से वंचित रह जाता है.

अगर कोई सिर्फ़ एक मिनट रुक कर, इस उत्पादकता के नुक़सान की गणना करे, तो समाज से असमानता की जड़ों को उखाड़ने के संघर्ष में अर्थशास्त्री और राजनेता सबसे अगली क़तार में खड़े नज़र आएँगे.

अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों की त्रासदी

दुनिया के दूसरे देशों की तरह ही,  भारत में भी तालाबन्दी ने विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र, छोटे व्यवसायों और अपना उद्यम चलाने वाले लोगों के रोज़गार और आमदनी को प्रभावित किया.

हज़ारों किलोमीटर लम्बी पैदल यात्रा कर, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों सहित, अपने गाँवों को लौटते हज़ारों प्रवासियों की तस्वीरों ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और भारतीय नागरिकों की आत्मा झकझोर दी. आज भी ये तस्वीरें हमारे ज़ेहन में बसी हुई हैं.  

एक तरफ़ इन तस्वीरों से लोगों को पता चला कि देश के अन्दर कितनी बड़ी सँख्या में आन्तरिक प्रवासी हैं और दूसरी ओर उनके अस्तित्व की अनिश्चितता सबके सामने आ खड़ी हुई.

पहली बार लोगों ने इस त्रासदी को व्यक्तिगत रूप से देखते हुए उसमें अपनी ज़िम्मेदारी पर सवाल उठाए कि क्या वो अपने घरेलू और अनौपचारिक खुदरा कर्मचारियों की पर्याप्त देखभाल नहीं कर पाए या उनकी ज़रूरत के समय उन्होंने उनसे मुँह मोड़ लिया?

बुनियादी सुविधाओं की कमी

प्रवासियों के इस क़दम के पीछे वजह थी - भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं में कमी. कोविड ने स्वास्थ्य प्रणाली की प्रणालीगत कमज़ोरियों को भी उजागर किया.

चूँकि सार्वजनिक सुविधाओं का ध्यान कोविड  संक्रमित रोगियों के जीवन-रक्षक उपचार में लगा था, आपातकालीन प्रसूति और नवजात शिशु देखभाल और महिलाओं व लड़कियों के लिए गर्भ निरोधकों जैसी अन्य महत्वपूर्ण सेवाएँ ठप हो गईं. वहीं निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं के खर्चे ज़्यादातर लोगों की क्षमता से परे थे.

भारत में 15-49 की प्रजनन आयुवर्ग की 35 करोड़ 70 लाख महिलाएँ हैं, जिन्हें प्रजनन और प्रसवोत्तर देखभाल, प्रसव सेवाओं और परिवार नियोजन जैसी स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता होती है.

हालाँकि अभी किसी भी क्षेत्र पर कोविड के प्रभाव को लेकर सटीक आँकड़ों का हवाला देना सही नहीं होगा, लेकिन अन्य आपातकालीन सन्दर्भ और अनुभव हमें बताते हैं कि परिवार नियोजन सेवा के अभाव में लॉकडाउन के दौरान अवांछित गर्भधारण की सँख्या आसमान छू गई है.

युवा लड़कियों को विशेष रूप से घरों में दुर्व्यवहार और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा और संक्रमण के डर से घर पर प्रसव का विकल्प चुनने के कारण, प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु का ख़तरा बढ़ने की भी आशंका है.

स्वास्थ्य सुविधाएँ और स्कूल बन्द होने के साथ ही, ग़रीब परिवारों के छात्रों, विशेष रूप से लड़कियों के स्कूल छोड़ देने के आसार बढ़ रहे हैं व अब तक बाल विवाह में कमी को लेकर हुई प्रगति भी पलट जाने का ख़तरा बढ़ गया है.

भारत सरकार ने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में कमी को दूर करने के लिये  कुछ बहुत सकारात्मक क़दम उठाए हैं.

इनमें अनिवार्य आवश्यक सेवाओं की सूची में परिवार नियोजन और मातृत्व स्वास्थ्य सेवाओं की बहाली; नियमित  सलाह व दिशा-निर्देश; एकान्तवास के दौरान सेवाओं के लिए दिशानिर्देश और प्रोटोकॉल; नियमित परीक्षण; तत्काल उपचार; मीडिया की सक्रिय भूमिका और ग़रीबों को आर्थिक सहायता देना शामिल हैं.

जनसंख्या कोष के क़दम

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफ़पीए) ने अपने मौजूदा कार्यक्रमों को संयुक्त राष्ट्र के समन्वित कार्यक्रम के तहत कोविड-19 की राष्ट्रीय जवाबी कारर्वाई में योगदान के लिये ढाला.

स्वास्थ्य क्षेत्र में अपने कार्य को मज़बूत करने से लेकर कमज़ोर जनसंख्या समूहों, समुदायों और नागरिक समाज के साथ मिलकर, गर्भवती, जन्म के समय और स्तनपान कराने वाली महिलाओं तक सुरक्षित, गुणवत्ता युक्त सेवाओं व परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित की गई.

राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कुछ हस्तक्षेपों में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए दिशानिर्देशों, मानकों और प्रोटोकॉल के विकास में तकनीकी सहायता और लैंगिक हिंसा सेवाएँ शामिल हैं जिनमें परामर्श और आगे चिकित्सा सहायता सेवाएँ, स्वास्थ्य देखभाल, श्रमिकों का क्षमता निर्माण और लैंगिक हिंसा के पीड़ितों के लिये सेवा प्रदान करना शामिल हैं.

इसके अलावा, कोविड संक्रमण की रोकथाम व कलंक और भेदभाव को दूर करने के लिये सूचना, शैक्षिक और संचार सामग्री के विकास और प्रसार में भी सहयोग किया गया.

भविष्य के लिए समग्र दृष्टिकोण

2030 के वैश्विक एजेण्डा को साकार करने के लिए, वर्ष 2020 से संयुक्त राष्ट्र महासचिव के ‘कार्रवाई के दशक’ की शुरुआत हो रही है. यह हमें स्थिति में सुधार का एक और अवसर प्रदान करता है. हमें अपनी प्राथमिकताएँ फिर से निर्धारित करके, सरकार की 'सबका साथ, सबका विकास' की नीति और कार्यक्रम के साथ चलना है. 

इसके लिए कुछ ठोस नीति और कार्यक्रम सम्बन्धी सुझाव तय किए गए हैं:

सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, हममें से हर एक की ज़िम्मेदारी है कि हम अपनी रूढ़िवादिता को चुनौती दें और महिलाओं व लड़कियों की गरिमा का सम्मान करें.

दूसरा, हमें महत्वपूर्ण सेवाओं, ख़ासतौर पर जीवन रक्षक मातृत्व और नवजात स्वास्थ्य देखभाल व आपात स्थितियों के दौरान गर्भ निरोधक साधनों की उपलब्धता पर पुनर्विचार करना चाहिए. कोविड-19 केवल एक संकट है; आने वाले समय में निश्चित तौर पर बहुत सी अन्य आपात स्थितियाँ भी सामने आएँगी.

इसलिये हमारे पास एक ऐसी प्रणाली होनी चाहिये जो आपात स्थिति के दौरान सेवा तन्त्र को समय पर सक्रिय कर सके- ठीक उसी तरह जैसे कि एक बिजली के जैनरेटर की तरफ़ शायद ही कोई ध्यान देता है, लेकिन बिजली जाने पर वो ठीक समय पर चलकर सभी सेवाएँ बहाल कर देता है.

तीसरा, सम्मानजनक देखभाल सुविधा सहित हमारी स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करना. इसके लिए, स्वास्थ्य में अधिक निवेश, डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात में सुधार और मानव संसाधन के सार्वजनिक-निजी संस्थान वितरण का वस्तुनिष्ठ आकलन आवश्यक है.

चौथा, सरकार के दायरे के बाहर की संरचनाओं और नेटवर्क को सहयोग देकर उन्हें मज़बूत किया जाए. इनमें नागरिक समाज संगठन, बुज़ुर्ग संघ, श्रमिक संगठन जैसे सभी गुट शामिल हों - जो कमज़ोर और ज़रूरतमन्द आबादी समूहों को सहायता और सेवाएँ जुटाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं.

पाँचवा, जनसंख्या और प्रशासनिक डेटा के लिए अधिक मज़बूत व अधिक विश्वसनीय डेटा संग्रह प्रणाली स्थापित करना. विभिन्न जनसंख्या समूहों की ज़रूरतों को समझने और वार्ड व ग्राम स्तर तक उन्हें समय पर पहुँचाने के लिए ये बेहद ज़रूरी है. आँकड़े इकट्ठा करना इसलिए भी आवश्यक है कि कोई भी पीछे न छूट जाए.

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने हाल ही में जो संयुक्त राष्ट्र डेटा रणनीति प्रकाशित की है, उसमें भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों, सरकारों, शोधकर्ताओं, विकास चिकित्सकों और मानवतावादी उत्तरदाताओं के लिये आठ महत्वपूर्ण कार्यान्वयन योग्य प्राथमिकताएँ शामिल हैं.

और अन्त में, मज़बूत निगरानी प्रणाली और समुदाय के विचार सरकार तक पहुँचाने का तन्त्र, जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि ऐसी योजनाएँ बनें जो विकास की कमियों को पाट सकें और वास्तव में आबादी के सबसे वंचित व कमज़ोर लोगों तक पहुँचें, ख़ासकर महिलाओं और लड़कियों तक, जो 'वंचितों की श्रेणी में सबसे नीचे हैं’.

हमें याद रखना होगा कि हमारे समाज का कमज़ोर तबका जितना मज़बूत बनेगा, मानवता भी उतनी ही मज़बूत होगी – राष्ट्रों और परिवारों के सन्दर्भ में भी यही कहना उचित होगा.

विकास की राह पर सभी साथ चलें. कोई भी पीछे न छूट पाए!