कोविड-19: स्वास्थ्य मुश्किलों से परे भी जाती है आदिवासी समुदायों की पीड़ा

वैश्विक महामारी कोविड-19 के दन्श से दुनिया के आदिवासी समुदाय बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और इस बीमारी के नकारात्मक प्रभाव महज़ उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले तात्कालिक असर तक ही सीमित नहीं है. आदिवासी व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के नए स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ खोसे फ़्रांसिस्को काली ज़ाई ने सोमवार को उनकी मुश्किलों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया कि उनके जीवन-यापन के लिए ज़रूरी संसाधनों के लिए भी संकट खड़ा हो रहा है.
विशेष रैपोर्टेयर खोसे फ़्रांसिस्को काली ज़ाई ने बताया कि उन्हें, “दुनिया के हर कोने से रिपोर्टें मिल रही हैं जो बताती हैं कि कोविड-19 महामारी से आदिवासी समुदाय किस तरह प्रभावित हुए हैं. और मेरे लिए यह देखना गहरी चिन्ता की वजह है कि हमेशा यह स्वास्थ्य मामलों के बारे में नहीं होता.”
UN expert José Francisco Cali Tzay is seriously concerned over the devastating impact #COVID19 is having on #IndigenousPeoples beyond the health threat. Learn more: https://t.co/t7gdJhXcvo pic.twitter.com/lJgH0khWa6
UN_SPExperts
स्वतन्त्र मानवाधिकार विशेषज्ञ फ्रांसिस्को काली ज़ाई का सम्बन्ध ग्वाटेमाला में माया खाकचिकेल समुदाय से है और 1 मई से ही उन्होंने अपनी ये ज़िम्मेदारी सम्भाली है.
उन्होंने दुनिया भर में सरकारों से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया है कि कोविड-19 के बारे में अहम जानकारी को आदिवासी समुदायों की भाषा में भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
सोमवार को जारी अपने बयान में उन्होंने आगाह किया कि आदिवासी समुदायों में सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्र अक्सर बेहद कम होते हैं इसलिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता और सुलभता सुनिश्चित करना ज़रूरी होगा.
आदिवासी लोगों को विकास, स्व-निर्णय और भूमि, क्षेत्र व संसाधन सम्बन्धी अधिकारों की भी गारन्टी मिलनी चाहिए ताकि वे इस संकट का सामना और टिकाऊ विकास व पर्यावरण संरक्षण को आगे बढ़ा सकें.
उन्होंने याद दिलाया कि अनेक देशों में आपात हालात के कारण आदिवासी समुदायों के हाशिए पर धकेल दिए जाने की गति तेज़ हो गई है और चरम परिस्थितियों में उनके क्षेत्रों का सैन्यीकरण भी हो रहा है.
उन्होंने कहा कि आदिवासी लोगों को उनकी अभिव्यक्ति और सांगठनिक आज़ादी की मनाही है जबकि व्यवसायिक हित उनके क्षेत्रों में अतिक्रमण कर रहे हैं, जिससे उनकी भूमि, क्षेत्र और संसाधन तबाह हो रहे हैं.”
विशेष रैपोर्टेयर के मुताबिक कुछ देशों में आदिवासी लोगों के साथ चर्चाओं और पर्यावरण पर होने वाले असर की समीक्षा निलम्बित किये जा रहे हैं ताकि कृषि, खनन, बाँधों और बुनियादी ढाँचे से जुड़े मेगाप्रोजेक्ट आगे बढ़ाए जा सकें.
“अपनी भूमि और आजीविका गँवाने वाले आदिवासी लोग ग़रीबी, उच्च कुपोषण दर, स्वच्छ जल और साफ़-सफ़ाई की सुलभता के अभाव और मेडिकल सेवाओं में बहिष्करण की दिशा में धकेले जा रहे हैं. इससे वे इस महामारी से निपटने के प्रति कमज़ोर हो रहे हैं.”
बताया गया है कि कोविड-19 से अब तक बेहतर ढंग से निपटने में उन्हीं समुदायों को सफलता मिली है जिन्हें स्वायत्तता और स्व-शासन हासिल हैं. इससे उन्हें अपनी भूमि, क्षेत्रों और संसाधनों के प्रबन्धन में मदद मिली है. साथ ही वे पारम्परिक फ़सलों और पारम्परिक दवाइयों के सहारे खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर रहे हैं.
उन्होंने सरकारों का आहवान किया है कि आदिवासी समाजों को समर्थन मुहैया कराया जाना होगा ताकि वे अपने समुदायों की रक्षा कर सकें और यह सुनिश्चित भी कि उनके साथ भेदभाव ना हो.
उन्होंने कहा कि यह महामारी आगाह कर रही है कि हमें बदलाव लाने की आवश्यकता है. व्यक्ति के बजाय सामूहिक हितों का मूल्य समझना होगा और समावेशी समाजों का निर्माण करना होगा जो हर एक इन्सान का सम्मान व रक्षा करें क्योंकि यह सिर्फ़ स्वास्थ्य रक्षा से जुड़ी बात भर नहीं है.
स्पेशल रैपोर्टेयर और वर्किंग ग्रुप संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रिया का हिस्सा हैं. ये विशेष प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार व्यवस्था में सबसे बड़ी स्वतंत्र संस्था है. ये दरअसल परिषद की स्वतंत्र जाँच निगरानी प्रणाली है जो किसी ख़ास देश में किसी विशेष स्थिति या दुनिया भर में कुछ प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है. स्पेशल रैपोर्टेयर स्वैच्छिक रूप से काम करते हैं; वो संयक्त राष्ट्र के कर्मचारी नहीं होते हैं और उन्हें उनके काम के लिए कोई वेतन नहीं मिलता है. ये रैपोर्टेयर किसी सरकार या संगठन से स्वतंत्र होते हैं और वो अपनी निजी हैसियत में काम करते हैं.